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अष्टांग योग । महर्षि पतंजलि । योगसूत्र

महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योगसूत्र का मुख्य विषय अष्टांग योग प्रयोगात्मक सिद्धान्तों पर आधारित योग के परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एक साधना पद्धति है।  “अष्टांग' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। (अष्ट + अंग) जिसका अर्थ है आठ अंगों वाला। अर्थात अष्टांगयोग वह साधना मार्ग है जिसमें आठ साधनों का वर्णन मिलता है जिससे साधक अपने शरीर व मन की शुद्धि करके परिणामस्वरूप एकाग्रता भाव को प्राप्त कर समाधिस्थ हो जाता है तथा कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है। 

"यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि "। (योगसूत्र- 2 /29)

अष्टांग योग के आठ अंग इस प्रकार से है-

1. यम

2. नियम

3. आसन

4. प्राणायाम 

5. प्रत्याहार 

6. धारणा 

7. ध्यान 

8. समाधि 

महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग को दो भागों में विभाजित किया जाता है। - 1. बहिरंग योग 2. अन्तरंग योग।

Ashtanga yoga

1. यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार इन पाँच को बहिरंग योग कहा जाता है। तथा 6. धारणा 7. ध्यान और 8. समाधि इन तीन को अन्तरंग योग कहा जाता है।

 बहिरंग योग- 1. यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार

1. यम-  

यमयते नियम्यते चित्ति अनेन इति यम: । 

अर्थात : चित्त को नियम पूर्वक चलाना यम कहलाता है। पातंजल योगसूत्र में यम के पांच प्रकार बताये गये है। 

अहिंसासत्यास्तेयब्रहमचर्यापरिग्रहा यमा: | (2 /30 योगसूत्र)

अर्थात : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम है। इन्हें सार्वभौम महाव्रत भी कहा गया है। ये महाव्रत तब बनते हैं जब इन्हें जाति, देश, काल तथा समय की सीमा में न बांधा जाये। इसमें सर्वप्रथम अहिंसा है।

(क) अहिंसा- अहिंसा का अर्थ है सदा और सर्वदा किसी भी प्राणी का अपकार न करना, कष्ट न देना।

याज्ञवल्क्य संहिता में कहा गया है। 

मनसा वाचा कर्मणा सर्वभूतेषू सर्वदा। 

अक्लेश जननं प्रोक्तमहिंसात्वेन योगिभि:।।

अर्थात : मन, वचन एवं कर्म द्वारा सभी जनों को क्लेश (कष्ट) न पहुँचाने को ही महर्षि जनों ने अहिंसा कहा है।

व्यासभाष्य में व्यास जी ने कहा है कि- 

अहिंसा सर्वदा सर्वभूतानामनभिदोह:।

अर्थात :सभी प्राणियों के प्रति हर प्रकार से विद्रोह भाव का परित्याग करना अहिंसा है।

पातंजल योगसूत्र में अहिंसा के फल के बारे में लिखा है

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सनिधौ वैरत्यागः ॥ 2/35

अर्थात :अहिंसा की पूर्णता और स्थिरता होने पर साधक के सम्पर्क में आने वाले सभी प्राणियों की हिंसा बुद्धि दूर हो जाती है। यह अहिंसा का मापदण्ड हैं।.

(ख) सत्य- सत्य का अर्थ है मन, वचन और कर्म में एकरूपता। अर्थात अर्थानुकूल वाणी और मन का व्यवहार होना, जैसा देखा और अनुमान करके बुद्धि से निर्णय किया अथवा सुना हो, वैसा ही वाणी से कथन कर देना और बुद्धि में धारण करना।

मनुस्मृति में कहा है सत्य, मित एवं हित भाषी हों।
सत्यं  ब्रुयात प्रियं ब्रुयात मा ब्रुयात सत्यमपियम्

अर्थात :सत्य बोले, परन्तु प्रिय शब्दों में बोले, अप्रिय सत्य न बोलें। परन्तु प्रिय लगने के लिए असत्य भाषण न करें, ऐसा पुरातन विधान है। जैसे नेत्रहीन को अन्धा कह देना सत्य है, चोर को चोर कह देना भी सत्य है किन्तु यह अप्रिय सत्य है। 

'मुण्डकोपनिषद कहता है - 

सत्यमेवजयते नानृतं। 

अर्थात :सत्य की जीत होती है, असत्य की नहीं। 

आयुर्वेद चरकसूत्र में कहा गया है- “ऋतं ब्रुयात' सत्य बोलना चाहिए।

पातंजल योगसूत्र- में सत्य के फल के बारे में कहा है

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलान्जयत्म्॥ 2/36
अर्थात :सत्य की प्रतिष्ठा होने पर वाणी और विचारों में क्रिया फल दान की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी बोलता है, वह फलित होने लगता है अर्थात वह वाक् सिद्ध हो जाता है।

(ग) अस्तेय- अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना ।

अस्तेयं नाम मनोवाक कायकर्मभिः परद्व्येषु नि:स्पृहता।  शांडिल्योपनिषद 1-1
अर्थात शरीर, मन और वाणी से दूसरों के द्रव्य की इच्छा न करना अस्तेय कहलाता है।
यालवल्क्य संहिता में कहा गया है- मन, वचन और कर्म से दूसरे के द्रव्य की इच्छा न करना अस्तेय है। तत्वदर्शी ऋषियों ने ऐसा ही कहा है।
व्यास भाष्य में महर्षि व्यास लिखते है कि-
स्तेयमशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परत: स्वीकरणम् तत्प्रतिषेध: पुनरस्पृहारूपमस्तेयमिति।
अर्थात : अशास्त्रीय ढंग से अर्थात धर्म के विरुद्ध अन्यय पूर्वक किसी दूसरे व्यक्ति के द्रव्य इत्यादि को ग्रहण करना स्तेय है, पर वस्तु में राग का प्रतिषेध होना ही 'अस्तेय' है।

योगसूत्र में अस्तेय सिद्धि के विषय में कहा है- 

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोप्रस्थानम्। 2/37
अर्थात अस्तेय के प्रतिष्ठित होने पर सर्व रत्नों की प्राप्ति हो जाती है। 

(घ) ब्रहमचर्य- मन को ब्रहम या ईश्वर परायण बनाये रखना ही ब्रहमचर्य है। 'वीर्य धारणं ब्रहम्चर्यमू' शरीरस्थ वीर्य शक्ति की अविचल रुप में रक्षा करना या धारण करना ब्रहमचर्य है।

व्यास  भाष्य- महर्षि व्यास ने लिखा है-   

ब्रहमचर्य गुष्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयम: ।
अर्थात : गुप्त इन्द्रिय (उपस्थेन्द्रिय) के संयम का नाम 'ब्रहमचर्य' है।

'शाडिल्योपनिषद में इसकी और सूक्ष्म व्याख्या करते हुए कहते है- 

ब्रहमचर्य नाम सर्वावस्थासु मनोवाक काय कर्मभि: सर्वत्तमंथुन त्याग:।

अर्थात : सभी अवस्था में सर्वत शरीर, मन और वाणी द्वारा मैथुन का त्याग ब्रहमचर्य कहलाता है। 

पातंजल योगसूत्र- योगसूत्र में ब्रहमचर्य सिद्ध कर लेने वाले साधकों के संबंध में कहा गया है-

ब्रहमचर्यप्रतिष्टायां वीर्यलाभ:। 2/38 

अर्थात : ब्रहमचर्य की प्रतिष्ठा होने पर साधक को वीर्य लाभ होता है। वीर्य लाभ होने से साधना के अनुकूल गुण समूह पैदा होते है। जिससे योगाभ्यासी को आत्मज्ञान प्राप्त होता है।

(ड) अपरिग्रह-  संचय वृत्ति का त्याग 'अपरिग्रह' है।

व्यास भाष्य में कहा गया है- 

विषयानामर्जन रक्षण क्षय, संग, हिंसा दोष दर्शनादस्वीकरणम् अपरिग्रह।
अर्थात विषयों के अर्जन में रक्षण उनका क्षय, उनके संग और उनमें हिंसादि दोष के विषयों को स्वीकार न करना ही अपरिग्रह है।
इन्द्रियाणां पसंगेन दोषमृच्छत्य संशयम्। 

सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धि नियच्छति।। मनुस्मृति 2/13

अर्थात : इन्द्रियों के विषयों में आशक्त होने से व्यक्ति नि:संदेह दोषी बनता है परन्तु इन्द्रियों को वश में रखने से विषयों के भोग से पूर्ण विरक्त हो जाता है। ऐसे आचरण से अपरिग्रह की सिद्धि होती है।
पूर्ण अपरिग्रह को प्राप्त साधक में काल -ज्ञान संबंधी सिद्धि आ जाती है, पतंजलि योगसूत्र का इस संबंध में कथन है । अपरिग्रहस्थैर्य जन्मकथन्तासम्बोध: ।  2/39

अर्थात : अपरिग्रह के स्थिर होने से जन्म-वृतान्त का ज्ञान प्राप्त होता है। इसका अर्थ हुआ कि पूर्वजन्म में हम क्या थे, कैसे थे। उस जन्म की परिस्थितियाँ ऐसी क्यों हुई एवं हमारा भावी जन्म कब, कहाँ, कैसा होगा। इस ज्ञान का उदय होना अपरिग्रह साधना द्वारा ही सम्भव होता है।
 

2. नियम-  नियम का तात्पर्य आन्तरिक अनुशासन से है। यम व्यक्ति के जीवन को सामाजिक एवं वाह्य क्रियाओं के सामंजस्य पूर्ण बनाते है और निगम उसके आन्तरिक जीवन को अनुशासित करते हैं।

शौचसन्तोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानिणि नियमा:। (योगसूत्र  2/32)

अर्थात : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान ये 5 नियम है।

(क) शौच- शौच का अर्थ है शुद्धि, सफाई, पवित्रता। न खाने लायक चीज को न खाना, निन्दितों के साथ संग न करना और अपने धर्म में रहना शौच है। शौच मुख्यत: दो है 1. बाह्य शौच और 2. आभ्यान्तर शौच। 

1. बाह्य शौच- जल व मिट्टी आदि से शरीर की शुद्धि, स्वार्थ त्याग, सत्याचरण से मानव व्यवहार की शुद्धि,  तप से पंचभूतों की शुद्धि, ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि ये सब बाह्य शुद्धि (बाह्य शौच) कहलाती है। 

2. आभ्यान्तर (आन्तरिक) शौच- अंहकार, राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम, क्रोध आदि मलो को दूर करना आन्तरिक पवित्रता कहलाती है।

योगसूत्र में शौच के फल के विषय में कहा है कि-

शौचात्स्वाडग्जुगुप्सा परैरसंसर्ग:। (योगसूत्र 2/ 40)

अर्थात शौच की स्थिरता होने पर निजी अंग समूह के प्रति घृणा और परदेह संसर्ग की अनिच्छा होती है।

सत्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ।। (योगसूत्र 2/ 41)

अर्थात इसके सिवा अन्तःकरण की शुद्धि, मन में प्रसन्नता, चित्त की एकाग्रता, इन्द्रियों का वश में होना और आत्मसाक्षात्कार की योग्यता- ये पांच भी होते है।

 (ख) संतोष-  संतोष नाम सन्तुष्टि का है। अन्त:करण में सन्तुष्टि व भाव उदय हो जाना ही संतोष है। अर्थात अत्यधिक पाने की इच्छा का अभाव ही संतोष है।
मनुस्मृति कहती हैं सन्तोष ही सुख का मूल है। इसके विपरित असंतोष या तृष्णा ही दु:ख का मूल है।

योगसूत्र में संतोष का फल बताते हुए कहा गया हैं
संतोषादनुत्तमसुखलाभ:॥ (योगसूत्र 2/42)

अर्थात :चित्त में संतोष भाव दृढ़ प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी को निश्चय सुख यानी आनन्द प्राप्त होता है।

(ग) तप-  अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक या मानसिक अधिक से अधिक कष्ट प्राप्त हो, उसे सहर्ष सहन करने का नाम ही 'तप' है।
तपो द्वन्दसहनम् - सब प्रकार के द्वन्दों को सहन करना तप है। तप के बिना साधना, सिद्धि नहीं होती है, अतः योग साधना के काल में सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, आलस तथा जड़तादि द्वन्दों को सहन करते हुए अपनी साधना में लगा रहना 'तप' कहा जाता है। योगसूत्र में तप का फल बताते हुए कहा है-
कार्येन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयान्त्तपस:। 2/43
अर्थात तप के प्रभाव से जब अशुद्धि का नाश हो जाता है तब शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है। तप के द्वारा क्लेशों तथा पापों का क्षय नाश हो जाने पर शरीर में तो अणिमा महिमादि सिद्धि आ जाती है, और इन्द्रियों में सूक्ष्म व्यवहित अर्थात दूर दर्शन, दूर श्रवण, दिव्य गंध, दिव्य रसादि सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति भी आ जाती है। अत: योगी के लिए तप साधना नितांत आवश्यक है।

(घ) स्याध्याय- स्वाध्याय का तात्पर्य है आचार्य विद्वान तथा गुरूजनों से वेद, उपनिषद, दर्शन आदि मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन करना। यह एक अर्थ है। स्वाध्याय का दूसरा अर्थ है स्वयं का अध्ययन करना यह भी स्याध्याय ही है।
योग भाष्य में महर्षि व्यास जी ने लिखा है- 

'स्वाध्याय: प्रणव श्रीरुद्रपुरूषसूक्तादि: मन्त्राणां जप: मोक्ष्य शास्त्राध्ययभ्च'।।  2 /1
अर्थात :प्रणव अर्थात ओंकार मन्त्र का विधि पूर्वक जप करना रुूद्र सूक्त और पुरुषसूक्त आदि वैदिक मन्त्रों का अनुष्ठान पूर्व जप करना तथा दर्शनोपनिषद एवं पुराण आदि आध्यात्मिक मोक्ष शास्त्रों का गुरूमुख से श्रवण करना अर्थात अध्ययन करना स्वाध्याय है। पातंजल योग सूत्र में स्वाध्याय के फलों का वर्णन करते हुए कहा गया है-   

स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग: । (योगसूत्र  2 /44) 

अर्थात :स्वाध्याय से इष्टदेवता का साक्षात्कार हो जाता है।

(ड) ईश्वर प्रणिधान-
ईश्वर की उपासना या भक्ति विशेष को ईश्वर प्रविधान कहते है। स्वमं को परमेश्वर के निमित अर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान है। योग सूत्र  में ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि, शीघ्र होने की बात कही है

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।।  (योगसूत्र  2 /45)
अर्थात ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है। ईश्वर प्रणिधान से ईश्वर की अनुकम्पा होती है। उसके अनुभव से योग के समस्त अनिष्ट दूर हो जाते है तथा योगी शीघ्र ही योगसिद्धि को प्राप्त कर लेता है।

3. आसन- आसन शब्द संस्कृत भाषा के 'अस' धातु से बना है जिसके दो अर्थ है। पहला है  बैठने का स्थान, दूसरा अर्थ शारीरिक अवस्था ।
शरीर मन और आत्मा जब एक संग और स्थिर हो जाता है, उससे जो सुख की अनुभूति होती है वह स्थिति आसन कहलाती है।

तेजबिन्दुपनिषद में आसन के विषय में कहा है
सुखेनैव भवेत् यस्मिन्नजस्रं ब्रहमचिन्तनम्।
अर्थात जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरन्तर परमब्रहम का चिन्तन किया जा सके उसे ही आसन समझना चाहिए।
योगसूत्र के अनुसार-   

स्थिरसुखमासनम्  (2/46 यो०सू0)
अर्थात स्थिर और सुख पूर्वक बैठना आसन कहलाता है। आसन का लाभ बताते हुए योग सूत्र कहा गया है- 

ततो द्वन्द्वानभिघातः । योगसूत्र 2-48

आसन के सिद्ध हो जाने पर द्वन्द्वों (सर्दी-गर्मी) का आघात नही लगता।

4. प्राणायाम- प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है। प्राण + आयाम । प्राण का अर्थ होता है, जीवनी शक्ति आयाम के दो अर्थ है। पहला नियन्त्रण करना या रोकना तथा दूसरा लम्बा या विस्तार करना।
प्राणवायु का निरोध करना 'प्राणायाम' कहलाता है। योग सूत्र में प्राणायाम को इस प्रकार प्रतिपादित किया है

'तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:॥ 2/49
अर्थात : उसकी (आसनों की) स्थिरता होने पर श्वास और प्रश्वास की स्वाभाविक गति का रूक जाना प्राणायाम है। योग सूत्र में प्राणायाम के लाभो का वर्णन करते हुए कहा गया है- 

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ।  योगसूत्र 2-52

उस (प्राणायाम) के अभ्यास से प्रकाश (ज्ञान) का आवरण क्षीण हो जाता है-

धारणासु च योग्यता मनसः । योगसूत्र 2-53

तथा धारणाओं में मन की योग्यता भी हो जाती है।

5. प्रत्याहार- अष्टांग योग में प्राणायाम के पश्चात् प्रत्याहार आता है। प्रत्याहार का सामान्य अर्थ होता है, पीछे हटना, उल्टा होना, विषयों से विमुख होना। इसमें इन्द्रिया अपने बहिर्मुख विषयों से अलग होकर अन्तर्मुखी हो जाती है, इसलिए इसे प्रत्याहार कहा गया है। इन्द्रियों के संयम को भी प्रत्याहार कहते है।
त्रिशिखिब्राहनणोपनिषद के अनुसार-  

चित्तस्थ्यान्तर्मुखी भाव: प्रत्याहारस्तु सत्तम्।  

अर्थात : चित्त का अन्तर्मुखी भाव होना ही प्रत्याहार है। 

महर्षि पतंजलि ने प्रत्याहार का लक्षण निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया है। 

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्त स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार:। 

अर्थात : अपने विषयों के साथ इन्द्रियों का संबंध न होने पर, चित्त के स्वरूप का अनुकरण की भांति करना अर्थात चित्त के स्वरूप में तदाकार सा हो जाना प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार का फल बतलाते हुए महर्षि पतंजलि लिखते है- 

तत: परमा वश्यतेन्द्रियाणाम। 2/55 यो0 सू0 

अर्थात : उस प्रत्याहार से इन्द्रियों की परम वश्यता हो जाती है अर्थात प्रत्याहार से इन्द्रियां एकदम वशीभूत हो जाती है।

अन्तरंग योग-

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग के तीन अन्तरंग साधन बताये है- धारणा, ध्यान और समाधि  

6. धारणा-  धारणा महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग के अन्तरंग साधन में प्रथम है तथा यह अष्टांग योग का छठा अंग है। मन (चित्त) को एक विशेष स्थान पर स्थिर करने का नाम 'धारणा' है। यह वस्तुत मन की स्थिरता का घोतक है।

हमारे सामान्य दैनिक जीवन में विभन्न प्रकार के विचार आते जाते रहते है। दीर्घकाल तक स्थिर रूप से वे नहीं टिक पाते और मन की सामान्य एकाग्रता केवल अल्प समय के लिए ही अपनी पूर्णता में रहती है। इसके विपरीत धारणा में सम्पूर्णतः चित्त की एकाग्रता की पूर्णता रहती है। महर्षि पतंजलि द्वारा धारणा को निम्न प्रकार बताया गया है- 

“देशबन्धश्चितस्य धारणा'”। 3/1 यो० सू0
अर्थात : (बाहर या शरीर के भीतर कही भी) किसी एक स्थान विशेष (देश) में चित्त को बांधाना धारणा कहलाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब किसी देश विशेष में चित्त की वृत्ति स्थिर हो जाती है और तदाकार रूप होकर उसका अनुष्ठान होने लगता है तो यह 'धारणा' कहलाता है।

7. ध्यान- अष्टांग योग का सातवां अंग ध्यान है। धारणा की उच्च अवस्था ही ध्यान है ध्यान शब्द की उत्पत्ति ध्येचित्तायाम् धातु से होती है जिसका अर्थ है, चिन्तन करना। किन्तु यहाँ पर ध्यान का अर्थ चिन्तन करना नहीं अपितु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात चित्त को एक ही लक्ष्य पर स्थिर करना है।
ईश्वर या परमात्मा में अपना मनोनियोग इस प्रकार करना कि केवल उसमें ही साधक निगमन हो और किसी अन्य विषय की ओर उसकी वृत्ति आकर्षित न हो 'ध्यान' कहलाता है। योग शास्त्र  के अनुसार जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाये उसी में चित्त का एकाग्र हो जाना अर्थात् केवल ध्येय मात्र में एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके बीच में किसी दूसरी वृति का न आना “ध्यान” कहलाता है। 

महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र में ध्यान को इस प्रकार प्रतिपादित किया है- 

“तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।” । ३/2 यो0 सू०
अर्थात् किसी देश विशेष में ध्येय विषयक ज्ञान या वृत्ति का लगातार एक जैसा बना रहना ध्यान है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिसमें धारणा की गई उसमें चित्त जिस वृत्ति मात्र से ध्येय में लगता है, यह वृत्ति जब इस प्रकार समान प्रवाह से लगातार उदित होता रहे कि कोई दूसरी वृत्ति बीच में न आये उसे “ध्यान“ कहते है। 

8. समाधि- अष्टांग योग में समाधि का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। साधना की यह चरम अवस्था है, जिसमें स्वयं योगी का बाह्य जगत् के साथ संबंध टूट जाता है। यह योग की एक ऐसी दशा है, जिसमें योगी चरमोत्कर्ष की प्राप्ति कर मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। और यही योग साधना का लक्ष्य है। अतः मोक्ष  प्राप्ति से पूर्व योगी को समाधि की अवस्था से गुजरना पड़ता है। योग शास्त्र में समाधि को मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन बताया गया है, योग भाष्य में सम्भवत: इसलिए योग को समाधि कहा गया है।  "योग: समाधि:”  

पातंजल योगसूत्र में चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है। योगश्वित वृत्ति निरोध:। समाधि अवस्था में भी योगी की समस्त प्रकार की चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है।
महर्षि पतंजलि ने समाधि का स्वरूप निम्न प्रकार से बताया है-

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:। 3 / 3 यो0सू0 

अर्थात् जब (ध्यान में) केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीती होती है और चित्त का निज स्वरूप शून्य सा हो जाता है, तब वह (ध्यान ही) समाधि हो जाती है।


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हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...