भक्तियोग
भारतीय चिन्तन में ज्ञान तथा कर्म के साथ भक्ति को कैवल्य प्राप्ति का साधन माना है। भक्तियोग प्रेम की उच्च पराकाष्ठा है। ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम ही भक्ति है जब व्यक्ति संसार के भौतिक पदार्थों से मोह त्यागकर अनन्य भाव से ईश्वर की उपासना करता है तो वह भक्ति कहलाती है।
भक्ति शब्द संस्कृत व्याकरण के ‘भज् सेवायाम्’ धातु से "क्तिन् प्रत्यय लगाकर भक्ति शब्द बनता है जिसका अर्थ सेवा, पूजा, उपासना और संगतिकरण करना आदि होता है। भक्ति भाव से ओतप्रोत साधक पूर्ण रूप से ब्रहा (ईश्वर) के भाव में भावित होकर सर्वतोभावेन तदरूपता की अनुभूति को अनुभव करता है। इसलिए कहा गया है-
'भक्ति नाम प्रेम विशेषः
अर्थात ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम विशेष का नाम ही भक्ति है। भक्तियोग का मार्ग. भावप्रधान साधकों के लिए अधिक उपयुक्त माना गया है। इस मार्ग में साधक का चित्त आसानी से एकाग्र हो जाता है। यह मार्ग अति सरल होने के कारण जनसाधारण में काफी लोकप्रिय व प्रचलित है।
भक्तियोग की परिभाषा देते हुए नारद भक्तिसूत्र में कहा गया है
'सा तस्मिन परम प्रेमरूपा' 1 / 2
अर्थात प्रभु के प्रति परम प्रेम को भक्ति कहते हैं।
शाण्डिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति को परिभाषित करते हुए कहा गया है-
'सा भक्ति: परानुरक्तिरीश्वरे' 1 / 2
अर्थात ईश्वर में परम अनुरक्ति भक्ति है। इस प्रकार प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम मे डूब जाना भक्ति कहलाता है। जैसा की स्पष्ट हो चुका है कि अपने आराध्य से उत्कट प्रेम का नाम भक्ति है। यह तो निश्चित है कि साधक ईश्वर की भक्ति किसी प्रयोजन से करता है श्रीमद्भगवद् गीता में भक्ति के प्रयोजन को भक्त के भेद के परिपेक्ष्य में कहा गया है।
चतुर्विधा भजन्ते मां जता: सुकृतिनोडर्जुन ।
आर्तोजिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। गीता (7/16)
अर्थात हे भरतवंशी अर्जुन चार प्रकार के पुण्यशाली मनुष्य मेरा भजन (उपासना) करते है वे है आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी ।
2. जिज्ञासु भक्त: जिज्ञासु जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि जिज्ञासा रखने वाले अर्थात किसी वस्तु को जानने की इच्छा रखने वाले। अब प्रश्त उठता है कि वह वस्तु क्या है वह है आत्मा को जानने की इच्छा, ब्रहम को जानने की इच्छा ऐसे भक्त जिज्ञासु भक्त कहलाते है!
3. अर्थार्थी भक्तः समस्त संसार के व्यक्ति इस श्रेणी में आते है ऐसे भक्त किसी सांसारिक वस्तु जैसे मकान, जमीन, धन, स्त्री, वैभव, मान सम्मान परीक्षाओं मे सफलता विवाह के लिए अपने आराध्य को भजते है। ऐसे भक्त अर्थार्थी भक्त कहलाते है।
4. ज्ञानी भक्तः ज्ञानी भक्त ऐसे भक्त है जो आत्म कल्याण, ब्रहम की प्राप्ति के लिए अपने आराध्य को भजते है।
उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों मे ज्ञानी भक्त को श्रेष्ठ कहा गया है।
नवधा भक्ति-
नवधा भक्ति, भक्तियोग का बडा महत्वपूर्ण पक्ष है। इसमे नौ प्रकार से भगवान की भक्ति की जाती है। भगवत पुराण में कहा है
श्रवणं, कीर्तन, विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चन वन्दनं दास्य सख्यमात्मनिवेदनम् ।।
अर्थात श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, साख्य और आत्मनिवेदन ये भक्ति के नौ भेद है।
1. श्रवण भक्ति- परमपिता परमेश्वर, अपने आराध्य ईष्ट के दिव्य गुणों व लीला आदि के विषय में सुनना श्रवण भक्ति कहलाती है।
2. कीर्तन भक्ति- कीर्तन से आप भली भांति परीचित होगे। भगवान के दिव्य गुणों, लीला का गायन इत्यादि के माध्यम से कथन कीर्तन भक्ति कहलाती है।
3. स्मरण भक्ति- सर्वत्र भगवान का स्मरण करना। अपने आराध्य की लीला, गुणों का निरन्तर अनन्य भाव से स्मरण करना स्मरण भक्ति कहलाती है। .
4. पादसेवन भक्ति- भगवान के चरणों की सेवा करना पाद सेवन भक्ति कहलाती है। यह भक्ति एक तो भगवान के चरणों का चिन्तन करते हुए तथा दूसरी भगवान की प्रतिमा में चरणों को धोकर श्रद्धाभाव से साधना करते हुए की जाती है।
5. अर्चन भक्ति- अर्चन भक्ति का अर्थ है पूजन करना यह पूजन मानसिक रूप से या स्थूल रूप से अपने आराध्य की हो सकती है।
6. वन्दन भक्ति- भाव भरे मन से भगवान की वन्दना करना वन्दन भक्ति का उदाहरण है। वैदिक ऋचाओं से भक्त के द्वारा भगवान की स्तुति करना वन्दन भक्ति का उदाहरण है।
7. दास्य भक्ति- अपने आप को भगवाऩ का दास समझना, अपने आप को भगवान का सेवक समझऩा दास्य भक्ति का उदाहरण है। जैसे हनुमान जी श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति रखते थे।
8. साख्य भक्ति- सांख्य का अर्थ है मित्र अपने आराध्य को अपना मित्र समझना साख्यभक्ति है जैसे सुदामा श्रीकृष्ण, अर्जुन श्रीकृष्ण यह साख्य भक्ति के उदाहरण है।
9. आत्मनिवेदन भक्ति- आत्मनिवेदन भक्ति अपने को भगवान के स्वरुप में अर्पण कर देना कहलाती है।
रागात्मिका भक्ति-
जब नवधा भक्ति अपनी चरम अवस्था में होती है तब रागत्मिका भक्ति की शुरुवात होती है। जब नवधा भक्ति अपनी चरम अवस्था को पार कर जाती है और अन्त:करण में एक अलौकिक भगवत प्रेम भाव उत्पन्न होने लगे तो रागत्मिका भक्ति एक आनुभूतिक अवस्था है। ऐसी अवस्था में साधक अपने आराध्य की झलक का अनुभव कर सकता है। उसे अपने आराध्य दिखाई देने लगते है वह भी सजीव। उनकी झलक वह कभी आसमान मे, कभी पेडों मे, कभी जलाशय में तो कभी अपने मन्दिर मे उसको उनकी प्रतिमा सजीव दिखाई देने लगती है।
परा भक्ति-
पराभक्ति रागत्मिका भक्ति की चरम अवस्था का नाम है। यह साधक की उत्कृष्ट तथा अन्तिम पराकाष्ठा है। पराभक्ति में द्वैत नहीं रहता है इस अवस्था में उपासक और आराध्य एक हो जाते है और साधक को एक मात्र ब्रहम का साक्षात्कार होता है।
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