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योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि


भारतीय चिन्तन मे अनवरत आत्मज्ञान तथा सत्य की खोज पर वैचारिक मंथन परम्परागत होता रहा है। योग विद्या के माध्यम से वास्तव मे आत्म तत्व का ज्ञान तथा यथार्थ से साधक अपने चरम लक्ष्य (समाधि) की प्राप्ति करता है। हमारे ऋषि मुनियों ने योग विद्या की अनेक शाखाओं को मानव के कल्याण के लिए प्रतिपादित किया है। वेदो, उपनिषदों, पुराणों, दर्शन तथा टीका कालों मे योग का प्रचलन कही न कहीँ अवश्य था।

 योग का उद्गम

 योग का उद्गम कब और कहां से हुआ यह कहना उचित होगा कि योग की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है,  प्राचीन साहित्य मे मिले उल्लेखों से ज्ञात होता है कि योग परम्परां को किसने प्रारम्भ किया है। जैसे गीता के चतुर्थ अध्याय के आरम्भ मे श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुऐ कहते हैं

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानझ्याव्ययम्।

विवस्वात्मनवे प्राह मनुरिक्याकवेड्डब्रवीता । 4/1

एवं परज्यराप्राप्तमिअं रांजर्षयो विंदु: ।

 स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप । 4/2

 स एवायं मया तेऴद्य योग: प्रोक्त: पुरातनः।। 4/3


 अर्थात हे अर्जुन, मैने ही इस योग का उपदेश सृष्टि के आरम्भ मे सूर्य को दिया था. इसके पश्चात सूर्यं ने अपने पुत्र मनु को यह योग सिखाया, तथा मनु द्वारा यह योगबिद्या इक्ष्याकु को दी गयी और फिर राजर्षियों की लम्बी परम्परा चलती गयी और अन्त मे यह योग लुप्त हो गया था जिसको आज मैने पुन: तेरे सामने प्रस्तुत किया है।
योग परम्परा के सम्बन्ध मे इससे यह ज्ञात होता है कि भगवान ने स्वयं सृष्टि के प्रारम्भ मे इस परम्परा को प्रारम्भ किया था।  ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है-

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत ।  

स दाधार पृथिवीं द्यामुत्तेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम । 

अर्थात हिरण्यगर्भ से ही सबसे पहले सृष्टि का निर्माण हुआ। उसी ने पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी को धारण किया। क्योकि हिरण्यगर्भ को सभी विद्याओं एवं कलाओं का आदि प्रवर्तक माना जाता है। याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है

 हिरण्यणआँ योटास्य वक्ता माल्य: पुरातन: । 

अर्थात 'हिरण्यगर्भ ही योग के आदि प्रवक्ता है, अन्य कोई नहीं।

 इसी प्रकार महाभारत मे  कहा गया है-

 सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षिः स उच्यते।

हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्य: पुरातन: ।  महाभारत 12/349/65 

अर्थात सांख्य के वक्ता महर्षि कपिल और योग के वक्ता हिरण्यगर्भ हैं। इन विषयों मे इनसे प्राचीन व पुरातन वक्ता अन्य कोई नहीं है। 

हठयोग प्रदीपिका मे योग परम्परा की प्राचीनता के संबन्ध मे कहा गया

 श्रीआदिनाथाय नमोस्तु तस्मै येनोपद्रिष्टा ( ह.प्र. 1 /1)

आदिनाथ अर्थात भगवान शिव ही योग के उपद्रष्टा है। 

इस अध्यन से आप यह सरलता से समझ गये होंगे कि हिरण्यगर्भ ही योग के आदि वक्ता है। हिरण्यगर्भ को ही योग का आदि प्रवर्तक माना जाता है। अत: अब निम्न प्रश्न आपके समक्ष अवश्य उत्पन्न होगे  किं-

योग के आदि वक्ता हिरण्यगर्भ कोन है। हिरण्यगर्भ का अवतरण कब हुआ ।

जब यह प्रश्न उत्पन होता है कि
हिरण्यगर्भ कोन है तो इस संबध में सात हिरण्यगर्भो का नाम सामने  आता है तथा इऩ सात हिरण्यगर्भो मे से कुछ हिरण्यगर्भ के नाम तत्वो के रुप मे तथा कुछ ऐतिहासिक रूप मे सामने आते है।
पहले
हिरण्यगर्भ- सूर्य (सविता) देवता को पहला हिरण्यगर्भ कहा जाता है। सूर्य तत्व रुप मे भी है। अगर हम सूर्यं नामक भौतिक तत्व को लें तो किसी काल में यह स्पष्ट नहीं हो सकता कि सविता देवता अर्थात सूर्य योग के आदि प्रवर्तक है।

दूसरे
हिरण्यगर्भ - दूसरे हिरण्यगर्भ के रूप महत तत्व अर्थात बुद्धि को माना जाता है।
हिरण्यगर्भो भगवानेष बुद्धिरिति स्मृत 

उपरोक्त श्लोक मे हिरण्यगर्भ बुद्धि तत्व को कहा गया है अगर बुद्धि तत्व है तो इस भौतिक तत्व का योग शास्त्र के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है। 

तीसरे हिरण्यगर्भ- तीसरे हिरण्यगर्भ के बारे में हमें अहिर्बदृन्युसंहिता मे वर्णन मिलता है। कहा गया है कि… ये एक अति प्राचीन सिद्ध योगी थे जिन्होने दो योग संहिता की रचना की थी।
1. कर्मयोग़ संहिता
2. निरोध संहिता
"निरोध संहिता' का नाम पढ़कर यह स्पष्ट हो रहा है, कि महर्षि पतंजलि ने "चित्त वृति निरोधः" के लिए कुछ उयाय बताये पर योगसूत्र में महर्षि पतंजलि ने इस संहिता का कहीँ उल्लेख नहीं किया है।
अहिर्बदृन्युसंहिता से पहले श्रुति, स्मृति, ब्राह्मण, आरण्यक व पुराणों का काल रहा है और इन ग्रन्थो में कहीँ न कहीँ योग का वर्णन मिलता है तब क्या अहिर्बदृन्युसंहिता द्वारा इनके बाद कथित हिरण्यगर्भ को योग का आदि वक्ता मान लेना उचित होगा।

चौथे हिरण्यगर्भ- चौथे हिरण्यगर्भ का नाम ‘योणशिंखोपनिषद' मे स्पष्ट रूप से कहा गया है, कि ये हिरण्यगर्भ परम शिव जी का भक्त तथा परम शिष्य था । यदि यह सत्य  है तो वह हिरण्यगर्भ निश्चित्त शैव रहे होगे यह बात योगशिखोपनिषद मे स्पष्ट हो जाती है। अगर इन्होने कोई योग शास्त्र बनाया है तो उसका कोई प्रमाण मिलता। अत: इन्हें भी योग का आदि वक्ता नहीँ मान सकते। 

पांचवें हिरण्यगर्भ- पाँचवे हिरण्यगर्भ उत्तम नामक मन्वन्तर के ऊर्जा ऋषि के पिता के नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु वैदिक काल में इनका कोई सूक्त या मन्त्र नहीं है और योग को स्पष्ट करले वाली कोई कृति भी अभी तक प्रकाश में नहीं आई है।

छठे हिरण्यगर्भ- छठे
हिरण्यगर्भ एक ऋषि कहे गये है जिनका अविर्भाव वैदिक काल मे हुआ था तथा ये हिरण्यगर्भ प्रजापति के पुत्र बताये जाते है और इनके संबध मे कहा गया है कि प्रजापति के आठ पुत्र व एक कन्या दक्षिणा नाम की हुई थी। इन्होने कुल 127 मन्त्र दिये जिनका वर्णन ऋग्वेद के 1०वें मण्डल मे मिलता है। इन सूक्तो का अध्ययन करे तो ज्ञात होता हैं कि मंत्रों मे सूक्ष्म रूप से योग को स्पष्ट किया है। अत: योग जो व्यापक है इसके आदिववत्ता इन्हे नहीं माना जा सकता है।
 

सातवें हिरण्यगर्भ- सातवें हिरण्यगर्भ प्रजापति परम परमेश्वर ब्रहमा जी को माना है। वस्तुत: ब्रहमा जी चारों वेदो के ज्ञाता कहे गये है। अगर मनु मानव जाति का पिता है तो ब्रहमा जी मानव जाति के पितामह है। ब्रहमसंहिता नामक योग का एक ग्रन्थ है जिसकी रचना ब्रहमा जी ने की है। वेदों मे भी कईं मन्त्र योग को स्पष्ट करते है और ब्रहमा जी इनके ज्ञाता रहे है अत: इन्हे योग के आदिवत्ता कहा जा सकता है।

मुण्डकोपनिषद कहता है- (ब्रहमा देवानां प्रथमः)
देवताओं मे सर्वप्रथम ब्रह्माजी ही हुए है जो कि विश्व के कर्ता है। सृष्टि के आदि देव होने के कारण तथा चारों वेदों के ज्ञाता होने के कारण
हिरण्यगर्भ (ब्रहमाजी) योगाविद्या के आदिवक्ता कहे जा सकते है। 

योग परम्परागत रूप से चला आ रहा है परन्तु मानव द्वारा इस योगविद्या का उपयोग कब आरम्भ किया, यह प्रश्न अभी भी बना हुआ है। इसलिए अलग अलग कालों मे योग के स्वरूप का अध्ययन करना उचित होगा। 

 वैदिक काल-  वेदो को विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थो के रूप मे जाना जाता हैं। माना जाता है कि प्राचीन समय मे ऋषि मुनियों न अपने योगबल एवं तपोबल के द्वारा ही ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त किया और उन्हे ग्रन्थबद्ध कर वेदों के रूप मे प्रस्तुत किया।  एक मान्यता यह भी है कि सृष्टि के आदि मे अग्नि, आदित्य, वायु तथा अंगिरा नाम के चार ऋषियों को यह ज्ञान परमात्मा ने उनके अन्तःकरण में प्रकट किया। इसी कारण वेद को अपौरुषेय भी कहा जाता है। इससे योग का सृष्टि के आदि से ही प्रकटीकरण सिद्ध होता है। मुख्य रूप से वेदों की संख्या चार है. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ।

उपनिषद् काल-  भारतीय आध्यात्मिक शास्त्रो मे उपनिषदों का अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। उपनिषद भारतीय दर्शन शास्त्र का दर्पण व आध्यात्मिक विज्ञान के प्राणस्वरूप कहलाते हैं। उपनिषद का अर्थ रहस्य व गुप्त उपदेश कहा गया है। हमारे ऋषि मुनियों ने उपनिषदो मे वर्णित योगविद्या व ब्रह्मविद्या को एक ही प्रकार का रहस्य माना है। उपनिषदो मे योग विषयक ज्ञान पर्याप्त मात्रा मे देखने को मिलता है। हालांकि योगदर्शन की भांति उपनिषदो मे योग का ज्ञान कर्मिक एवं सुसम्बद्ध रूप मे नहीं मिलता, फिर भी योगदर्शन की भांति उपनिषदो मे योग का लक्ष्य आत्मदर्शन व समाधि ही बताया गया है।  संख्या की दृष्टि से उपनिषद अनेक हैं। लेकिन मुख्य उपनिषद ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, छान्दोग्य, श्वेताश्वतरोपनिषद माने गये हैं। कुछ उपनिषद ऐसे भी हैं जिनमे केवल योगविषयक ही चर्चा की गयी है. वे इस प्रकार से हैं अमृतबिन्दु, तेजबिन्दु, त्रिशिखिब्राह्मण, ध्यानबिन्दु, ऩादबिन्दु, शाण्डिल्य, योगकुण्डली, योणचूडामणि, योगतत्व, योगशिखोपनिषद् आदि।

दर्शनकाल- भारतीय दर्शनो मे न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त तथा जैन तथा बौद्ध आदि दार्शनिक सम्प्रदायो मे योग का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र को सूत्रबद्ध शैली में इसी काल मे लिखा। इसी योगसूत्र ग्रन्थ को योग का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है।  योगदर्शन मे महर्षि पतंजलि ने योग की वैज्ञानिकता व दर्शन को 195 सूत्रों में पिरोकर रखा है। महर्षि पतंजलि ने योग को चित्तवृति निरोध के रूप मे परिभाषित किया तथा चित्त की पाँच वृतियाँ क्रमश: (प्रमाण,विपर्य, विकल्प निद्रा तथा स्मृति) बताई है ओंर इन वृत्तियों के निरोध के लिए अभ्यास व वैराभ्य नाम की दो साधनायें बताई है।

महर्षि पतंजलि ने उच्च कोटि के साधको के लिए अभ्यास व वैराग्य मध्यम के लिए क्रियायोग तथा अधम कोटि के साधको के लिए अष्टांगयोग की साधना बतायी है। योग दर्शन के साथ ही अन्य दर्शनो में भी योग की चर्चा मिलती है। न्याय, वैशेषिक सांख्य, मीमांसा, तथा वेदान्त इन सभी दर्शनो मे योग को किसी न किसी रूप मे स्वीकार किया गया है। सांख्य तो योग का सैद्धान्तिक पक्ष कहलाता है। 

इसके बाद चौथी शताब्दी ईसवीं से टीका ग्रन्थो का काल आरम्भ हुआ।

टीकाकाल- चौथी शताब्दी के बाद दसवीं शताब्दी तक व्यासभाष्य तथा टीकाआँ का काल जारी रहा। ऐसा माना जाता है कि योगसूत्र पर व्यासभाष्य की रचना चौथी शताब्दी मे हुई। इसी काल मे विज्ञानभिक्षु, वाचस्पति मिश्र, भोजदेव, नागोजी भट्ट आदि की टीकाएं लिखी गयी। इन टीकाआँ मे योग के सिद्धांतों एवं मूलभूत मान्यताओ की विस्तारपूर्वक चर्चा की गयी है। यह समय भारत के इतिहास का उत्कृष्ट समय माना जाता है। इस काल मे अनेक ग्रन्थ लिखे गये तथा विविध कला एवं विद्याओं का समुचित विकास हुआ। 

भक्ति एवं हठयोग का उत्कर्ष काल- यह काल लगभग 1० वी शताब्दी से 19 वीं शताब्दी तक माना जाता है। इस काल मे भक्ति का विकास हुआ। इस काल के संत कबीर, तुलसी, आदि ने भक्ति के सगुण व निर्गुण मार्ग का प्रचार प्रसार किया इस काल मे नाथ समप्रदाय का भी प्रसार हुआ। हठयोग प्रदीपिका, घेरण्ड संहिता आदि की रचना इसी काल मे हुई। शारीरिक क्रियाओं द्वारा मन को वश मे करना, इस काल मे काफी प्रचलित था। तंत्रग्रन्थो के माध्यम से भी योग का प्रचार प्रसार साधकों मे प्रचलित हुआ। इस काल मे भारत पर इस्लाम एवं ईसाई धर्म के आक्रमणों के कारण अनेक आश्रमों, संस्थाओँ, ग्रन्थो तथा परम्पराओं का पतन हुआ। समाज मे अनेक अंधविश्वास, कुरीतियां तथा गलत धारणाएं फैल गयी थी।

आधुनिक काल-  महर्षि दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के माध्यम से सर्वप्रथम योग की भ्रान्त धारणाओं का खण्डन करके स्पष्ट दिशानिर्देश दिये। इनके पश्चात स्वामी लक्ष्मणानन्द ने ‘ध्यानयोग प्रकाश‘ मे उनकी शिक्षा को प्रस्तुत किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस व उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने योग की परम्परा को आगे बढाया। स्वामी शिंवानन्द ने दिव्य जीवन संघ तथा स्वामी कुवलयानन्द जी ने कैवल्यधाम नामक संस्थाओं का निर्माण कर अनेको शिष्यों को योग प्रशिक्षण प्रदान किया जिन्होने  देश विदेशो मे योग विद्या को वैज्ञानिक कसौटियों पर अनुसंधान करके योग को एक नयी दिशा प्रदान की। इसी प्रकार योगी श्यामाचरण लाहिडी तथा उनके शिष्य परमहंस योगानंद द्वारा क्रियायोग विधि के माध्यम से योग का प्रचार प्रसार किया गया। परमहंस योगानन्द न योगदा सत्संग सोसाइटी के माध्यम से योग का प्रचार विदेशों तक किया। 

स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने बिहार योग विद्यालय की स्थापना की तथा स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी द्वारा केन्द्रीय विद्यालयों तथा दिल्ली सरकार के विद्यालयो मे योग शिक्षकों की नियुक्ति करवाकर सरकारी स्तर पर योग को अध्ययन अध्यापन हेतु मन्यता दी गई। स्वामी रामदेव न योग प्राणायाम का चिकित्सीय पक्ष प्रस्तुत कर, पुन: योग को एक नयी पहचान दी है। श्रीरामशर्मा आचार्य जी न शान्तिकुंज की स्थापना कर योग के ज्ञान व विज्ञान को ब्रहमवर्चस्व शोथ संस्थान मे प्रतिपादित किया है।

 योग के प्रचार प्रसार मे अनवरत चल रहे संस्थान वर्तमान मे निम्नवत् है।  गढ़वाल विश्वविद्यालय, कुमांऊ विश्वविद्यालय, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, पतंजलि योगपीठ, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, कैवल्यधाम, बिहार योग भारती, विवेकानन्द योग संस्थान, योग इंस्टीट्यूट साल्ताकुंज मुम्बई, मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान दिल्ली, अरविन्द आश्रम पाण्डिचेरी, योगदा सत्संग सोसाइटी रांची,  गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय, देवसंस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार आदि।

योग का अर्थ

योग की परिभाषा

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कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम मेरे

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के पश्चात जालन्धरबन्ध ख

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म