योग का उद्देश्य
सभी भारतीय दर्शनो के मुख्य प्रतिपाद्य विषय के रूप में हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोपाय इस चतुर्व्यूहवाद का ही वर्णन किया गया है। योगदर्शन का भी यही अभिमत है। अत: अन्य दर्शनो की भांति योगदर्शन का भी मुख्य उदेश्य दुःख निवृति ही है। पतंजलि अपने योगसूत्र के आरम्भ मे ही योग की पूर्णता की अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं 'तदा द्रष्टुःस्वरूपेऴवस्थानम् अर्थात योग सिद्ध हो जाने पर द्रष्टा (आत्मा) अपने शुद्ध स्वरूप मे स्थित हो जाता है। यह स्थिति दुःखो की सम्पूर्ण निवृत्ति के उपरान्त ही प्राप्त होती है। दुःखो का कारण चित्त की विभिन्न वृतियां ही हैं, जिनके कारण चित्त अस्वाभाविक अवस्था मे बना रहता है तथा यथार्थ स्वरूप का ज्ञान कराने में असमर्थ रहता है।
चित्तवृतियों के मूल में अविद्यादि क्लेश उपस्थित्त होते हैं, जिसके फलस्वरूप चित्त मे विभिन्न वृत्तियां बनी रहती हैं। इनके निवारण के उयायों के रूप में पतंजलि अभ्यास वैराग्य, ईश्वर प्रणिधान, क्रियायोग तथा अष्टांग योग का मुख्य रूप से वर्णत करते हैं। क्रियायोग का फल बताते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं
'समाधि भावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च' । (योगसूत्र 2 - 2)
अर्थात क्लेशों को कमजोर करना ही क्रियायोग का मुख्य उदेश्य है, जिससे समाधि की स्थिति प्राप्त हो सके। समाधि की उच्चतम स्थिति असम्प्रजात समाधि प्राप्त हो जाने पर ही चित्त से क्लेशों की पूर्णरूप से निवृति होती है। क्योकि अगामी जन्म के कारणभूत चित्त में पूर्वजन्मों के संस्कार दग्धबीज होकर नष्ट हो जाते हैं। चित्त अपने मूलकारण प्रकृति मे लीन हो जाता है तथा पुरुष के लिए कैवल्य का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। तभी आत्मा अपने स्वरूप मे प्रतिष्ठित होता है। उसी स्थिति को कैवल्य के नाम से जाना जाता है। आधुनिक समय मे योग का उद्देश्य स्वयं स्वस्थ रहना, दूसरों को स्वास्थ्यलाभ कराना, धन अर्जित करना आदि हो गए हैं किन्तु ये सभी गोण हैं। योग का मुख्य उद्देश्य स्वस्थ होना हैं। स्वस्थ शब्द के अर्थ पर विचार किया जाए तो स्वस्थ वहीँ "है जो स्व मे स्थित है। आयुर्वेद शास्त्र का मानना भी यहीँ है। महर्षि पतंजलि भी जहाँ स्वरूपावस्थिति की बात करते हैं। तो उनका तात्पर्य भी स्व मे स्थित होने से ही है। योग की भाषा मे इसी को कैवल्य कहा 'जाता है। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो योग का मुख्य उद्देश्य कैवल्य प्राप्त करना ही है।
वास्तव मे योग को वर्तमान मे स्वास्थ्य लाभ के परिपेक्ष्य मे लिया जाता है पर ऐसा नहीं है कि रोगी व्यक्ति को ही योगाभ्यास करना चाहिए योग तो स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करता हैं और बिमार व्यक्ति के रोगो को दूर करता है । योग के उद्देश्य निम्न प्रकार हो सकते हैं।
नैतिक एवं चारित्रिक विकाश, शारीरिक स्वास्थ्य लाभ , मानसिक स्वास्थ्य लाभ, भारतीय संस्कृति का रक्षण, सामाजिक स्वास्थ्य लाभ , स्वरोजगार के लिए अपनाना , आध्यात्मिक स्वास्थ्य लाभ , स्वास्थ्य की रक्षा, कैवल्य की प्राप्ति आदि ।
योग का महत्व
प्राचीन काल मे योग विद्या संन्यासियो या मोक्षमार्ग के साधकों के लिए ही समझी जाती थी तथा योगाभ्यास के लिए साधक को घर को त्यागकर वन में जाकर एकांत मे वास करना होता था। इसी कारण योगसाधना को बहुत ही दुर्लभ माना जाता था। जिससे लोगो ने यह धारणा बन गयी थी कि यह योग सामाजिक व्यक्तियों के लिए नहीं है। जिसके फलस्वरूप यह योगविद्या धीरे धीरे लुप्त होती गयी। परन्तु पिछले कुछ वर्षो से समाज मे बढ़ते तनाव, चिन्ता आदि रोगो से ग्रस्त लोगो को इस गोपनीय योग से अनेको लाभ प्राप्त हुए और योग विद्या एकबार पुन: समाज मे लोकप्रिय हो गयी। आज भारत ने ही नहीं बल्कि पूरे विश्वभर मे योगविद्या पर अनेक शोध कार्य किये जा रहे हैं और इससे लाभ प्राप्त हो रहे हैं। आज के आधुनिक एवं विकास के युग में योग अनेक क्षेत्रों से विशष महत्व रखता हैं जिसका उल्लेख निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट किया जा रहा है ।
स्वास्थ्य के क्षेत्र मे-
स्वास्थ्य क्षेत्र मे वर्तगान समय से भारत ही नहीं अपितु विदेशो मे भी योग का स्वास्थ्य के क्षेत्र मे उपयोग किया जा रहा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र मे योगाभ्यास पर हुए अनेक शोधों से आये सकारात्मक परिणामो से इस योग विद्या को पुन: एक नयी पहचान मिल चुकी है आज विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस बात को मान चुका है, कि वर्तमान मे तेजी से फैल रहे मनौदैहिक रोगो मे योगाभ्यास विशेष रूप से कार्य करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि योग एक सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन शैली है जिसे अपना कर अनेक प्रकार के प्राणघातक रोगो से बचा जा सकता है।
रोगोपचार के क्षेत्र मे-
आज के इस प्रतिस्पर्धा व विलासिता के युग मे अनेक रोगो का जन्म हुआ है जिन पर योगाभ्यास से विशष लाभ देखने को मिला है। संभवत: रोगो पर योग के इस सकारात्मक प्रभाव के कारण ही योग को पुन: प्रचार प्रसार मिला। रोगो की चिकित्सा मे योग के इस योगदान मे विशेष बात यह है कि जहॉ एक और रोगो की एलोपैथी चिकित्सा से कई प्रकार के दुष्प्रभाव देखने को मिलते हैं, वहीँ योग चिकित्सा से रोगो मे बिना किसी टुष्प्रभाव के लाभ प्राप्त होता है। आज देश ही नहीं बल्कि विदेशों मे भी अनको स्वास्थ्य से सम्बन्धित संस्थाएं योग चिकित्सा पर तरह तरह के शोध कार्यं कर रहीं हैं।
खेलकूद के क्षेत्र मे योग का महत्व-
योगाभ्यास का खेल कूद के क्षेत्र में भी अपना एक विशेष महत्व है। विभिन्न प्रकार के खेलों मे खिलाडी अपनी कुशलता, क्षमता व योग्यता आदि बढाने के लिये योगाभ्यास की सहायता लेते हैं। योगाभ्यास से जहॉ खिलाडी के तनाव के स्तर मे कमी आती है. वहीँ दूसरी और इससे खिलाडियों की एकाग्रता व बुद्धि तथा शारीरिक क्षमता भी बढ़ती है। क्रिकेट के खिलाडी बल्लेबाजी मे एकाग्रता लाने, शरीर मे लचीलापन बढाने तथा शरीर की क्षमता बढाने के लिए रोजाना योगाभ्यास को समय देते हैं। यहॉ तक कि अब तो खिलाडियों के लिए सरकारी व्यय पर खेलकूद मे योग के प्रभावों पर भी अनको शोध कार्य हो चुके है जो कि खेल कूद के क्षेत्र से योना के सइत्त्व को सिद्ध करते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र मे योग का महत्व-
शिक्षा के क्षेत्र मे बच्चों पर बढते तनाव को योगाभ्यास से कम किया जा रहा है। योगाभ्यास से बच्चों को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी मजबूत बनाया जा रहा है। स्कूल व महाविद्यालयों मे शारीरिक शिक्षा विषय मे योग पढाया जा रहा है। वहीं ध्यान के अभ्यास द्वारा बच्चों मे बढ़ते मानसिक तनाव को कम किया जा रहा है। साथ ही साथ योगाभ्यास ध्यान से छात्र मे एकाग्रता व स्मृति शक्ति पर भी विशेष सकारात्मक प्रभाव देखे जा रहे हैं। विश्वभर के विद्वानो ने इस बात को माना है, कि योग के अभ्यास से शारीरिक व मानसिक ही नहीं बल्कि ऩैतिक विकास होता है। इसी कारण आज सरकारी व 'गैरसरकारी स्तर पर स्कूलों मे योग विषय को अनिवार्य कर दिया गया है।
पारिवारिक महत्व-
व्यक्ति का परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई होती हुँ तथा पारिवारिक संस्था व्यक्ति के विकास की नीव होती है। योगाभ्यास से आये अनेको सकारात्मक परिणामो से यह भी ज्ञात हुआ है, कि यह विद्या व्यक्ति में पारिवारिक मूल्यों एवं मान्यताओ को भी जागृत करती है। योग के अभ्यास व इसके दर्शन से व्यक्ति मे प्रेम, अपनत्व, आत्मीयता एवं सदाचार जैसे गुणों का विकास होता है और निसंदेह ये णुण एक स्वस्थ परिवार की आधारशिला होते हैं।
आर्थिक दृष्टि से महत्व
प्रत्यक्ष रूप से देखने पर योग का आर्थिक दृष्टि से महत्व गौण नजर आता है लेकिन सूक्ष्म रूप से देखने पर ज्ञात होता है कि मानव के जीवन के आर्थिक स्तर और योग विद्या का सीधा संंबन्ध है। शास्त्रों में वर्णित ”पहला सुख निरोगी काया” के आधार पर योग विशेषज्ञों न पहला धन निरोगी शरीर को माना है। एक स्वस्थ व्यक्ति जहॉ अपने आय के साधनो का विकास कर सकता है, वहीँ अधिक परिश्रम से व्यक्ति अपनी प्रतिव्यक्ति आय को भी बढा सकता है। जबकि दूसरी तरफ शरीर मे किसी प्रकार का रोग न होने के कारण व्यक्ति का औषधियों व उपचार पर होने वाला व्यय भी नहीं होता है।
इस प्रकार से योग आर्थिक दृष्टि से अपना एक विशेष महत्व रखता है, वहीँ दूसरो और योग क्षेत्र मे काम करने वाले योग प्रशिक्षक भी योग विद्या से धन लाभ अर्जित कर रहे हैं। आज देश ही नहीं विदेशों मे भी अनेको योगकेन्द्र चल रहे हैं जिनमे शुल्क लेकर योग सिखाया जा रहा है। साथ ही साथ प्रत्येक वर्ष विदेशो से सैकडों सैलानी भारत आकर योग प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं जिससे आर्थिक जगत को विशेष लाभ पहुँच रहा है।
सामाजिक महत्व-
इस बात मे किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि एक स्वस्थ नागरिक से स्वस्थ परिवार बनता है तथा एक स्वस्थ व संस्कारित परिवार से एक आदर्श समाज की स्थापना होती है। इसीलिए समाजोत्थान मे योगाभ्यास का सीधा प्रभाव देखा जा सकता है। सामाजिक गतिविधियॉ व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक दोनो पक्षो को प्रभावित करती हैं। सामान्यत: आज प्रतिस्पर्धा के इस युग मे व्यक्ति विशेष पर सामाजिक गतिविधियों का नकारात्मक प्रभाव पइ रहा है। व्यक्ति धन कमाने व विलासिता के साधनो को संजोने के लिए हिंसक, आतंकी, अविश्वास व भ्रष्टाचार की प्रवृति को बिना किसी हिचकिचाहट के अपना रहा है। कर्मयोग, हठयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग आदि साधन समाज को नयी रचनात्मक व शान्तिदायक दिशा प्रदान कर रहे हैं। कर्मयोग का स्रिद्धान्त तो पूर्ण सामाजिकता का ही आधार है "सभी सुखी हो, सभी निरोगी हों" इसी उद्देश्य के साथ योग समाज को एक नयी दिशा प्रदान कर रहा है।
आध्यात्मिक क्षेत्र मे महत्व-
प्राचीन काल से ही योग विद्या का प्रयोग आध्यात्मिक विकास के लिए किया जाता रहा है। योग का एकमात्र उद्देश्य आत्मा- परमात्मा के मिलन द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करना है। इसी अर्थ को जानकर कई साधक योगसाधऩा द्वारा मोक्ष, मुक्ति के मार्ग को प्राप्त करते हैँ। योग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि को साधक चरणबद्ध तरीके से पार करता हुआ कैवल्य को प्राप्त कर जाता है।
Comments
Post a Comment