Introduction of Patanjal Yoga Sutra and classification in four Padas / Chapters
योगसूत्र का सामान्य परिचय
महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योगसूत्र ग्रन्थ योग का प्रामाणिक आधारग्रन्थ कहलाता है। इससे पूर्व योग के तत्वो का एक जगह पर संकलन देखने को नहीं मिलता। योग की जो परम्परा सृष्टि के आदि काल से चली आ रही थी, उसमे अनेक साधकों ने विभिन्न साधनाओं को सम्मिलित किया। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में योग की साधना का वास्तविक स्वरूप ,योग का वास्तविक उद्देश्य प्रकट किया है।
योगसूत्र ग्रन्थ में चार अध्याय हैं। समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद । समाधिपाद में 51, साधनपाद में 55, विभूतिपाद में 55 तथा कैवल्यपाद मे 34 सूत्र हैं। इस प्रकार कुल 195 सूत्रों का सृजन करके योगविद्या को व्यवस्थित रुप में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। विविध पादो की विषयवस्तु का आपके अवलोकनार्थ वर्णन इस प्रकार है।
1. समाधिपाद
इस पाद में 'अथ योगानुशासनम्’ सूत्र से ग्रन्थ का प्रारम्भ किया गया है। अथ शब्द मंगलवाची तथा आरम्भवाची है। जिसके द्वारा लक्षण, भेद, उपाय तथा फल सहित शिक्षा दी जाए वह अनुशासन कहलाता है। अत: इस सूत्र के माध्यम से परमेश्वर से सूत्रकार प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि 'मैं योग का लक्षण, भेद, उपाय का फलसहित वर्णन कर रहा हूँ, यह मेरा कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो।
योग का अर्थ चित्तवृत्ति निरोध के द्वारा दृष्टा की निजस्वरुप मे प्रतिष्ठित होना बताया गया है। यह एक लम्बी प्रक्रिया है जिसके अधिकारी अलग-अलग स्थिति के साधक हैं।
समाधिपाद में महर्षि पतंजलि द्वारा योग के फल कैवल्य या स्वरूपास्थिति योग के लक्ष्य को प्रकट कर दिया गया है। प्रमाण, विपर्य, विकल्प, निंद्रा व स्मृति पांच प्रकार की चित्तवृतियों का वर्णन करके चित्तवृति के निरोधो के उपाय के रूप में अभ्यास वैराग्य को बताया गया है। यही अभ्यास और वैराग्य की साधना राजयोग की साधना कहलाती है।
प्रमाण के तीन भेद प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम का वर्णन किया गया है। अभ्यास को दृढ़ करने के उपाय, वैराग्य की स्थिति को स्पष्ट किया गया है। सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेदो वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत तथा अस्मित्तानुगत का विस्तार से वर्णन किया गया है। परवैराग्य की अवस्था तथा इनके द्वारा प्राप्त होने वाली असम्प्रज्ञात समाधि को लक्ष्य कहा गया है।
भवप्रत्यय समाधि, विदेह तथा प्रकृतिलयों को प्राप्त होती है, अन्य के लिए उपाय प्रत्यय है जिसके साधन श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रजा कहे गए हैं। तीव्र संवेग से शीघ्र समाधि लाभ होने तथा समाधि प्राप्ति के उपाय के रूप में ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया गया है। ईश्वर का स्वरूप बताया गया है जिसमे अन्य पुरुषों से ईश्वर की भिन्नता कही गई है, बताया यया है-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः। यो.सू. 1 / 24
ईश्वर प्रणिधान के विशेष फल प्रत्य्चेतना का साक्षात्कार तथा अन्तरायों का अभाव बताया है। ईश्वर प्रणिधान से समाधि सिद्धि तथा ईश्वर का साक्षात्कार दोनो सम्भव है। इसी को भक्तियोग के रूप में कहा जा सकता है। साधना के विघ्न (अन्तरायों) व्याधि, स्त्याऩ, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अल्पब्धभूमिकत्व तथा अनवस्थितत्व के अतिरिक्त इन अन्तरायों के सहभुव: दुःख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वास और प्रश्वास का वर्णन करके इनके निराकरण का दूसरा उपाय 'एकतत्वाभ्यास' बताया गया है।
चित्त को समाहित करने के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक है। चित्त की निर्मलता प्राप्ति हेतु मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा की भावनाओं को धारण करना चाहिए ।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम् । यो.सू. 1 / 3 3
अर्थात चित्त को सदैव प्रसन्न रखने के लिए उपाय रूप में सुखी व्यक्तियों को देखकर उनसे मित्रता का भाव, दुखी के प्रति करुणा का भाव, पुण्यशाली के प्रति प्रसत्नता का भाव तथा पापी को देखकर उसकी उपेक्षा करने के भाव से चित्त मे समरसता बनी रहती है तथा उद्वेग नही होता। प्राणायाम, विषयवती प्रवृत्ति, विशोका या ज्योतिष्मती प्रवृति, वीतराग चित्त, स्वप्न तथा निद्रा, यथाभिमत ध्यान आदि के माध्यम से चित्त की एकाग्रता होने का वर्णन है। ऐसे एकाग्र चित्त मे समापत्ति हो जाती है जो चार प्रकार की है सवितर्का, निर्वितर्का, सविचार व निर्विचार। इनसे बुद्धि मे प्रसन्नता तथा निर्मलता रूपी अध्यात्मप्रसाद ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राप्त हो जाती है जिससे विवकेख्याति का उदय होने पर निर्बीज समाधि की भूमि तैयार हो जाती है। विवेकख्याति का भी निरोध हो जाने पर असम्ज्ञात या निर्बीज समाधि सिद्ध हो जाती है।
2. साधन पाद
साधनपाद मध्यम अधिकारियों के लिए साधना की विधि से प्रारम्भ होता है। तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान रूप क्रियायोग को समाधि की प्राप्ति तथा क्लेशों को कमजोर करने के लिए उपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पांच क्लेशों अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश के स्वरूप का वर्णन, परिणाम. ताप व संस्कार दुःखो का वर्णन, दुःखरूप जगत् का व्याख्यान करके हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोयाय रूपी चतुर्व्यूह का वर्णन किया गया है। दृश्य, (प्रकृति) का स्वरुप तथा प्रयोजन निम्नलिखित सूत्र द्वारा प्रकट किया गया है
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूत्तेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्। योगसूत्र 2 / 18
अर्थात प्रकाश, क्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव है, भूत ओंर इन्द्रिय जिसका स्वरूप हैं, भोग तथा अपवर्ग जिसका प्रयोजन हैँ, वह दृश्य है। सत्व, रजस व तमस गुण तथा इनसे जो भी बना है, वह दृश्य है। पॉच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, एक मन तथा पाँच महाभूत इन 16 तत्वो को विशेष कहा गया है। पाँच तन्नमात्रा तथा एक अहंकार को अविशेष, महत् को लिंगमात्र तथा मूलप्रकृति को अलिंग कहा है। द्रष्टा देखने की शक्तिमात्र है। वह निर्विकार होते हुए भी चित्त की वृत्तियों के अनुसार देखता है। अविद्या के कारण द्रष्टा व दृश्य का संयोग होता है, जो दुःखो का कारण है। विवकेख्याति द्वारा द्रष्टा व दृश्य का यथार्थ ज्ञान होने से कैवल्य की उपलब्धि होती है। योग के अंग यम नियम आदि के अनुष्ठान से अशुद्धि का नाश होने के कारण ज्ञान का प्रकाश विवकेख्याति पर्यन्त हो जाता है। यहां नवीन साधको या अधम साधकों के लिए अष्टांयोग का वर्णन किया गया है जिसके प्रथम 5 अंगो को बहिरंग योग कहा है तथा साधनपाद में अष्टांगयोग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार पांच अंगो का वर्णन किया गया है तथा धारणा, ध्यान व समाधि को अंतरंग योग कहा गया है जिनका वर्णन विभूतिपाद में किया गया है।
3. विभूतिपाद
विभूतिपाद का प्रारम्भ धारणा, ध्यान और समाधि के लक्षणों द्वारा होता है। इन तीनो के एक ही स्थान पर होने को संयम कहा गया है। संयम के सिद्ध होने पर समाधि प्रज्ञा का प्रकाश होता है। चित्त के निरोधपरिणाम, समाधिपरिणाम व एकाग्रता परिणाम की चर्चा की गईं है। भूत व इन्द्रियो के धर्म, लक्षण व अवस्था परिणाम पर प्रकाश डाला गया है। इसके पश्चात् संयमजन्य विभूतियों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार कही गई हैं
1. अतीतानागतज्ञाऩम् 2. सर्वभूतरुतज्ञानम् 3. पूर्वजातिज्ञानम् 4. परचित्तज्ञानम् 5. अन्तर्धानम् 6. अपरान्तज्ञान 7. मैत्रयादिबलप्राप्ति 8. हस्थ्यादिबलप्राप्ति 9. सूक्ष्यव्यवहितविप्रकृष्टज्ञान 10.. भुवनजानम् 11. ताराव्यूहज्ञानम् 12. तारागतिजानम् 13. कायाव्यूहज्ञानम् 14. क्षुत्पिपासानिवृति 15. स्थिरता 16. सिद्धदर्शऩ 17. त्रैकालिक पदार्थज्ञानम् 18. चित्तसंवित् 19. पुरुषज्ञानम् 20. प्रतिभज्ञान 21. श्रावणज्ञान 22. वेदनाज्ञान 23. आदर्शज्ञान 24. आस्वादज्ञान 25. वार्ताज्ञान 26. परकायप्रवेश 27. जल, पंक तथा कण्टक के ऊपर स्वच्छन्द गमन 28. ऊर्ध्वलोकगमन 29. ज्वलन 30. दिव्य श्रोत्र 31. आकाशगमन, 32. प्रकाशावरणक्षय 33. भूतजय, 34. अणिमा, 35. लघिमा, 36. महिमा, 37. गरिमा. 38. प्राप्ति, 39. प्राकाम्य, 40. ईशित्व 41. वशित्व 42. कायसम्पत, 43. अभिघाताभाव 44. इन्द्रियजय, 45. मनोजवित्व 46. विकरणभाव 47. प्रधानजय, 48. सर्वाधिष्ठातृत्व 49. सर्धज्ञत्व ।
4. कैवल्यपाद
इस पाद के प्रथम सूत्र में बताया गया है कि संयमजन्य सिद्धियों के अतिरिक्त जन्म, औषधि, मन्त्र, तप और समाधि द्वारा भी सिद्धियॉ प्राप्त होती हैं। तप आदि के द्वारा जैसे जैसे तामसिक व राजसिक वृत्तियों का नाश तथा सत्व का प्रकाश होता है तो वैसे वैसे साधक में भक्ति संचरण होता जाता है। इस प्रकार वह पूर्व की अपेक्षा अधिक शक्ति सम्पन्न हो जाता है। समाधि या ध्यान से उत्पन्न होने वाला चित्त वासना रहित होने के कारण श्रेष्ठ कहा गया है। कर्म के चार प्रकार बताएं हैं शुक्ल (पुण्य) कृष्ण (पाप) शुक्ल कृष्ण (पुण्य पाप) तथा अशुक्लाकृष्ण (पुण्य पाप रहित) । प्रथम तीन प्रकार के कर्म सामान्य मनुष्य के होते हैं तथा चतुर्थ प्रकार का कर्म अशुक्लाकृष्ण योगी का होता हैं। इन्हे ही अनासक्त कर्म कहा गया है। प्रथम तीन प्रकार के कर्मो के कारण ही वासनाएं चित्त में एकत्र होती हैं तथा उन्ही के फल भोगने हेतु जन्म लेना पडता है। ये वासनाएं हेतु, फल, आश्रय व आलम्बन पर आधारित होती हैं। इनका हेतु अविद्या आदि क्लेश तथा सकाम तीनो प्रकार के कर्म, इनका फल जाति, आयु तथा भोग है। वासनाओं का आश्रय चित्त तथा आलम्बन इन्द्रियों के विषय कहे गए हैं। इससे आगे पुरुष व चित्त में भेद बताकर पुरुष के स्वरुप को समाधि द्वारा जानने का वर्णन किया गया है। विवेकज्ञान होने पर साधक का चित कैवल्य की और गति करने वाला होता है, किन्तु कभी- कभी पूर्वजन्मो के संस्कार होने के कारण ऐसे चित्त में भी व्युत्थान की वृत्तियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। उनकी निवृत्ति क्लेशों की तरह कही गईं है ‘हानमेषां क्लेशवदुक्तम्’ । विवेकख्याति या प्रसंख्यान ज्ञान से भी विरक्त होने पर योगी में निरन्तर विवेकख्याति का प्रवाह होने को धर्ममेघ समाधि कहा गया है। यह विवेकख्याति की परिपक्व अवस्था है। इसकी पराकाष्ठा ज्ञानप्रसाद नामक परवैराग्य को कहा गया है जिसका फल असमप्रज्ञात समाधि है। जिसमे संस्कार दग्धबीज होकर क्लेशकर्म की निवृति हो जाती है। इस समय ज्ञान का प्रकाश इतना अधिक होता है’ कि जानने योग्य कुछ शेष नहीं बचता। गुणो के परिणामक्रम की समाप्ति हो जाती है। गुणों की प्रवृति पुरूष के भोग व मोक्ष के लिए होती है। जब तक ये दोनो लक्ष्य पूर्ण नहीँ होते तब तक शरीर इन्द्रियों आदि के क्रम चलाते रहते हैं। मोक्ष की स्थिति प्राप्त होने से परिणामक्रम टूट जाता है तथा पुरुषार्थ शून्य गुणों का अपने कारण (मूलप्रकृति) मे प्रतिप्रसव हो जाता है, यही कैवल्य है तथा पुरुष का निज-स्वरूप में प्रतिष्ठा होना कहा जाता है।
'तदा द्रष्टुः स्वरुपेऴवस्थाम् ' (यो.सू. 1 / 3)
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