हठयोग प्रदीपिका ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम योगी हैँ। इन्होंने हठयोग के चार अंगो का मुख्य रूप से वर्णन किया है तथा इन्ही को चार अध्यायों मे बाँटा गया है। स्वामी स्वात्माराम योगी द्वारा बताए गए योग के चार अंग इस प्रकार है ।
1. आसन-
"हठस्थ प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यतै"
कहकर योगी स्वात्माराम जी ने प्रथम अंग के रुप में आसन का वर्णन किया है। इन आसनो का उद्देश्य स्थैर्य, आरोग्य तथा अंगलाघव बताया गया है
'कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् '। ह.प्र. 1/17
आसनो के अभ्यास से साधक के शरीर मे स्थिरता आ जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती हैं. लचीलापन आता है, आरोग्यता आ जाती है, शरीर हल्का हो जाता है 1 हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन किया गया है
हठयोगप्रदीपिका में वर्णित 15 आसनों के नाम
1. स्वस्तिकासन, 2. गोमुखासन, 3. वीरासन,
4. कूर्मासन, 5. कुक्कुटासन. 6. उत्तानकूर्मासन, 7. धनुरासन, 8. मत्स्येन्द्रासन, 9. पश्चिमोत्तानासन, 10. मयूरासन, 11. शवासन,
12. सिद्धासन, 13. पद्मासन, 14. सिंहासन, 15. भद्रासना ।
2. प्राणायाम-
हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि
चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्।
योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायु निरोधयेत् ।। ह.प्र. 2 /3
वायु के चलने पर चित्त भी चंचल बना रहता है तथा वायु के निश्चल होने पर चित्त भी निश्चल हो जाता है। योगी स्थिरता प्राप्त कर लेता है। इसलिए प्राणायाम का अभ्यास साधना के लिए बहुत ही उपयोगी है।
यावद् वायु: स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते।
मरणं तस्य निष्क्रान्तिस्ततो वायुं निरोधयेत् ।। ह.प्र. 2 /3
जब तक शरीर में वायु स्थित है. तभी तक जीवन है। जब श्वास निकल जाता है तो मृत्यु हो जाती है। अत: प्राणायाम का अभ्यास करके वायु को रोकने का प्रयास करना चाहिए।
प्राणायाम के लिए कहा गया है कि जेसे धातुओं के मल अग्नि द्वारा नष्ट कर दिये जाते है, वैसे ही प्राणायाम द्वारा इन्द्रियों के दोषों को नष्ट किया जा सकता है।
हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम के आठ भेद बताए गए हैँ।
सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतली तथा।
भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्ठकुम्भकाः।। ह.प्र. 2/44
अर्थात् सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भ्रस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्च्छा तथा प्लाविनी ये आठ कुम्भक हैं। सूर्यभेदन शरीर में उष्मा का संचार करता है जबकि सीत्कारी व शीतली शीतलता का संचार करने वाले हैं। भ्रस्त्रिका त्रिदोषहरण करने वाला है। उज्जायी तथा नाडीशोधन शरीरक्रिया को संतुलित करने वाले हैं। भ्रामरी एकागता व ध्यान के लिए उपयोगी है। मूर्च्छा तथा प्लाविनी का अभ्यास सामान्य स्थिति में नहीं करना चाहिए ।
3. मुद्रा एवं बन्ध-
हठयोग का मुख्य उद्देश्य कुण्डलिनी जागरण तथा उसके द्वारा राजयोग मे प्रविष्ट होना है। मुद्रा कुण्डलिनी जागरण के लिए उपयुक्त साधन हैं। हठयोग प्रदीपिका से दस मुद्राओं (बंधसहित) का वर्णन है।
महामुद्रा महाबन्धो महावेधश्च खेचरी ।
उड्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिधः ।।
करणी विपरीताख्या वज्रोली शक्तिचालनम्।
इदं हि मुद्रा दशकं जरामरणनाशनम् । ह.प्र. 3/6-7
अर्थात महामुद्रा, महाबन्ध, महावेध, खेचरी, उड्डीयान बन्ध, मूलबन्ध, जालंधर बन्ध, विपरीत करणी, वज्रोली. शक्तिचालिनी ये दस मुद्राएं साधक के जरा तथा मृत्यु का नाश करने वाली हैं। बन्धों का प्रयोग किए बिना प्राणायाम नहीं हो सकता तथा कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणायाम की अनिवार्यता है। अत: बन्धों का प्रयोग महत्वपूर्ण है।
4. नादानुसंधान-
नादानुसंधान का अर्थ है नाद का अनुसंधान करना। नाद दो प्रकार के होते हैं आहत और अनाहता आहत नाद जो लोकप्रचलित है जैसे तबला, सारंगी, हारमोनियम, ढोलक, मंजीरा, वीणा आदि, जो आघात देकर बजाए जाते हैं। ये संगीत के लिए उपयोगी हैं। अनाहत नाद वह है जो साधक को साधना में आपने अन्दर से ही सुनाई पडते हैं। इनके लिये पहले स्थूल पर ध्यान लगाने का प्रयास करना चाहिए तथा धीरे धीरे स्थूल को छोडकर सूक्ष्म पर ध्यान लगाएं। यही एकाग्रता समाधि की स्थिति प्रदान करने वाली है। मन का लय होने पर नादानुसंधान का कार्यं पूर्ण हो जाता है। प्रथम तो नाना प्रकार के नाद सुनाई पडते हैं। अभ्यास दृढ़ होने पर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर नाद सुनाई पडने लगते हैं। पहले सागर, बादल, भेरी, झरना आदि मध्य मे नफीरी आदि मृदुध्वनि तथा अन्त मे किंकिणी, बांसुरी, वीणा, भौरे की ध्वनि आदि अनेक प्रकार की सूक्ष्म ध्वनियाँ सुनाई पडती हैं। सूक्ष्म से स्थूल तथा स्थूल से सूक्ष्म पर जाने का अभ्यास करते करते यह सूक्ष्म से सूक्ष्म होता जाएगा तो ध्यान की स्थिति दृढ़ होगी। समाधि की स्थिति प्राप्त होने पर कुण्डलिनी जागरण की स्थिति स्वत: आ जाएगी तथा साधना मे सफलता प्राप्त हो जाएणी। नादानुसंधान की निम्न अवस्थाएँ इस प्रकार है।
1.आरम्भावस्था- इसमे ब्रह्मग्रन्थि का भेदन होता है।
2.घटावस्था- इसमे विष्णुग्रन्थि का भेदन होता है।
3.परिचयावस्था- इससे रुद्र ग्रन्थि का भेदन होता हैं।
4.निष्पत्ति अवस्था- इसमे सहस्रार का द्वार खुल जाता हैं।
इस प्रकार चारों अवस्थाओ से होता हुआ साधक लक्ष्य की प्राप्ति में समर्थ होता है।
नादानुसंधान के अन्तर्गत ही स्वामी स्वात्माराम जी ने कुण्डलिनी तथा समाधि का वर्णन भी किया हैं।
(क) कुण्डलिनी
कुटिलांगी कुण्डलिनी भुजंगी शक्तिरीश्वरी।
कुण्डल्यरून्धाती चैते शब्दाः पर्यायवाचा । ।ह.प्र. 3/10
कन्दोर्ध्वं कुण्डली शक्ति: सुप्तामोक्षाय योगिनाम्।
बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेति स योगवित् । ह.प्र. 3/103
उद्धाटयेत् कपाटं तु यथा कुंचिकया हठात्।
कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत् ।।
येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम्।
मुखेनाच्छाघं तदद्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी। । ह.प्र. 3 101-102
अर्थात कुटिलांगी, कुण्डलिनी. भुजंगी, शक्ति, ईश्वरी, कुण्डली, अरुंधती ये सभी शब्द पर्यायवाची हैं।
कन्दोर्ध्व (मूलाधार चक़्र के पास) कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई है जो अज्ञानियों के लिए बन्धन का कारण हैं तथा योगियों के लिए मोक्ष का कारण हैं। जो उसे जान लेता है, वही योगी कहलाता है।
जिस प्रकार चाबी के द्वारा आसानी से ताला खोल लिया जाता है, उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर मोक्ष द्वार को खोल देता है जिससे ब्रह्म स्थान को बिना किसी बाधा के पहुँचा जा सकता है क्योकि उसी द्वार को ढककर कुण्डलिनी सोई हुई है।
(ख) समाधि
सलिले सैन्धवं यद्वत् साम्य भजति योगतः।
तथात्ममनसोरैक्यं समाधिरभिधीयते।।
यदा संक्षीयते प्राणो मानसं च प्रलीयते।
तदा समरसत्वं च समाधिरभिधीयते।।
तत्समं च द्वयोरैक्यं जीवात्मपरमात्मनोः।
प्रनष्टः सर्व संकल्प: समाधि सोऴभिघीयते।। ह.प्र. 4 / 5-7
अर्थात जैसे नमक व जल दोनो मिलकर एक हो जाते है, एक रूप होकर द्वेत समास हो जाता है। उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। उसी प्रकार आत्मा व मन की एकता समाधि कही जाती है। प्राण क्षीण होकर मन लीन हो जाने पर समरसता की स्थिति समाधि है। जीवात्मा व परमात्मा की एकता समाधि कही जाती है।
इस प्रकार स्वामी स्वात्माराम जी ने जो ग्रन्थ के आरम्भ में घोषणा की है कि-
‘केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते’ ।
अर्थात केवल राजयोग की प्राप्ति के लिये हठयोग का उपदेश किया जाता है।
उसी के अनुसार समाधि तक के लक्ष्य को प्राप्त करऩे के उद्देश्य से हठप्रदीपिका ग्रन्थ की रचऩा की गई है।
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