Skip to main content

गुरु गोरक्षनाथ जी का जीवन परिचय

 महर्षि गोरक्षनाथ जी की जीवनी- महायोगी गोरक्षनाथ ऐसे दिव्य सर्वसिद्ध साधक हैं, जो आज भी अप्रत्यक्ष रूप से योगविद्या का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। माना जाता है कि सूक्ष्म सत्ता के रूप में वे हमारा मार्ग दर्शन करने के लिए  हमारे बीच विद्यमान हैं। 

महायोगी गोरक्षननाथ के जन्म के संबन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा अलौकिक वृतान्तों का वर्णन मिलता है। इनमें प्रायः सर्वमान्य धारणा है कि अवधूत योगी गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भिक्षा के लिए एक निर्धन ब्राह्मण सर्वापदयाल के घर जाते हैं। भीतर ब्राह्मणी सरस्वती देवी को दुःख से व्याकुल देखकर उसे एक सुन्दर बालक की माता बनने के लिए भस्म देकर उसे खाने के लिये कहते हैं अवधूत गुरु के जाने पर लोकव्यवहार में शंका से प्रेरित होकर ब्राह्मणी भस्म को गोबर के ढेर में दबा देती है।

लेकिन एक दिन अकस्मात् बारह वर्ष के पश्चात वही अवधूत वेषधारी मत्स्येन्द्रनाथ जी पुनः ब्राह्मणी के यहां आते हैं और वे उस ब्राह्मणी से मिलते हैं और उसको पूर्ववर्ती घटना का स्मरण कराते हैं। तब ब्राह्णी अवधूत वेषधारी को उसी स्थान पर ले जाती है, जहां उसने बारह वर्ष पूर्व वह भस्म फेंक दी थी। योगी की दिव्य साधना से अभिप्रेरित वह भस्म ”अलखनिरंजन“ के शब्द संघात मात्र से 12 वर्ष के सुन्दर गौर वर्ण बालक के रूप में परिणत हो जाती है। तदुपरान्त योगी मत्स्येन्द्रनाथ बालक का नामकरण गोबर से उत्पन्न होने के कारण गोरक्षनाथ कहते हैं। जन्म संदर्भ के फलस्वरूप इनके जन्म को अयोनिज कहते हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से योगी मत्स्येन्द्रनाथ, गुरू गोरक्षनाथ जी के पिता एवं गुरु माने जाते हैं। योगी गोरक्षनाथ जी भी स्वयं इस बात का स्पष्टीकरण कुछ इस प्रकार करते हैं- आदिनाथ नाती मच्छन्दरनाथ पूता। निज तत् निहारे गोरक्ष अवधूता।।  (गोरखबानी पद- 37)

जन्म स्थान की अवधारणा- गुरू गोरक्षनाथ जी के जन्म स्थान के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते हैं । डॉ. नागेन्द्र नाथ उपाध्याय ने गुरु गोरक्षनाथ के जन्म स्थान के विषय में लगभग 17 मतों का संकलन किया जिसमें योगी गोरक्षनाथ का जन्म स्थान बंगाल में चन्द्र गिरि ग्राम बताया है।

श्री रामलाल श्रीवास्तव, महायोगी गोरक्षनाथ जी व उनकी तपस्थली के सम्बन्ध में लिखते हैं कि गोरक्षनाथ अवध की परम्परा के अनुसार जायस नामक नगर के एक परम पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। जबकि दूसरी मान्यताएं नेपाल के सुदूर ग्राम का संदर्भ देती हैं, कुछ अन्य मत पंजाब का संकेत देते हैं। गोरखपुर के श्री गोरखनाथ मन्दिर में महायोगी अवधूत गोरक्षनाथ जी की भव्य प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि त्रेता युग में तपस्या के दौरान योगीराज ने यहाँ "अखण्ड धूना“ प्रज्ज्वलित किया था जो आज भी अनवरत विद्यमान है।

काल निर्णय-  महायोगी गोरक्षनाथ के जन्म व मृत्यु के सम्बन्ध में यूँ तो स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते। लेकिन कई विद्वानों ने इसे द्वापर, त्रेता एवं कलयुग तीनों में माना है। माना जाता है कि वे अमरयोगी हैं। अधिकांशतः उनका जीवनकाल 7वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक माना जाता है, जो प्रायः बहुमान्य है।

महायोगी गुरू गोरक्षनाथ जी की योगसाधना- जैसा कि पूर्ववर्ती विवरण से ज्ञात है कि स्वयं अवधूत गुरु सिद्धयोगी मत्स्येन्द्रनाथ जी उसके गुरु थे तथा महासिद्ध गोरक्षनाथ ने विभिन्न आगमादि कृत्यों एवं योग अभ्यास के बल पर असंख्य सिद्धियां प्राप्त की हुई थी। कल्पद्रुम तन्त्र में गोरक्षनाथ को सिद्ध योगी बताते हुए कहा गया है-

”अहमेवाऽस्मि गोरक्षे मद्रूपं तन्निबोधत। 

योगमार्ग प्रचारार्थ मायारूपमिदं धृतम।।“

नाथ सम्प्रदाय के आविर्भाव के विषय में लिखते हुए डा. कल्याणी मलिक बताती हैं कि सातवीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म का पतन एवं शैव धर्म का अभ्युदय हुआ है तथा कालान्तर में यही शैव सम्प्रदाय कारुणिक, कापालिक, पशुपत, माहेश्वर, लकुलीस में बँट गया। इन सब में शिव को आदि संस्थापक एवं योगियों के योगी कहा है तथा इन्हीं सिद्ध की परम्परा में नाथ सम्प्रदाय का विकास हुआ, जिसके संस्थापक योगी मत्स्येन्द्रताथ जी को माना जाता है तथा इनके बाद गुरू गोरक्षनाथ जी ने इस नाथ सम्प्रदाय को क्रान्ति का रूप देते हुए नई दिशा प्रदान की। जबकि दूसरी ओर डॉ. वेदप्रकाश जुनेजा ने नव नाथों को ही नाथ परम्परा का प्रतिनिधि माना है। जिनके नाम इस प्रकार हैं ॥. आदिनाथ, 2. मत्स्येन्द्रनाथ, 3. जालन्धरनाथ, 4. गोरक्षनाथ, 5. चरपटीनाथ, 6. कानिफा नाथ, 7. चौरंगीनाथ, 8. भर्तृहरि  9. गोपीचन्द।
नाथ साहित्य श्रृंखला में गोरक्षसंहिता, गोरक्ष पद्धति, गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह, सिद्ध सिद्धान्त पद्धति,  हठयोग प्रदीपिका, विवेक मार्तण्ड, गोरक्ष सहस्रनाम, अमनस्क योग, घेरण्डसंहिता, अमरौध शासनम्, योग तारावली, महार्थ मंजरी आदि आते हैं।
सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में गोरक्षनाथ जी भी अष्टांग योग की चर्चा करते हैं-

यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार। 

धारणा ध्यान समाधयोऽष्टावंगानि।।“ (सि0सि0प0 2/32)

'योगबीज' नाम ग्रन्थ में गोरक्षनाथ ने योगमार्ग को मुक्ति मार्ग बताते हुए कहा है कि सिद्ध प्रतिपादित योगमार्ग से ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।  

सर्वसिद्धिकरों मार्गों मायाजालनिड्डन्तम। 

बद्धा येन विमुच्यते नाथ मार्गमतः परम।। (योगबीज 6/7) 

इसी प्रकार महायोगी गोरक्षनाथ जी योग को परिभाषित करते हुए कहते हैं-

“योऽपान प्राणयौरऐक्यं स्थरजो रेतसोस्तथा। 

सूर्याचन्द्रमसोर्योगोद जीवात्मा परमात्मनोः।। 

एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते।। (योगबीज 89/90)
प्राण, अपान, रज एवं वीर्य, सूर्य एवं चन्द्र तथा जीवात्मा और परमात्मा (शिव- शक्ति) का मिलन ही योग है।
महाशक्ति कुण्डलिनी के विषय में गोरक्षनाथ जी वर्णन करते हैं कि यदपि कुण्डलिनी शक्ति अपने मूलरूप में चेतन है तथापि प्रबुद्ध न होने के कारण, सांसारिक द्वन्द्वों में भ्रमित होने के कारण बन्धनकारिणी है तथा जागृत अवस्था में शिव के स्वरूप का ज्ञान कराकर योगियों को मोक्ष प्रदान करती है।
कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम। 

बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स योगवित्।। (गोरक्षशतक - 56) 

योग विभूतियां- योग साधना के बल पर गोरक्षनाथ जी ने अनेक सिद्धियां प्राप्त की जिनका वर्णन “'गोरखनाथ चरित्र' में भी देंखने को मिलता है। एक कथानुसार राजा भर्तृहरि अपनी रानी पिंगला की मृत्यु हो जानें पर उसके शोक में श्मशान पर पिंगला- पिंगला की रट लगाये हुए थे। जब गोरक्षनाथ ने राजा भर्तृहरि को विलाप करते देखा तो उनके उद्धार हेतु उन्होंने एक मिट्टी का घड़ा तोड़कर वहीं पर घड़ा - घड़ा चिल्लाकर विलाप करने लगे। धीरे धीरे राजा भर्तृहरि की आवाज गोरक्षनाथ जी की आवाज से दबने लगी। इस पर राजा भर्तृहरि गोरक्षनाथ जी के पास जाकर बोले कि क्यों रो रहे हो? ऐसा घड़ा तो और बन जायेगा। गोरक्षनाथ ने उत्तर देते हुए कहा घड़ा तो वैसा नहीं बन सकता, लेकिन पिंगलाएं बन सकती हैं। अकस्मात भर्तहरि के सामने कई पिंगलाए उपस्थित हो गयी। गुरू गोरक्षनाथ जी के यौगिक प्रभाव को देखकर भर्तृहरि मोह से निवृत्त हुए और गोरक्षनाथ जी के शिष्य बन गये।  

ऐसे ही एक अन्य कथानक के अनुसार एक बार गोरक्षनाथ की भेंट कानिफानाथ से हुई | स्वागत के लिये कानिफानाथ ने आम के वृक्ष से कुछ फल अपनी योग शक्ति के द्वारा अपने पास एकत्रित कर लिये। जो स्वयं पेड़ से टूट कर आये थे। दोनों ने फल खाए। खाने के बाद कुछ फल शेष बच गए। इस बात पर गोरक्षनाथ ने कानिफानाथ से कहा इन्हें जहाँ से तोड़ा है, वहीं लगा दो। परिहास में निषेधात्मक उत्तर मिला। तब गोरक्षनाथ ने अपनी अभिमन्त्रित भभूत उन आमों पर डाली। जिससे वह पुनः वृक्षों पर जाकर लटक गये। कानिफानाथ को अपनी विद्या की अल्पता का ज्ञान हुआ।
 

गोरक्षनाथ ने समय समय पर विभिन्न स्थानों पर कठोर साधनाएँ की। जिसमें कुछ का प्रामाणिक विवरण जोधपुर नरेश मानसिंह द्वारा संग्रहीत “श्रीनाथ तीर्थावली' में यथाक्रम मिलता है। भारत में सौराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखण्ड, हिमालय के अनेक स्थानों पर, बंगाल, उड़ीसा, कर्नाटक, गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, आदि स्थानों पर अगाध तप किया। जिसका विवरण 'नवनाथ चरित्र एवं सिद्धान्त सार' नामक  ग्रन्थों में मिलता है।

इस प्रकार कई ऐसे प्रसंग गुरु गोरक्षनाथ जी के जीवन के संबन्ध में मिलते हैं जिनसे उनकी योगसाधना एवं सिद्धियों के विषय में पता चलता है। महायोगी गोरक्षनाथ जी ने इन्द्रियनिग्रह करके योग साधना के आदर्शों को सामने लाकर संयमपूर्ण जीवन की उच्चता, आडम्बर रहित जीवन की महत्ता तथा चरित्र की परम उच्च महिमा की ओर ध्यान आकृष्ट किया। वास्तव में महायोगी गोरक्षनाथ जी सिद्ध योगी थे जिन्हें जन्म देकर भारतमाता धन्य हुई। महायोगी गोरक्षनाथ ने आध्यात्मिकता, मानवता एवं एकता का मार्ग दिखाने का सराहनीय कार्य किया है।

महर्षि पतंजलि का जीवन परिचय

योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

Comments

Popular posts from this blog

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

योगबीज

  Yoga Beej for UGC NET Yoga Exam योगबीज योगबीज ग्रंथ भगवान शिव के द्वारा कहा गया यह है, यह हठ योग परंपरा का पुरातन ग्रंथ है, योग के एक बीज के रूप में इस ग्रंथ को माना जाता है। भगवान शिव एवं माता पार्वती जी के संवाद रूप इस ग्रंथ में माता पार्वती प्रश्न करती हैं एवं भगवान शिव उनका उतर देते हैं। योगबीज में कुल 182 श्लोक है (कुछ पुस्तक में 190 भी लिखा हुआ प्राप्त होता है, इस ग्रन्थ में कोई भी अध्याय नहीं है। योगबीज के रचनाकार भगवान शिव एवं श्रोता माता पार्वती है। माता पार्वती जी को सुरेश्वरि भी योग बीज में कहा गया है। योगबीज में माता पार्वती मुख्य रूप से 12 प्रश्न करती है। योग बीज में सबसे प्रथम श्लोक में आदिनाथ शिव को प्रणाम किया गया है तथा इन्हे वृषभ नाथ भी इसमें कहा गया है। शिव को इसमें उत्पत्ति करता, पालक और संहार करता कहा गया है, और सभी क्सेशों को हरने बाला शिव को कहा गया है। 1- योगबीज के अनुसार - अहंकार के नष्ट होने से ही हमे मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्ति होती है 2- योगबीज के अनुसार 5 प्राण होते है  (लेकिन इसमें 5 प्राण के नाम नहीं बताए गए है।) 3- योगबीज के अनुसार चित्त की शु...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति

घेरण्ड संहिता के अनुसार षट्कर्म- षट्कर्म जैसा नाम से ही स्पष्ट है छः: कर्मो का समूह वे छः कर्म है- 1. धौति 2. वस्ति 3. नेति 4. नौलि 5. त्राटक 6. कपालभाति । घेरण्ड संहिता में षटकर्मो का वर्णन विस्तृत रूप में किया गया है जिनका फल सहित वर्णन निम्न प्रकार है। 1. धौति   घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति-   धौति अर्थात धोना (सफाई करना) जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा इससे अन्तःकरण की सफाई की जाती है। इसलिए इसका नाम धौति पड़ा। घेरण्ड संहिता में महर्षि घेरण्ड ने चार प्रकार की धौति का वर्णन किया है- (क) अन्त: धौति  (ख) दन्त धौति (ग) हृद धौति (घ) मूलशोधन (क) अन्त: धौति-   अन्त:का अर्थ आंतरिक या भीतरी तथा धौति का अर्थ है धोना या सफाई करना। वस्तुत: शरीर और मन को विकार रहित बनाने के लिए शुद्धिकरण अत्यन्त आवश्यक है। अन्त: करण की शुद्धि के लिए चार प्रकार की अन्त: धौति बताई गई है- 1. वातसार अन्त: धौति 2. वारिसार अन्त: धौति 3. अग्निसार अन्त: धौति 4. बहिष्कृत अन्त: धौति 1. वातसार अन्त: धौति-  वात अर्थात वायु तत्व या हवा से अन्तःकरण की सफाई करना ही वातसार अन्त: धौति है। महर्षि ...

Yoga Multiple Choice Questions Answers in Hindi for All yoga Exam

Yoga MCQ with Answers in Hindi   1. "पतंजलि रहस्य" पाठ के लेखक कौन हैं? A. स्वामी शिवानंद B. स्वामी विवेकानंद C. आचार्य शंकर D. राघवानंद सरस्वती  2. 'संयम' का वर्णन 'पतंजलि योग सूत्र' के किस अध्याय में किया गया है? A. साधनापाद B. समाधिपाद C. विभूतिपाद D. कैवल्यपाद   3. निम्नलिखित में से कौन एक प्रमाण वृत्ति है? A. प्रत्यक्ष B. अनुमन C. आगम D. उपरोक्त सभी 4. किस अवस्था में व्यक्ति सुस्ती, अवसाद और नींद से प्रभावित होता है? A. विक्षिप्तवस्था B. निंद्रावस्था C. क्षिप्तावस्था  D. मूढावस्था 5. महर्षि पतंजलि के अनुसार पांचवीं चित्तवृत्ति कौन सी है? A. विकल्प B. निंद्रा C. स्मृति D. विपर्य 6. कौन सी वृत्ति झूठी धारणा दर्शाती है? A. प्रमाणवृत्ति B. निंद्रावृत्ति C. विकल्पवृत्ति D. विपर्यवृत्ति 7. योग-अंतराय क्या है? A. सफलता के तत्व B. विफलता के तत्व C. योग की ऊपरी अवस्था D. योग की निम्न अवस्था 8. 'पतंजलि योग सूत्र' के अनुसार कुल कितनी चित्तवृत्तियाँ हैं? A- 4, B- 5, C- 6, D-  7 9. महर्षि पतंजलि को किस अन्य नाम से भी जाना जाता है? A. अहिपति B. शेष अवतार C. नाग...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

ज्ञानयोग - ज्ञानयोग के साधन - बहिरंग साधन , अन्तरंग साधन

  ज्ञान व विज्ञान की धारायें वेदों में व्याप्त है । वेद का अर्थ ज्ञान के रूप मे लेते है ‘ज्ञान’ अर्थात जिससे व्यष्टि व समष्टि के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। ज्ञान, विद् धातु से व्युत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ किसी भी विषय, पदार्थ आदि को जानना या अनुभव करना होता है। ज्ञान की विशेषता व महत्त्व के विषय में बतलाते हुए कहा गया है "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा" अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञान रुपी अग्नि कर्म रूपी ईंधन को भस्म कर देती है। ज्ञानयोग साधना पद्धति, ज्ञान पर आधारित होती है इसीलिए इसको ज्ञानयोग की संज्ञा दी गयी है। ज्ञानयोग पद्धति मे योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष समाहित होता है। ज्ञानयोग 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या' के सिद्धान्त के आधार पर संसार में रह कर भी अपने ब्रह्मभाव को जानने का प्रयास करने की विधि है। जब साधक स्वयं को ईश्वर (ब्रहा) के रूप ने जान लेता है 'अहं ब्रह्मास्मि’ का बोध होते ही वह बंधनमुक्त हो जाता है। उपनिषद मुख्यतया इसी ज्ञान का स्रोत हैं। ज्ञानयोग साधना में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त ...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...