Skip to main content

गुरु गोरक्षनाथ जी का जीवन परिचय

 महर्षि गोरक्षनाथ जी की जीवनी- महायोगी गोरक्षनाथ ऐसे दिव्य सर्वसिद्ध साधक हैं, जो आज भी अप्रत्यक्ष रूप से योगविद्या का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। माना जाता है कि सूक्ष्म सत्ता के रूप में वे हमारा मार्ग दर्शन करने के लिए  हमारे बीच विद्यमान हैं। 

महायोगी गोरक्षननाथ के जन्म के संबन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा अलौकिक वृतान्तों का वर्णन मिलता है। इनमें प्रायः सर्वमान्य धारणा है कि अवधूत योगी गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भिक्षा के लिए एक निर्धन ब्राह्मण सर्वापदयाल के घर जाते हैं। भीतर ब्राह्मणी सरस्वती देवी को दुःख से व्याकुल देखकर उसे एक सुन्दर बालक की माता बनने के लिए भस्म देकर उसे खाने के लिये कहते हैं अवधूत गुरु के जाने पर लोकव्यवहार में शंका से प्रेरित होकर ब्राह्मणी भस्म को गोबर के ढेर में दबा देती है।

लेकिन एक दिन अकस्मात् बारह वर्ष के पश्चात वही अवधूत वेषधारी मत्स्येन्द्रनाथ जी पुनः ब्राह्मणी के यहां आते हैं और वे उस ब्राह्मणी से मिलते हैं और उसको पूर्ववर्ती घटना का स्मरण कराते हैं। तब ब्राह्णी अवधूत वेषधारी को उसी स्थान पर ले जाती है, जहां उसने बारह वर्ष पूर्व वह भस्म फेंक दी थी। योगी की दिव्य साधना से अभिप्रेरित वह भस्म ”अलखनिरंजन“ के शब्द संघात मात्र से 12 वर्ष के सुन्दर गौर वर्ण बालक के रूप में परिणत हो जाती है। तदुपरान्त योगी मत्स्येन्द्रनाथ बालक का नामकरण गोबर से उत्पन्न होने के कारण गोरक्षनाथ कहते हैं। जन्म संदर्भ के फलस्वरूप इनके जन्म को अयोनिज कहते हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से योगी मत्स्येन्द्रनाथ, गुरू गोरक्षनाथ जी के पिता एवं गुरु माने जाते हैं। योगी गोरक्षनाथ जी भी स्वयं इस बात का स्पष्टीकरण कुछ इस प्रकार करते हैं- आदिनाथ नाती मच्छन्दरनाथ पूता। निज तत् निहारे गोरक्ष अवधूता।।  (गोरखबानी पद- 37)

जन्म स्थान की अवधारणा- गुरू गोरक्षनाथ जी के जन्म स्थान के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते हैं । डॉ. नागेन्द्र नाथ उपाध्याय ने गुरु गोरक्षनाथ के जन्म स्थान के विषय में लगभग 17 मतों का संकलन किया जिसमें योगी गोरक्षनाथ का जन्म स्थान बंगाल में चन्द्र गिरि ग्राम बताया है।

श्री रामलाल श्रीवास्तव, महायोगी गोरक्षनाथ जी व उनकी तपस्थली के सम्बन्ध में लिखते हैं कि गोरक्षनाथ अवध की परम्परा के अनुसार जायस नामक नगर के एक परम पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। जबकि दूसरी मान्यताएं नेपाल के सुदूर ग्राम का संदर्भ देती हैं, कुछ अन्य मत पंजाब का संकेत देते हैं। गोरखपुर के श्री गोरखनाथ मन्दिर में महायोगी अवधूत गोरक्षनाथ जी की भव्य प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि त्रेता युग में तपस्या के दौरान योगीराज ने यहाँ "अखण्ड धूना“ प्रज्ज्वलित किया था जो आज भी अनवरत विद्यमान है।

काल निर्णय-  महायोगी गोरक्षनाथ के जन्म व मृत्यु के सम्बन्ध में यूँ तो स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते। लेकिन कई विद्वानों ने इसे द्वापर, त्रेता एवं कलयुग तीनों में माना है। माना जाता है कि वे अमरयोगी हैं। अधिकांशतः उनका जीवनकाल 7वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक माना जाता है, जो प्रायः बहुमान्य है।

महायोगी गुरू गोरक्षनाथ जी की योगसाधना- जैसा कि पूर्ववर्ती विवरण से ज्ञात है कि स्वयं अवधूत गुरु सिद्धयोगी मत्स्येन्द्रनाथ जी उसके गुरु थे तथा महासिद्ध गोरक्षनाथ ने विभिन्न आगमादि कृत्यों एवं योग अभ्यास के बल पर असंख्य सिद्धियां प्राप्त की हुई थी। कल्पद्रुम तन्त्र में गोरक्षनाथ को सिद्ध योगी बताते हुए कहा गया है-

”अहमेवाऽस्मि गोरक्षे मद्रूपं तन्निबोधत। 

योगमार्ग प्रचारार्थ मायारूपमिदं धृतम।।“

नाथ सम्प्रदाय के आविर्भाव के विषय में लिखते हुए डा. कल्याणी मलिक बताती हैं कि सातवीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म का पतन एवं शैव धर्म का अभ्युदय हुआ है तथा कालान्तर में यही शैव सम्प्रदाय कारुणिक, कापालिक, पशुपत, माहेश्वर, लकुलीस में बँट गया। इन सब में शिव को आदि संस्थापक एवं योगियों के योगी कहा है तथा इन्हीं सिद्ध की परम्परा में नाथ सम्प्रदाय का विकास हुआ, जिसके संस्थापक योगी मत्स्येन्द्रताथ जी को माना जाता है तथा इनके बाद गुरू गोरक्षनाथ जी ने इस नाथ सम्प्रदाय को क्रान्ति का रूप देते हुए नई दिशा प्रदान की। जबकि दूसरी ओर डॉ. वेदप्रकाश जुनेजा ने नव नाथों को ही नाथ परम्परा का प्रतिनिधि माना है। जिनके नाम इस प्रकार हैं ॥. आदिनाथ, 2. मत्स्येन्द्रनाथ, 3. जालन्धरनाथ, 4. गोरक्षनाथ, 5. चरपटीनाथ, 6. कानिफा नाथ, 7. चौरंगीनाथ, 8. भर्तृहरि  9. गोपीचन्द।
नाथ साहित्य श्रृंखला में गोरक्षसंहिता, गोरक्ष पद्धति, गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह, सिद्ध सिद्धान्त पद्धति,  हठयोग प्रदीपिका, विवेक मार्तण्ड, गोरक्ष सहस्रनाम, अमनस्क योग, घेरण्डसंहिता, अमरौध शासनम्, योग तारावली, महार्थ मंजरी आदि आते हैं।
सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में गोरक्षनाथ जी भी अष्टांग योग की चर्चा करते हैं-

यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार। 

धारणा ध्यान समाधयोऽष्टावंगानि।।“ (सि0सि0प0 2/32)

'योगबीज' नाम ग्रन्थ में गोरक्षनाथ ने योगमार्ग को मुक्ति मार्ग बताते हुए कहा है कि सिद्ध प्रतिपादित योगमार्ग से ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।  

सर्वसिद्धिकरों मार्गों मायाजालनिड्डन्तम। 

बद्धा येन विमुच्यते नाथ मार्गमतः परम।। (योगबीज 6/7) 

इसी प्रकार महायोगी गोरक्षनाथ जी योग को परिभाषित करते हुए कहते हैं-

“योऽपान प्राणयौरऐक्यं स्थरजो रेतसोस्तथा। 

सूर्याचन्द्रमसोर्योगोद जीवात्मा परमात्मनोः।। 

एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते।। (योगबीज 89/90)
प्राण, अपान, रज एवं वीर्य, सूर्य एवं चन्द्र तथा जीवात्मा और परमात्मा (शिव- शक्ति) का मिलन ही योग है।
महाशक्ति कुण्डलिनी के विषय में गोरक्षनाथ जी वर्णन करते हैं कि यदपि कुण्डलिनी शक्ति अपने मूलरूप में चेतन है तथापि प्रबुद्ध न होने के कारण, सांसारिक द्वन्द्वों में भ्रमित होने के कारण बन्धनकारिणी है तथा जागृत अवस्था में शिव के स्वरूप का ज्ञान कराकर योगियों को मोक्ष प्रदान करती है।
कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम। 

बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स योगवित्।। (गोरक्षशतक - 56) 

योग विभूतियां- योग साधना के बल पर गोरक्षनाथ जी ने अनेक सिद्धियां प्राप्त की जिनका वर्णन “'गोरखनाथ चरित्र' में भी देंखने को मिलता है। एक कथानुसार राजा भर्तृहरि अपनी रानी पिंगला की मृत्यु हो जानें पर उसके शोक में श्मशान पर पिंगला- पिंगला की रट लगाये हुए थे। जब गोरक्षनाथ ने राजा भर्तृहरि को विलाप करते देखा तो उनके उद्धार हेतु उन्होंने एक मिट्टी का घड़ा तोड़कर वहीं पर घड़ा - घड़ा चिल्लाकर विलाप करने लगे। धीरे धीरे राजा भर्तृहरि की आवाज गोरक्षनाथ जी की आवाज से दबने लगी। इस पर राजा भर्तृहरि गोरक्षनाथ जी के पास जाकर बोले कि क्यों रो रहे हो? ऐसा घड़ा तो और बन जायेगा। गोरक्षनाथ ने उत्तर देते हुए कहा घड़ा तो वैसा नहीं बन सकता, लेकिन पिंगलाएं बन सकती हैं। अकस्मात भर्तहरि के सामने कई पिंगलाए उपस्थित हो गयी। गुरू गोरक्षनाथ जी के यौगिक प्रभाव को देखकर भर्तृहरि मोह से निवृत्त हुए और गोरक्षनाथ जी के शिष्य बन गये।  

ऐसे ही एक अन्य कथानक के अनुसार एक बार गोरक्षनाथ की भेंट कानिफानाथ से हुई | स्वागत के लिये कानिफानाथ ने आम के वृक्ष से कुछ फल अपनी योग शक्ति के द्वारा अपने पास एकत्रित कर लिये। जो स्वयं पेड़ से टूट कर आये थे। दोनों ने फल खाए। खाने के बाद कुछ फल शेष बच गए। इस बात पर गोरक्षनाथ ने कानिफानाथ से कहा इन्हें जहाँ से तोड़ा है, वहीं लगा दो। परिहास में निषेधात्मक उत्तर मिला। तब गोरक्षनाथ ने अपनी अभिमन्त्रित भभूत उन आमों पर डाली। जिससे वह पुनः वृक्षों पर जाकर लटक गये। कानिफानाथ को अपनी विद्या की अल्पता का ज्ञान हुआ।
 

गोरक्षनाथ ने समय समय पर विभिन्न स्थानों पर कठोर साधनाएँ की। जिसमें कुछ का प्रामाणिक विवरण जोधपुर नरेश मानसिंह द्वारा संग्रहीत “श्रीनाथ तीर्थावली' में यथाक्रम मिलता है। भारत में सौराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखण्ड, हिमालय के अनेक स्थानों पर, बंगाल, उड़ीसा, कर्नाटक, गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, आदि स्थानों पर अगाध तप किया। जिसका विवरण 'नवनाथ चरित्र एवं सिद्धान्त सार' नामक  ग्रन्थों में मिलता है।

इस प्रकार कई ऐसे प्रसंग गुरु गोरक्षनाथ जी के जीवन के संबन्ध में मिलते हैं जिनसे उनकी योगसाधना एवं सिद्धियों के विषय में पता चलता है। महायोगी गोरक्षनाथ जी ने इन्द्रियनिग्रह करके योग साधना के आदर्शों को सामने लाकर संयमपूर्ण जीवन की उच्चता, आडम्बर रहित जीवन की महत्ता तथा चरित्र की परम उच्च महिमा की ओर ध्यान आकृष्ट किया। वास्तव में महायोगी गोरक्षनाथ जी सिद्ध योगी थे जिन्हें जन्म देकर भारतमाता धन्य हुई। महायोगी गोरक्षनाथ ने आध्यात्मिकता, मानवता एवं एकता का मार्ग दिखाने का सराहनीय कार्य किया है।

महर्षि पतंजलि का जीवन परिचय

योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

Comments

Popular posts from this blog

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

Pranayama (Kumbhaka) : Hatha Yoga Pradipika

"Pranayama" according to Hatha Yoga Pradipika Pranayama described in Hatha Yoga Pradipika has been called Kumbhaka, Swami Swatmarama ji while describing Pranayama has said - Suryabhedanmujjayi Sitkari Sheetali  tatha. Bhastrika Bhramari Moorchchha Plavnityashtakumbhaka. (H.P- 2/44) सूर्यभेदनमुज्जयी सीतकारी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छ प्लव्नित्याष्टकुंभका। (हठ योग प्रदीपिका - 2/44) That is, there are eight types of Kumbhak (Pranayama)- Suryabhedan, Ujjayi, Sitkari, Sheetali, Bhastrika, Bhramari, Murcha and Plavini. Their description is as follows- 1. Suryabhedi Pranayama - Describing Suryabhedan or Suryabhedi Pranayama in Hatha Yoga Pradipika, it has been said that - Spreading a suitable seat in a holy and flat place, sit on it comfortably in any posture like Padmasan, Swastikasan etc. and keep the spine, neck and head straight. Then slowly supplement with the right nostril i.e. Pingala Nadi. Do Abhyantar Kumbhak. At the time of Kumbhak, keep Moolabandha and...

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

हठयोग प्रदीपिका ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम योगी हैँ। इन्होंने हठयोग के चार अंगो का मुख्य रूप से वर्णन किया है तथा इन्ही को चार अध्यायों मे बाँटा गया है। स्वामी स्वात्माराम योगी द्वारा बताए गए योग के चार अंग इस प्रकार है । 1. आसन-  "हठस्थ प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यतै"  कहकर योगी स्वात्माराम जी  ने प्रथम अंग के रुप में आसन का वर्णन किया है। इन आसनो का उद्देश्य स्थैर्य, आरोग्य तथा अंगलाघव बताया गया है   'कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् '।  ह.प्र. 1/17 आसनो के अभ्यास से साधक के शरीर मे स्थिरता आ जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती हैं. लचीलापन आता है, आरोग्यता आ जाती है, शरीर हल्का हो जाता है 1 हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन किया गया है हठयोगप्रदीपिका में वर्णित 15 आसनों के नाम 1. स्वस्तिकासन , 2. गोमुखासन , 3. वीरासन , 4. कूर्मासन , 5. कुक्कुटासन . 6. उत्तानकूर्मासन , 7. धनुरासन , 8. मत्स्येन्द्रासन , 9. पश्चिमोत्तानासन , 10. मयूरासन , 11. शवासन , 12. सिद्धासन , 13. पद्मासन , 14. सिंहासन , 15. भद्रासना । 2. प्राणायाम- ...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...