महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का जीवन परिचय - महर्षि दयानन्द जी का जन्म गुजरात प्रान्त के मौरवी नामक राज्य (वर्तमान में राजकोट) के अन्तर्गत “टंकारा' नामक ग्राम में भाद्र मास की कृष्णपक्ष नवमी के दिन सन् 1824 ई. को हुआ था। महर्षि दयानन्द का बचपन का नाम मूलशंकर था। इनके पिता श्री कृष्णजी तिवारी एक विद्वान एवं धार्मिक प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम अमृताबाई था तथा परिवार के सभी सदस्य शिव के भक्त थे। इनका जन्म मूलनक्षत्र में होने के कारण इनका नाम मूलशंकर रखा गया था। इनका बचपन बड़ा ही खुशहाल रहा। अपनी माता पिता की पहली संतान होने के कारण परिवार के सभी लोग इन्हें बहुत प्यार करते थे।
प्रारम्भिक शिक्षा के अन्तर्गत लगभग पाँच वर्ष की आयु में मूलशंकर को देवनागरी लिपि की शिक्षा दी गयी। बचपन मे ही पिता जी ने इन्हें गायत्री मन्त्र व अनेक श्लोकों को कण्ठस्थ करा दिया था। इनके पिता मूलशंकर को सभी धार्मिक अनुष्ठानों में साथ रखते थे। इस प्रकार इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही चली तथा आठ वर्ष की आयु तक इन्होंने यजुर्वेद और व्याकरण के कुछ ग्रन्थों को भी कण्ठस्थ कर लिया था।
बचपन की घटनाएं- बचपन से किशोरावस्था तक घटी कुछ घटनाओं ने मूलशंकर का जीवन बदल कर रख दिया था। एक बार शिवरात्रि के दिन इनका पूरा परिवार शिव मन्दिर में जाकर रात्रि जागरण कर रहा था। शिव भक्त होने के कारण परिवार के सभी सदस्यों ने व्रत रखा हुआ था। आधी रात होते होते मन्दिर में सभी भक्तजनों को नींद आ गयी परन्तु बालक मूलशंकर शिव जी के दर्शन की अभिलाषा रखे हुए जागता रहा। उन्हें शिव दर्शन तो हुए नहीं, परन्तु उन्होंने देखा कि एक चूहा शिवलिंग पर चढ़कर उछल कूद कर रहा है और पास मेँ रखा प्रसाद आदि खा रहा है। यह दृश्य देखकर बालक मूलशंकर के मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था हो गयी। परिवार व पिता के काफी समझाने पर भी बालक मूलशंकर का हृदय परिवर्तित न हो सका।
इस घटना के कुछ दिन पश्चात् इनकी बहन का रोग के कारण देहान्त हो गया। इसके कुछ दिनों के बाद उनके प्रिय चाचा का भी देहान्त हो गया। चाचा व बहन के प्रति मूलशंकर को काफी लगाव था। इसलिए इन दोनों की मृत्यु ने इनके हृदय को विचलित कर दिया। इस कारुणिक घटना ने इनके समक्ष जीवन की अल्पकालिकता एवं मानवीय आकांक्षाओं की अर्थहीनता को अनावृत्त कर दिया। मूलशंकर को स्पष्ट हो चुका था कि यह जीवन एक क्षणिक प्रदर्शन मात्र है। तभी से इनके मन में सच्चे शिव की खोज करने की इच्छा उत्पन्न हो गयी और इनमें वैराग्य उत्पन्न हो गया। पिता ने इनकी इस अवस्था को देख तो मूलशंकर का विवाह करना चाहा तो लगभग 21 वर्ष की आयु में इन्होंने घर त्याग दिया।
संन्यासी जीवन की प्रवृत्ति- मूलशंकर घर का त्यागकर सयाला नामक एक गांव में गये, जहाँ एक धार्मिक सम्प्रदाय में सम्मिलित होकर उन्होंने गैरिक वस्त्र धारण कर लिये तथा शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ समय पश्चात् सिद्धपुर में प्रत्येक वर्ष की तरह आयोजित धार्मिक मेले में मूलशंकर की भेंट एक वैरागी से हुई जो उनके पिताजी का भी परिचित थे। उन वैरागी ने मूलशंकर के पिता को एक पत्र लिखकर मूलशंकर का पता बता दिया। पत्र पाकर उनके पिता तुरन्त सिद्धपुर पहुँचे जहाँ उनकी भेंट मूलशंकर से एक मन्दिर में हुई। पुत्र को गैरिक वस्त्रों में देखकर पिता अपने क्रोध पर काबू न रख सके और तभी मूलशंकर के गैरिक वस्त्र फाड़ डाले और भिक्षापात्र को तोड़ दिया। इसके पश्चात् मूलशंकर को नये वस्त्र देकर उनकी रखवाली के लिए कुछ नौकरों को नियुक्त कर दिया। रात्रि में नौकरों के गहरी नींद के समय मूलशंकर वहां से चले गये। अगले दिन पिता व नौकरों के ढूंढने पर भी मूलशंकर का पता नहीं चला। तदुपरान्त वे सब वापिस घर को लौट गये। इसके पश्चात् मूलशंकर हरिद्वार चले गये और वहाँ स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ली और यहां पर इनका नाम दयानन्द सरस्वती रखा गया।
सच्चे गुरु की खोज- संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् स्वामी दयानन्द जी भारत के सभी धार्मिक स्थलों का भ्रमण करने लगे। सच्चे गुरु से मिलने की चाह में ये सम्पूर्ण हिमालय के भ्रमण के लिए निकल पड़े। काफी प्रयास के बाद भी जब इनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत न हुई, तब इन्होंने विभिन्न योगियों से यौगिक क्रियाएं सीखी और छत्तीस वर्ष की आयु में मथुरा आ गये, जहाँ इनकी भेंट प्रख्यात संन्यासी व संस्कृत के, बहुश्रुत विद्वान स्वामी विरजानन्द से हुई । स्वामी विरजानन्द जन्म से अंधे थे तथा वे अत्यन्त रूक्ष व कठोर स्वभाव के सन्त थे और अपना अधिकांश समय ध्यान मेँ व्यतीत करते थे।
स्वामी दयानन्द जी ने इनको अपना सच्चा गुरू मानकर इनसे व्याकरण और आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद एक दिन स्वामी दयानन्द ने हाथ में कुछ लौंग लेकर गुरु को दक्षिणा स्वरूप देकर कहा कि गुरुदेव मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ। मेरे पास आपको देने के लिए इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है। स्वामी विरजानन्द ने कहा तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसे तुम स्वयं से विलग कर लो, जो शिक्षा तुमने प्राप्त की है, उसका समुचित उपयोग करो। सर्वत्र अपने इस ज्ञान का फैलाव करो, क्योंकि हिन्दू अपने धर्म को विस्मृत कर चुके हैं, उनको यथार्थ वैदिक धर्म की शिक्षा दो। गुरु विरजानन्द के यह कथन सुनकर, स्वामी दयानन्द ने अपने गुरु को प्रणाम किया और वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के लिए अपने जीवन को समर्पित कर देने की शपथ ग्रहण की और अपने गुरु से विदा लेकर वे तत्काल अपने कार्य में संलग्न हो गये।
वैदिक धर्म का प्रचार- वैदिक धर्म के प्रचार हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती आगरा और ग्वालियर गये जहाँ उन्होंने प्रवचन दिये और उसके पश्चात् जयपुर के लिए रवाना हो गये। जयपुर के महाराज ने उनका श्रद्धा तथा उत्साहपूर्वक स्वागत किया।
स्वामी दयानन्द ने हरिद्वार, वाराणसी तथा कलकत्ता में प्रवचन दिया। वह देवेन्द्रनाथ टैगोर और बाबू केशवचन्द्र सेन से मिले। उन्होंने अपने प्रवचन हिन्दी तथा संस्कृत में दिये, जिनके माध्यम से मूर्ति-पूजा का विरोध किया मूर्ति-पूजा के विरोध में प्रवचन देने के कारण उन्हें रूढ़िवादी हिन्दुओं के क्रोध का सामना करना पड़ा। कई बार तो इन पर जानलेवा प्रहार भी किया गया किन्तु स्वामी दयानन्द वैदिक मत का प्रचार निरन्तर करते रहे। अपने वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के दौरान उन्होंने लेखन कार्य भी किया तथा सत्यार्थ प्रकाश नामक क्रान्तिकारी ग्रन्थ का सृजन किया।
आर्यसमाज की स्थापना- वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु स्वामी दयानन्द ने बम्बई में सन् 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की जिसके माध्यम से सम्पूर्ण भारतवर्ष में अनेक सामाजिक कार्य किये गये। स्वामी दयानन्द जी के प्रयत्न स्वरूप अनेक विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा अनाथालयों की स्थापना हुई। आर्यसमाज द्वारा स्थापित गुरुकुलों में आज भी परम्परागत शिक्षा का कार्य चल रहा है। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक के साथ -साथ एक महान योगी होने के कारण निरन्तर योग साधना में लगे रहते थे। विरोधियों द्वारा अनेकों बार विष देने के प्रयास को यौगिक क्रियाओं द्वारा ही असफल किया। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के साथ साथ ऋग्वेद, यजुर्वेद का भी भाष्य किया। स्वामी दयानन्द के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए इनके विरोधियों की भी संख्या बढ़ती गयी। स्वामी दयानन्द के स्वतन्त्रता की बात करने के कारण अंग्रेजी सरकार भी उनसे नाराज रहती थी। प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महारानी लक्ष्मीबाई तथा क्रान्तिवीरों के साथ भारत की स्वाधीनता के लिए भी कार्य किया। उनका कथन था कि विदेशी राज्य चाहे कितना भी अच्छा हो, स्वराज्य से अच्छा नहीं हो सकता। अतः स्वराज्य प्राप्ति के लिए पूर्ण प्रयास किया जाना चाहिए।
निर्वाण- स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जोधपुर के महाराज यशवन्त सिंह के आमंत्रण पर जोधपुर पहुंचे। वहाँ पर राजा को एक वेश्या के साथ देखकर उन्होंने राजा को बहुत फटकारा। इस बात से वह नन्हीजान नामक वेश्या खिन्न हो गई। उसने राजमहल के रसोइये जगन्नाथ को लालच देकर इनके दूध में कांच तथा जहर मिलाकर पिला दिया। स्वामी जी को जब इस बात का पता लगा तो उन्होने रसोइये को अपने पास से पैसे देकर नेपाल भाग जाने को कहा। उन्हें डर था कि मेरे बाद लोग इसे मार डालेंगे। यह बात स्वामी जी की महानता को दर्शाती है कि अपने मारने वाले के प्रति भी उनके मन में दया का भाव था। इसके बाद स्वामी जी का बहुत उपचार किया गया किन्तु कांचमिश्रित विष इतना तेज था कि उसके कारण उनकी स्थिति बिगड़ती चली गई। जोधपुर से उन्हें चिकित्सा के लिए आबू तथा आबू से अजमेर लाया गया परन्तु यहां भी इनकी अवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ। इतने तीव्र कष्ट होने पर भी उनके मुख पर किसी प्रकार की वेदना दिखाई नहीं देती थी, जिसको देखकर नास्तिक गुरुदत्त विद्यार्थी भी आस्तिक हो गया था।
सन 1883 में कार्तिक मास की अमावस्या को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने संध्या के समय ध्यानावस्था में बैठकर वेदमन्त्रों के उच्चारण के साथ 'प्रभु तेरी इच्छा पूर्ण हो” यह कहकर इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।
स्वामी दयानन्द जी की शिक्षाएं - आर्य समाज के नियम व उद्देश्य-
सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्ता, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।
वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक एवं आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।
अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।
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