चित्तवृत्ति निरोध के उपाय
महर्षि पतंजलि ने चित्त वृत्ति निरोध के उपाय के रूप में अभ्यास व वैराग्य नाम से दो प्राथमिक साधन बतायें है। महर्षि पतंजलि योगसूत्र के समाधिपाद में कहते है-
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध: (योगसूत्र- 1/12)
अर्थात- अभ्यास और वैराग्य के द्वारा उन चित्तवृत्तयों का निरोध होता है। चित्तवृत्तियों का प्रवाह परम्परागत संस्कारों के बल पर सांसारिक भोगों की ओर चल रहा है उस प्रवाह को रोकने का उपाय वैराग्य है और उसे कल्याण मार्ग में ले जाने का उपाय अभ्यास है।
1. अभ्यास-
चित्त की स्थिरता के लिए जो प्रयत्न किया जाता है वह अभ्यास कहा जाता है। वास्तव में अभ्यास नाम की शक्ति दु:साध्य को भी सुसाध्य बना देती है। महर्षि पतंजलि कहते है-
तत्रस्थितौ यत्नोऽभ्यास: (योगसूत्र- 1/13)
चित्त की स्थिरता के लिए जो प्रयत्न करना है वह अभ्यास है। चित्त (मन) जो स्वभाव से ही चंचल है उस चित्त को किसी एक ध्येय में स्थिर करने के लिये बारम्बार प्रयत्न करते रहने का नाम अभ्यास है। किन्तु ध्यान रहे यह अभ्यास कुछ दिनों या महीनों की बात नहीं है। इसके लिए लम्बे समय तक निरन्तर एवं श्रद्धा और आदर के साथ प्रयत्न करना पड़ता है। तभी वह दृढ़ अभ्यास बनता है। महर्षि पतंजलि ने कहा है-
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽसेवितो दृढ़भूमि: (योगसूत्र- 1/14)
अर्थात वह अभ्यास दीर्घकाल तक निरन्तर (लगातार) आदर पूर्वक सेवन अर्थात अभ्यास करते रहने पर ही दृढ़ अवस्था वाला होता है।
अभ्यास को दीर्घकाल पर्यत्न निरन्तर व्यवधान से रहित ठीक ठीक श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करने पर दृढभूमि वाला बन जाता है। दीर्घकाल तक निरन्तर लगातार किया गया पर्यत्न तथा तपस्या, ब्रहमचर्य विद्या और श्रद्धा आदि से किया गया साधक का अभ्यास दृढभूत होता है। इससे योगी व्युत्थान के संस्कारों से अभिभूत नहीं होता है। जगत के भोग वासना जन्य व्युव्थान के संस्कार मनुष्य के अन्दर चित्त में जन्म जन्मान्तरों से चले आ रहे है। उनको थोड़े काल के अभ्यास से नष्ट कर देना सम्भव नहीं है इसलिए इस अभ्यास को दृढभूत बनाने के लिए धैर्य के साथ दीर्घकाल्र पर्यन्त लगातार श्रद्धा, वीर्य और उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते जाना चाहिए।
2. वैराग्य-
वैराग्य शब्द भारतीय आध्यात्मिक क्षेत्र में जाना पहचाना शब्द है। वैराग्य का अर्थ हैं बिना राग के या यूँ कहे कि जिस व्यक्ति को कोई चाह नहीं, आसक्ति नहीं। चित्त की वृत्तियों को रोकने के लिए जहाँ एक ओर अभ्यास साधन है, वही दूसरी ओर वैराग्य प्रधान स्पधन है। महर्षि पतंजलि ने देखे गये और सुने गये विषय वस्तुओं में विवेक के द्वारा आसक्ति का न होना वैराग्य कहा है। महर्षि पतंजलि कहते है-
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् (योगसूत्र- 1/15)
अर्थात- देखे गये और सुने हुए विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित्त की जो वशीकार नामक अवस्था है वह वैराग्य है।
देखे गये- अर्थात जो हम अपनी आँखों से इस संसार की भौतिक वस्तुओं को देखते है जैसे धन, वैभव, एश्वर्य, कार, मकान, जमीन, राज, नौकरी इत्यादि।
सुने गये- अर्थात जो हमने सुने है, वेदों से, उपनिषदों से, पुराणों से, प्राचीन आर्ष ग्रन्थों से जैसे स्वर्ग प्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति, दिव्य लोकों का सुख इत्यादि। वैराग्य की अवस्था में उपरोक्त दोनों देखे गये और सुने हुए विषयों से कोई आसक्ति नहीं रहती है।
अगर हम इस संसार की तुलना जलाशय से करें तो मान लिजिए इस जलाशय के दो द्वार है एक द्वार संसार की ओर (भौतिक पदार्थों, धन, वैभव इत्यादि) जाता है तथा दूसरा मोक्ष की ओर। जो रास्ता संसार की ओर जाता है वहाँ वैराग्य का बांध ल्रगाये और जो रास्ता मोक्ष की ओर जाता हो उसके लिए अभ्यास करे। अत: हम कह सकते है कि अभ्यास और वैराग्य से साधक कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति कर सकता है।
योगसूत्र का सामान्य परिचय
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