चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।
'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।
ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30)
योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल भी कहा जाता हैं। चित्तवृत्तियों के साथ इनका अन्वयव्यतिरेक है। अर्थात् इन विक्षेपों के होने पर प्रमाणादि वृत्तियाँ होती हैं। जब ये नहीं होते तो वृत्तियों भी नहीं होती। वृत्तियों के अभाव में चित्त स्थिर हो जाता है। इस प्रकार चित्तविक्षेप के प्रति ये उक्त नौ अन्तराय ही कारण हैं।
1. व्याधि-
'धातुरसकरणवैषम्यं व्याधि” धातुवैषम्य, रसवैषम्य तथा करणवैषम्य को व्याधि कहते हैं। वात, पित्त और कफ ये तीन धातुएं हैं। इनमें से यदि एक भी कुपित होकर कम या अधिक हो जाये तो वह धातुवैषम्य कहलाता है। जब तक देह में वात, पित्त और कफ समान मात्रा में हैं तो तब इन्हें धातु कहा जाता हैं। जब इनमें विषमता आ जाती है तब इन्हें दोष कहा जाता है। धातुओं की सम अवस्था में शरीर स्वस्थ रहता है। धातुओं की विषमता में शरीर रुग्ण हो जाता है। आहार का अच्छी तरह से परिपाक न होना रसवैषम्य कहलाता है। यही शरीर में व्याधि बनाता है। ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों की शक्ति का मन्द हो जाना करणवैषम्य है। योगसाधना के लिए सशक्त और दृढ़ इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। धातु, रस तथा करण इन तीनों की विषमता को ही व्याधि कहते हैं। रोगी शरीर से समाधि का अभ्यास सम्भव नहीं। अतः व्याधि समाधि के लिए अन्तराय है। कफ, श्वास आदि दैहिक रोगों को व्याधि कहते हैं तथा मानसिक रोग को आधि जैसे स्मरण शक्ति का अभाव, उनन्माद, अरुचि, घृणा, काम, क्रोध आदि। आधि शब्द के 'वि! उपसर्ग के योग से व्याधि शब्द बनता है 'विशेषेण आधीयते अनुभूयते मनसा इति व्याधिः चूँकि शारीरिक रोग मन को आधि की तुलना में अधिक कष्टकारक अनुभूत होता है, इसलिए शारीरिक रोग का व्याधि नाम सार्थक सिद्ध होता है।
2. स्त्यान-
'स्त्यानं अकर्मण्यता चित्तस्य' अर्थात् चित्त की अकर्मण्यता को स्त्यान कहते हैं। समाधि का अभ्यास करने की इच्छा तो चित्त में होती है किन्तु वैसा सामर्थ्य उसमें नहीं होता। केवल इच्छा से योग सिद्ध नहीं होता, अपितु उसमें योगाभ्यास की शक्ति होनी चाहिए। पुत्रों की आसक्ति, विषयभोग की लालसाएं तथा जीविकाोपार्जन के व्यापार में चित्त को उलझाये रखते हैं जिससे कि चित्त अकर्मण्यता अनुभव करता है। अकर्मण्यता समाधि में अन्तराय है। जब तक सत्यान की अवस्था रहेगी तब तक साधक के लिये समाधि का मार्ग अवरूद्ध रहेगा।
3. संशय-
“उभयकोटिस्पृग् विज्ञानं संशयः' अर्थात् यह भी हो सकता है
और वह भी हो सकता है। इस प्रकार के ज्ञान को संशय कहते हैं। योग साधना के
विषय में जब साधक को कभी कभी संशय होता है कि मैं योग का अभ्यास कर सकूंगा
या नहीं क्या मुझे सफलता मिलेगी क्या मुझे समाधि (कैवल्य) प्राप्त हो
सकता है मेरा परिश्रम व्यर्थ तो नही चला जायेगा, तब यह संशयात्मक ज्ञान योग का विध्न
बन जाता है। संशय की अवस्था में साधक का चित्त असंतुलित रहता है और वह
साधना नहीं कर सकता है।
4. प्रमाद-
'समाधिसाधनानामभावनम्' समाधि
के साधनों में उत्साह पूर्वक प्रवृत्ति न होना प्रमाद कहलाता है। समाधि का
अभ्यास प्रारम्भ कर देने पर उसमें वैसा ही उत्साह और दृढ़ता निरन्तर बनी
रहनी चाहिए जैसा उत्साह प्रारम्भ में था। प्रायः युवावस्था का मद, धन और
प्रभुत्व का दर्प तथा शारीरिक सामर्थ्य का मद साधक के उत्साह को शिथिल कर
देता है। अतः प्रमाद समाधि में अन्तराय है।
5. आलस्य-
'आलस्यं
कायस्य चित्तस्य च गुरुत्वादप्रवृत्तिः काम के आधिक्य से शरीर तथा तमोगुण के
आधिक्य से चित्त भारीपन का अनुभव करता है। शरीर और चित्त के भारी होने से
समाधि के साथनों में प्रवृत्ति नहीं होती, इसी का नाम आलस्य है। प्रमाद और
आलस्य में बहुत अन्तर है। प्रमाद प्रायः अविवेक से उत्पन्न होता है। आलस्य
में अविवेक तो नहीं होता किन्तु गरिष्ठ भोजन के सेवन से शरीर और चित्त भारी
हो जाता है। यह भी योग साधना मार्ग में अन्तराय कहलाता है।
6. अविरति-
“चित्तस्य विषयसम्प्रयोगात्मा गर्ध: अविरतिः कोमलकान्त
वचन, उनके अंगों का मोहक स्पर्श, तथा स्वादिष्ट भोज्य, पेय आदि व्यंजनों का
रस कभी कभी तत्त्वज्ञान को भी आवृत्त करके साधक को संसार में आसक्त बना
देता है। विषयों के प्रति यह आसक्ति ही अविरति है। यह अविरति योग का
महान् विध्न कहा गया है। जब तक अविरति रहेगी तब तक चित्त वृत्तियों का निरोध
नहीं हो सकता है। शब्दादि विषयों के भोग
से तृष्णा उत्पन्न होती है। तृष्णा वैराग्य की शत्रु है। समाधि के लिये
वैराग्य प्रमुख साधन है। अतः वैराग्य का अभाव योग का अन्तराय है।
7. भ्रान्तिदर्शन-
“भान्तिदर्शनं विपर्ययज्ञानम्' अर्थात् मिथ्याज्ञान को भ्रान्तिदर्शन कहते हैं। अन्य वस्तु में अन्य वस्तु का ज्ञान ही मिथ्या ज्ञान है। जब साधक योग के साधनों को असाधन और असाधनों को साधन समझने लगता है तो यह भान्तिदर्शन योग का विध्न बन जाता है। भ्रान्तिदर्शन में व्यक्ति को साधन के फलों में झूठा ज्ञान हो जाता है।
8. अलब्धभूमिकत्व-
'अलब्धभूमिकत्व समाधिभूमेरलाभ: अर्थात् समाधि की किसी भी भूमि की प्राप्ति न होना भी योग में विघ्न है। समाधि की चार भूमियाँ हैं सवितर्क, निर्वितक, सविचार तथा निर्विचार। जब प्रथम भूमि की प्राप्ति हो जाती है तो योगी का उत्साह बढ़ जाता है। वह सोचता है कि जब प्रथम भूमि प्राप्त हो गयी है तो अन्य भूमिया भी अवश्य ही प्राप्त होंगी। परन्तु किसी कारण से उनकी प्राप्ति न होना अलब्धभूमिकत्व कहा गया है। यह भी योग में अन्तराय है।
9. अनवस्थितत्व-
“लब्धायां भूमाँ चित्तस्याप्रतिष्ठा अनवस्थितत्वम्' यदि किसी प्रकार समाधि की भूमियों में से किसी एक की प्राप्ति हो जाये किन्तु उसमें निरन्तर चित्त की स्थिति न हो तो यह अनवस्थितत्व कहलाता है।
इस प्रकार ये नौ चित्तविक्षेप योग के अन्तराय कहलाते हैं। इन्हीं को चित्तमल तथा योग प्रतिपक्ष भी कहा गया है। इन चित्तविक्षेपों के पाँच साथी भी हैं। जो इन अन्तरायों के होने पर स्वतः हो जाते हैं
दुःखदौर्मनस्यअंगमेजयत्वश्वासप्रश्वास विक्षेपसहभुवः (योगसूत्र- 1/31)
1. दुःख-
दुःख के बारे में व्यास जी कहते हैं “येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तद्दु:खम' (योगसूत्र व्यासभाष्य 1/31)
जिसके साथ सम्बन्ध होने से पीड़ित हुए प्राणी उस प्रतिकूल वेदनीय हेय दुःख की निवृत्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, वह दुःख कहा जाता है। दु:ख तीन प्रकार के हैं आध्यात्मिक, आदिभौतिक तथा आधिदैविक। आध्यात्मिक दुख भी दो प्रकार के होते हैं- शारीरिक और मानसिक। किसी भी प्रकार का शारीरिक रोग जैसे कब्ज, अपच, पीलिया, रक्तचाप, अस्थमा इत्यादि तथा मानसिक रोग चिन्ता, तनाव अवसाद आदि ये आध्यात्मिक दु:ख कहलाते है जिनके कारण भी योग साधना में बाधा उत्पन्न होती है। आदिभौतिक शब्द की रचना का विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि यह शब्द भूत शब्द से बना है। भूत शब्द का अर्थ है प्राणी अर्थात प्राणियों के द्वारा दिये गए दुःखों को आदिभौतिक कहा जाता है। प्राणी, योनिज, स्वेदज, अण्डज तथा उद्धिज भेद से चार प्रकार के होते हैं। दुःखों के तृतीय प्रकार का नाम आदिदैविक है जिसका अर्थ है दैविक शक्तियों के द्वारा दिये गए दुःख। दैविक शक्तियों के रूप में अग्नि, जल और वायु की गणना की जाती है। ये तीनों प्रत्येक के लिए अति आवश्यक हैं परन्तु आवश्यकता से अधिक या कम होने पर ये दुःखों के उत्पादक होते हैं। जैसे अग्नि यदि हमारे उदर अथवा रसोई घर में पर्याप्त मात्रा में रहे तो सुखद परन्तु यदि कम या अधिक हो तो असहनीय होकर दुःखों का कारण बन कर नाशवान हो जाती है। इसी प्रकार से वायु और जल को समझना चाहिए।
2. दौर्मनस्य-
अभिलक्षित पदार्थ विषयक इच्छा की पूर्ति न होने से चित्त में जो क्षोभ उत्पन होता है। उसे दौर्मनस्य कहा जाता है जब प्रयास करने पर भी इच्छा की पूर्ति नहीं होती तो चित्त व्याकुल होता है। यह दौर्मनस्य भी दुःख का साथी है। कहा गया हैं- इच्छाव्याघातात् चेतसः क्षोभः दौर्मनस्यम्। (योगसूत्र व्यासभाष्य 1/31)
वास्तव में इच्छापूर्ति न होने पर व्यक्ति की स्थिति अति भयंकर हो जाती है। वर्तमान प्रतिस्पर्धा के युग में व्यक्ति में उच्चतम महत्वाकाक्षायें रहती है तथा कर्म का अभाव है ऐसी विषम परिस्थिति में दौर्मन्य का होना स्वाभाविक है ऐसी स्थिति में साधक पहले तो साधना करता ही नहीं है अगर करता भी है तो दौर्मनस्य होने पर उसे छोड़ देता है यह दौर्मनस्य योग में सबसे बड़ा विध्न है।
3. अंगमेजयत्व-
जो शरीर के हाथ, पैर , सिर आदि अंगों की कम्पित अवस्था है, वह अंगमेजयत्य कहलाती है यत् अंगानि एजयति कम्पयति तद् अंगमेजयत्यम् व्याधि आदि अन्तराय शरीर को दुर्बल बना देती हैं जिससे अंगों में कम्पन होने लगता है। यह अंगमेजयत्व आसन, प्राणायाम आदि में व्यवधान उपस्थित करता है। अतः विक्षेप का साथी होने से समाधि का प्रतिपक्षी है। वातरोग होने के कारण देखा गया है कि शरीर के अंगों में कम्पन हो जाता है व्याक्ति को लकवा हो जाता है यह भी योग में विघ्न है।
4. श्वास-
जिस बाह्य वायु का नासिकाग्र के द्वारा आचमन करते है, वह श्वास कहलाता है अर्थात् भीतर की ओर जाने वाला प्राणवायु श्वास है। यह प्राणक्रिया यदि निरन्तर चलती रहे, कुछ समय के लिए भी न रुके तो चित्त समाहित नही रह सकता। यह श्वास रेचक प्राणायाम का विरोधी होता है। अतः यह समाधि प्राप्ति में अन्तराय है।.
5. प्रश्वास-
जो प्राण भीतर की वायु को बाहर निकालता है, वह प्रश्वास कहलाता है। यह श्वास क्रिया भी निरन्तर चलती रहती है। यह भी समाधि के अंगभूत पूरक प्राणायाम का विरोधी होने से समाधि का विरोधी है। अतः विक्षेप का साथी होने से योगान्तराय कहा जाता है।
महर्षि पतंजलि ने उपरोक्त नौ चित्तविक्षेपों (योगान्तरायों ) तथा इनके पाँच साथियों (विक्षेपसहभुव) का निवारण करने के लिए एकतत्व के अभ्यास का उपदेश देते हुए कहा है-
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः (योगसूत्र-1/32)
अर्थात् उक्त योगान्तरायों के निराकरण के लिये साधक को ईश्वररूप एक तत्व के चिन्तन में पुनः पुनः चित्त को प्रविष्ठ करने का अभ्यास करना चाहिए। एकतत्त्वाभ्यास का अर्थ है 'ईश्वरप्रणिधान'। ईश्वरप्रणिधान का अभ्यास करने से कोई भी विघ्न योगमार्ग में उपस्थित नहीं होता।
कर्मयोग
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