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योगसूत्र के अनुसार ईश्वर का स्वरूप

 ईश्वर- 

ईश्वर के बारे में कहा है-

“ईश्वरः ईशनशील इच्छामात्रेण सकलजगदुद्धरणक्षम:।

अर्थात जो सब कुछ अर्थात समस्त जगत को केवल इच्छा मात्र से ही उत्पन्न और नष्ट करने में सक्षम है, वह ईश्वर है। ईश्वर के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों के अनेक मत हैं परन्तु आधार सभी का लगभग एक ही है। इसी श्रृंखला में यदि अध्ययन किया जाए तो शंकराचार्य , रामानुजाचार्य , मध्वाचार्य , निम्बार्काचार्य , वल्लभाचार्य तथा महर्षि दयानन्द के विचार विशिष्ट प्रतीत होते हैं। 

विविध विद्वानों के अनुसार ईश्वर-


क. शंकराचार्य जी-  आचार्य शंकर के मतानुसार ब्रह्म अंतिम सत्य है। परमार्थ और व्यवहार रूप में भेद है। परमार्थ रुप से ब्रह्म निर्गुण, निर्विशेष, निश्चल, नित्य, निर्विकार, असंग, अखण्ड, सजातीय -विजातीय -स्वगत भेद से रहित, कूटस्थ, एक, शुद्ध, चेतन, नित्यमुक्त, स्वयम्भू हैं। उपनिषद में भी ऐसा ही कहा गया है ।

श्रुतियों से ब्रह्म के निर्गुणत्व, निर्विशेषत्व तथा चैतन्य स्वरूप का प्रमाण मिलता है। माया के कारण भी ब्रह्म में द्वैत नहीं आता क्योंकि यह माया सत् और असत् से विलक्षण वस्तु है। ब्रह्म ही जगत का उपादान व निमित्त कारण है। यद्यपि वह न तो किसी का कारण है, न उसका कोई कारण है। यह कारणभाव मिथ्या है। तथापि अनादि काल से जब जगत् का कारण खोजने की वासना में जाकर देखा जाता है तो ब्रह्म ही सबका कारण प्रतीत होता है।

ख. रामानुजाचार्य जी- आचार्य रामानुज के अनुसार ब्रह्म के दो रूप हैं. 'स्थूल चिदचिद्विशिष्ट तथा सूक्ष्म चिदचिद्विशिष्ट। यह विशेषता उसमें विकार या परिवर्तन उत्पन्न नहीं करती। ब्रह्म निर्गुण नहीं हो सकता क्योंकि इस अवस्था में व्यावहारिक जगत् की उत्पत्ति सम्भव नहीं है।

उपनिषदों में कहा है- “एकमेवाद्वितीयम्“

उक्त वाक्य ब्रह्म की एकता व अद्वितीयता का प्रतिपादन करता है, सगुणत्व का प्रत्याख्यान नहीं करता। निर्गुण का अर्थ हेय तथा निकृष्ट गुणों से रहित होना है। श्रेष्ठ गुणों से तो ब्रह्म को मण्डित किया गया है, जैसे सत्यसंकल्प, सत्यधाम सर्वशक्तिमान, दयालु आदि। उसका पारमार्थिक रूप भी यही है। वह गुणों से रहित कभी नहीं होता। वे ब्रह्म में स्वगत भेद मानते हैं। जीव व जगत ब्रह्म के शरीर हैं किन्तु दोनों पृथक् हैं फिर भी वे अभिन्न है। सत्य, ज्ञान और आनन्द ब्रह्म के विशेषण है। इसी कारण वह सविशेष है। उसमें सत्यसंकल्पत्व, सर्वशक्तित्व, सर्वकर्तृत्व, भक्तवत्सलता आदि गुण हैं। अतः वह सगुण है।

ग. मध्वाचार्य जी-  इनके अनुसार ब्रह्म सगुण व विशेष है। वह सदा जीव व जगत् से भिन्न रहता है। ये उसके शरीर नहीं, स्वतन्त्र तत्व हैं। ब्रह्म भी अनन्त गुणों का समुदाय स्वतन्त्र तत्व है। ये गुण ही परमेश्वर के स्वरूप हैं। ब्रह्म को 'हरि' कहते हैं। वही देवाधिदेव है, मुक्तिदाता है, रचयिता, पालक व संहारक हैं। देशकाल, गुणों की उसमें कोई सीमा नहीं है।

घ. निम्बार्काचार्य जी-  इनके मतानुसार ब्रह्म का नाम 'कृष्ण' है। यह समस्त गुणों का आलय, दोषों से सर्वदा पृथक है, सर्वजनवरेण्य व भक्तवत्सल है। वे वसुदेव, संकर्षण, प्रयुम्न और अनिरुद्ध इन चार व्यूहों से सम्पन्न होकर जगत् की व्यवस्था करते हैं। भक्तों की रक्षा और रंजन हेतु अवतार धारण करते हैं।

ड. वल्लभाचार्य जी- इनके अनुसार ब्रह्म सगुण, सर्वज्ञ, साकार, सर्वशक्तिमान्, सर्वकर्ता, सच्चिदानन्दस्वरूप, चैतन्य और नित्य है। आचार्य बल्लभ का मत अन्य आचार्यों से विलक्षण है। ये कहते हैं कि ब्रह्म कभी भी अशुद्ध नहीं होता। माया के दोष से सर्वथा अलग रहता है

माया सम्बन्धरहितं शुद्धमित्युच्यते बुधैः। (शुद्धाद्वैत मार्तण्ड)

वह सविशेष होंकर भी निर्विशेष है। वह लीला के लिए जड़ और जीव के रूप में आविर्भूत होता है किन्तु इस आविर्भाव में वह अविकृत, अपरिवर्तित और शुद्ध रहता है।

च. महर्षि दयानन्द जी- महर्षि दयानन्द  का मत है कि ईश्वर सगरुण व निर्गुण दोनों हैं। निर्गुण इसलिए है क्योंकि उसमें रूप, रस, आकार, आदि गुणों का सर्वथा अभाव है। मनुष्य, पशु आदि के रुप में वह अवतार नहीं लेता। जो जड़ चेतन सब तत्वों में सर्वव्यापक है, उसे किसी विशेष रूप में अवतरित होने की क्या आवश्यकता है उसमें दया, उदारता, न्याय, सर्वज्ञता आदि अनेक गुण हैं। अतः वह सगुण भी है। वह निराकार है। बिना हाथ पाँव या इन्द्रियों के वह समस्त कार्य करने में सक्षम है

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु: स शृणोत्यकर्ण:। 

स वेत्ति वेद्य न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रयं पुरुष महान्तम्।। (श्वेता. 3/19) 

वह निष्क्रिय नहीं है। यदि ऐसा होता तो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कैसे होता। अतः वह चेतन और क्रियाशील मानना होगा।

परास्य शक्तिर्विविधैर्श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबल क्रिया च। ( श्वेताश्वतरोपनिषद्-6/8)

जगत की व्यवस्था तथा मोक्ष सुख प्रदान करना भी उसी का कार्य है।

अगर हम भारतीय दर्शनों का सम्यक अध्ययन करें तो भारतीय दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त ये चार दर्शन स्पष्ट रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं तथा उसकी सिद्धि में उन्होंने प्रबल तर्क दिये हैं। मुख्य रूप से तीन कारणों से ईश्वर की सत्ता को आवश्यक माना गया है। प्रथम कारण यह है कि जगत् की रचना ईश्वर के अतिरिक्त कोई अन्य मनुष्य, देव, सिद्धादि नही कर सकते। सृष्टिकर्ता ईश्वर ही हो सकता है। दूसरा कारण यह है कर्मफल प्रदातृत्व। असंख्य जीवों के कर्मों का फल देना ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य के वश की बात नही है। तीसरा कारण यह है कि ईश्वर ने वेदों की रचना की है। सर्वज्ञकल्प वेदों की रचना सर्वज्ञ ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। इस प्रकार जगत् कर्ता, कर्मफलप्रदाता तथा वेदों के रचयिता के रूप में ईश्वर को स्वीकार किया गया है।

योगसूत्र के अनुसार ईश्वर का स्वरूप-

 योगसूत्र में ईश्वर का स्वरूप न्याय, वैशेषिक और वेदान्त दर्शन के अनुसार ही स्वीकार किया गया है किन्तु उसकी मान्यता का आधार न्याय वैशेषिक से कुछ भिन्न है। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योगसूत्र के अनुसार ईश्वर को जगत् कर्तृत्व तथा कर्मफलप्रदातृत्व कहा गया हैयोगसूत्र में समाधिपाद के 23वे सूत्र में महर्षि पतंजलि ने कहा है कि ईश्वर की विशेष भक्ति से समाधि की सिद्धि शीघ्र होती है। भक्ति से प्रसन्न होकर परम पिता परमेश्वर योगसाधना में आने वाली समस्त बाधाओं (चित्त विक्षेपो) का निवारण कर देते है जिससे समाधि का मार्ग सहज ही प्राप्त हो जाता है। योगसूत्र में ईश्वर के स्वरूप को इस प्रकार परिभाषित किया है-

“क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः।” (योगसूत्र-1/24)

अर्थात- क्लेश, कर्म, विपाक तथा कर्माशय इन चारों से जो सर्वथा असम्बद्ध है, ऐसा पुरुषविशेष ईश्वर कहलाता है। अविद्धया, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश नामक पांचों क्लेश जिसको छू नहीं सकते। पुण्य, पाप और मिश्रित तीनों प्रकार के कर्मों से जो सर्वथा अलग है, कर्मफल जिसको सुख या दुःखरूप भोग प्रदान नहीं करते तथा कर्मों के संस्कार जाति, आयु व भोगरूप फल के रूप में आगामी जन्मों का हेतु नहीं बनते, वह पुरूषविशेष ईश्वर कहलाता है। इस प्रकार अन्य पुरुषों से वह सर्वथा पृथक है क्योंकि अन्य पुरुष क्लेश के सम्पर्क से कर्म बंधन में बंधे हैं और शुक्ल, कृष्ण तथा शुक्लकृष्ण कर्म करके सुख, दुःख व मिश्रित फल के भागी हो रहे हैं। संस्कारो के कारण बार बार जन्म धारण कर रहे हैं। ये मुक्त होने के बाद भी उस 'ईश्वर' के तुल्य नहीं हो सकते क्योंकि वह ईश्वर तो कभी जन्म मृत्यु के भवचक्र में फँसा ही नहीं। इसी पुरुष (जीव) को मोक्ष की आवश्यकता है, ईश्वर को नहीं। 

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्॥ (योगसूत्र-1/25)

उस (ईश्वर) में  सर्वज्ञता का बीज (कारण) अर्थात् ज्ञान निरतिशय है। जिससे बढ़कर कोई दूसरी वस्तु हो, वह सातिशय है और जिससे बड़ा कोई न हो वह निरतिशय है। ईश्वर ज्ञान की अवधि है, उसका ज्ञान सबसे बढ़कर है उसके ज्ञान से बढ़कर किसी का भी ज्ञान नहीं है इसलिये उसे निरतिशय कहा गया है। जिस प्रकार ईश्वर में ज्ञान की पराकाष्ठा है, उसी प्रकार धर्म, वैराग्य, यश और ऐश्वर्य आदि की पराकाष्ठा का आधार भी उसी को समझना चाहिये।

पूर्वषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्॥ (योगसूत्र-1/26)

वह ईश्वर सबके पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है। सर्ग के आदि में उत्पन्न होने के कारण सबका गुरु ब्रह्मा को माना जाता है, परंतु उसका काल से अवच्छेद है। गीता के बताया गया है ईश्वर स्वयं अनादि और अन्य सबका आदि है वह काल की सीमा से सर्वथा अतीत है, वहाँ तक काल की पहुँच नहीं है, क्योंकि वह काल का भी महाकाल है। इसलिये वह सम्पूर्ण पूर्वजों का भी गुरु यानी सबसे बड़ा, सबसे पुराना और सबको शिक्षा देने वाला है।

तस्य वाचकः प्रणव:॥  (योगसूत्र-1/27)


उस ईश्वर का वाचक (नाम) प्रणव है। नाम और नामी का सम्बन्ध अनादि और बड़ा ही घनिष्ठ है। इसी कारण शास्त्रों में नाम-जप की बड़ी महिमा है गीता में भी जप यज्ञ को सब यज्ञों में श्रेष्ठ बतलाया गया है । ऊँ उस परमेश्वर का वेदोक्त नाम होने से मुख्य है गीता में भी भगवान श्री कृष्ण ने कहा है अक्षरों में मैं ऊँ हूँ, इसी वर्णन से श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि जितने भी ईश्वर के नाम हैं, उनके जप का भी माहात्म्य समझ लेना चाहिये।

तज्जपस्तदर्थभावनम्॥ (योगसूत्र-1/28)
अर्थात् उस ऊँकार का जप और उसके अर्थस्वरूप परमेश्वर का चिन्तन करना चाहिये। 

इसी प्रकार ओम् को धनुष, आत्मा को बाण और ब्रह्म को लक्ष्य बताने वाली मुण्डकोपनिषद् की ऋचा में कहा गया है-

प्रणवों धनु: शरों ब्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। 

अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तनन्मयों भवेत्।। (मुण्डकोपनिषद् 2/4)

ओम् ब्रह्म है। ओम् ही सब कुछ है ओम् के द्वारा ही सम्पूर्ण सृष्टि के क्रिया कलाप है। ओम् ही भूत, वर्तमान और भविष्यत है। इस ओम् का ही जाप और अर्थ का चिन्तन करना चाहिए। इससे ही साक्षात्कार होता है तथा साधना मार्ग में आने वाले समस्त विध्न दूर हो जाते हैं। योगदर्शन में कहा है-

ततः प्रत्यक्चेतनाचिगमोऽप्यन्तरायाभावश्व। (योगसूत्र-1/29)

ईश्वर प्रणिधान के द्वारा साधक की समस्त जिम्मेदारियाँ वह परमेश्वर खुद अपने ऊपर ले लेता है तथा शीघ्र समाधि लाभ करा देता है। इससे स्पष्ट होता है कि महर्षि पतंजलि ने ईश्वर को विशेष प्रकार का पुरुष कहा है जो क्लेश, कर्म, विपाक आदि से अछूता रहता है। ईश्वर स्वभाव से पूर्ण और अनन्त है। उसकी शक्ति सीमित नहीं है। ईश्वर नित्य है। वह अनादि और अनन्त है। वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वह त्रिगुणातीत है। ईश्वर जीवों से भिन्न है। जीव में अविद्या, राग, द्वेष आदि का निवास है। परन्तु ईश्वर इन सबों से रहित है। जीव कर्म-नियम के अधीन है, जबकि ईश्वर कर्म-नियम से स्वतन्त्र है। ईश्वर मुक्तात्मा से भिन्न है। मुक्तात्मा पहले बन्धन में रहते हैं, फिर बाद में मुक्त हो जाते है। इसके विपरीत ईश्वर नित्य मुक्त है।

ईश्वर एक है। यदि ईश्वर को अनेक माना जाय तो दो ही सम्भावनाएं हो सकती है। पहली सम्भावना यह है कि अनेक ईश्वर एक दूसरे को सीमित करते है जिसके फलस्वरूप ईश्वर का विचार खंडित हो जाता है। यदि ईश्वर को अनेक माना जाए तो दूसरी सम्भावना यह होगी कि जो ईश्वर एक से अधिक है, वे अनावश्यक होंगे जिसके फलस्वरूप अनीश्वरवाद का प्रादुर्भाव होगा। अतः योग को एकेश्वरवादी दर्शन कहा गया है।

जगत् का सृष्टिकर्ता ईश्वर ही है। इस विषय पर विचार करने पर निरीश्वरवादियों की उक्त मान्यता अविचारित रमणीय प्रतीत होती है। निरीश्वरवादियों के अनुसार पुरुष की सन्निधि मात्र से प्रकृति ही संसार की रचना करने में समर्थ है। किन्तु प्रश्न यह है कि जड़ प्रकृति संसार की रचना करने में स्वतः कैसे प्रवृतत हो सकती है जैसे लोक में चेतन सारथी की प्रेरणा से ही रथ की गति सम्भव है, वैसे ही चेतन ईश्वर की प्रेरणा के बिना जड़ प्रकृति भी जगत् की रचना करने में प्रवृत्त नहीं हो सकती है। अतः प्रकृति के प्रेरक के रूप में सृष्टि के प्रति निमित्त कारण ईश्वर को अवश्य ही स्वीकार करना चाहिए।  

ईश्वर के नाम, अंग तथा अव्यय- 

ईश्वर का कोई नाम या रूप नहीं होता, फिर भी उपासना की सुविधा के लिए उसका नाम और रूपों की कल्पना करनी पड़ती है। परमेश्वर के जितने भी नाम तथा रूपों की कल्पना की गई है, वह वस्तुतः उसके विशेषणों के आधार पर है। वास्तव में ईश्वर को कोई एक नाम नहीं दिया जा सकता। अतः उसकी विशेषताओं के आधार पर ही उसे श्रीविष्णु, शिव, कृष्ण, वासुदेव, शंकर आदि नाम से पुकारा जाता है। व्यासभाष्य में कहा गया है-

तस्य संज्ञादिविशेषप्रतिपत्तिरागमतः बोध्या। (व्यासभाष्य 1/25)

ईश्वर के कल्पित नाम व रूपों की कल्पना करना साधक के लिये आवश्यक है। ईश्वर की उपलब्धि हो जाने के पश्चात् तो नाम और रूप स्वतः ही दूर हो जाते है। समाधि की सिद्धि होने पर इनकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती किन्तु जब तक समाधि लाभ नहीं होता तब तक आगमों ने ईश्वर के विभिन्न नाम रुपों की कल्पना का निर्देश किया है। वायु पुराण में ईश्वर के विभिन्न नामों के अनुरूप उसके छः अंग और दस अवयवों का निर्देश किया गया है- 

सर्वज्ञता तृप्तिरनादिबोधः, स्वतन्त्रता नित्यमलुप्तशक्ति:। 

अनन्यशक्तिश्च विभोर्विधज्ञा: षडाहुरंगानि महेश्वरस्य।।  (वायुपुराण 12/31)

अर्थात : विद्वान ने ईश्वर के छः अंग बतलाये हैं सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिज्ञान, स्वतन्त्रता, चेतनता तथा अनन्य शक्ति। इन्ही छः अंगों से ईश्वर अंगी अर्थात परिपूर्ण होता है।
इनके अतिरिक्त दस अव्यय हैं- ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, तप, सत्य, क्षमा, धृति, सृष्दृत्व, आत्मसम्बोध तथा अधिष्ठातृत्व।

ईश्वरप्रणिधान से शीघ्र समाधि लाभ हो जाता है। ऐसा योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि ने कहा है। वह ईश्वरप्रणिधान कैसे किया जाता है इस प्रश्न के समाधान के लिए कहते है कि ईश्वर के नाम का जप करने से ईश्वर भक्तों पर अनुग्रह करता है। ईश्वर का मुख्य वाचक नाम ओम् (प्रणव) है। ओंकार को प्रणव कहा जाता है। सूत्रकार ने ओंकार शब्द नहीं कहा, अपितु प्रणव कहा है। वस्तुतः प्रणव ओंकार का विशेषण है। “प्र” उपसर्ग पूर्वक '“नु' धातु से प्रणव शब्द बना है। क्योंकि ओम् शब्द के द्वारा परमेश्वर की स्तुति की जाती है, इसलिये ओम् को प्रणव कहा जाता है। 'अवति इति ओम्' अर्थात सबका रक्षक ओम् कहलाता है। श्रुति, स्मृति, पुराणादि में परमेश्वर का मुख्य वाचक ऊँ ही है। अतः शीघ्र समाधि लाभ के लिए ऊँकार का जप तथा ईश्वर भावना करनी चाहिए।

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कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम मेरे

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के पश्चात जालन्धरबन्ध ख

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म