Skip to main content

कैवल्य का स्वरूप

 कैवल्य की अवधारणा-

भारतीय दर्शन की समस्त शाखाओं में दुःखों की निवृत्ति और परमानन्द प्राप्ति को मोक्ष कहा गया है। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने इसी मोक्ष को स्वरूपावस्थान या कैवल्य कहा हैबौद्धों के मत में यही मोक्ष 'निर्वाण” पद से जाना  जाता है। जैन इसी मोक्ष को 'आर्हती दशा' कहते हैंन्याय दर्शन मे “अपवर्ग“वैशेषिक दर्शन ने मोक्ष को “नि:श्रेयस' कहा है। सांख्य दर्शन इसी कैवल्य (मोक्ष) को 'सत्वपुरुषान्यताख्याति' या 'प्रकृतिवियोग” के नाम से कहता हैं। मीमांसक 'प्रपंचसम्बन्धविलय' कहते हैं तो वेदान्त में इसी का नाम 'ब्रह्मपदावाप्ति' है।

जन्मजन्मान्तरों के संस्कारों के फलस्वरूप सुख दुःखादि का भोग करते हुए आत्मा को कष्ट की अनुभूति होती है। इसी कष्ट से मुक्ति प्राप्त करना उसका उद्देश्य है।

चार्वाक दर्शन ने मोक्ष की सत्ता और उपयोगिता को स्वीकार किया है। उनके अनुसार देह ही आत्मा है। अतः देह का विनाश ही मोक्ष है। यह मोक्ष शाश्वत है क्योंकि पुनर्जन्म की प्राप्ति नहीं होती। चार्वाक दर्शन में कहा गया है-

यावज्जीवेत्सुखं जीवत्‌ ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत। 

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। (सर्वदर्शनसंग्रह पृ. -24)

बौद्ध दार्शनिक त्रिविध दुःख स्वीकार करते हैं दुःख दुःखता, संस्कार दुःखता व परिणाम दुःखता। इन त्रिविध दुःखों से सम्पूर्ण मुक्ति ही मोक्ष या निर्वाण है। यह निर्वाण निषेधात्मक है, विध्यात्मक नही। जैसे दीपक का निर्वाण निषेधात्मक होता है। विशेषतः शून्यवादियों की यही मान्यता है- माध्यमिका वृत्ति (चन्द्रकीर्ति) यह निर्वाण प्रह्मण, प्राप्ति, उच्छेद, निषेध और उत्पत्ति से रहित माना गया है। क्योंकि अभावरूप है और सब कुछ क्षणिक है।


न्यायदर्शन में मोक्ष को अपवर्ग कहा गया है। यह अपवर्ग दुःखों का अत्यन्त अभाव रूप है

सा आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिरपवर्ग: (सर्वदर्शनसंग्रह पृ. -491)

तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग: (न्यायसूत्र 1/1/22)

दुःखों का प्रधान कारण जन्म है। जन्म सकाम कर्मों में प्रवृत्ति से होता है। प्रवृत्ति दोषवशात् होती है और दोषों का कारण है मिथ्याज्ञान। प्रमाणादि षोडश पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होकर मोक्ष का अधिगम होता है।

वैशेषिक दर्शन में भी कैवल्य का स्वरूप न्याय के समान ही माना गया है। दोनों ही समान तन्त्र कहे जाते हैं। यहाँ कैवल्य मोक्ष को परम पुरुषार्थ कहा गया है तथा उसकी शास्त्रीय संज्ञा “निःश्रेयस' दी गई है 

दुःखात्यन्तोच्छेदापरपर्यायनि:श्रयेसरूपत्वेन परमपुरुषार्थत्वात्  - (सर्वदर्शनसंग्रह पृ.- 447) 

यह भी दुःखों का अभाव रूप है। जैसे अग्नि ईंधन को जलाकर शान्त हो जाती है, कुछ भी शेष नहीं रहता। इसी प्रकार दुःखो का नाश हो जाना कैवल्य है। कैवल्य में सुख नहीं होता।

मीमांसा के अनुसार जीवात्मा के साथ जगत् प्रेम के सम्बन्ध के विलय को मोक्ष कहा जाता है। मीमांसा जीव और जगत दोनों को नित्य मानता हैं। जगत् का प्रलय यहाँ अमान्य है। अतः जगत का विलय तो हो नहीं सकता। केवल प्रपंच के साथ जीव के सम्बन्ध का लय होता है- 

प्रपंचसम्बन्धविलयो मोक्षः  (मीमांसादर्शन;शास्त्रदीपिका, पृ.-358)


आचार्य रामानुज ने भगवान् श्रीहरि के दासत्व की प्राप्ति को ही कैवल्य कहा है। कैवल्य अवस्था में जीवात्मा भगवान का किंकर बनकर वैकुण्ठ में भगवान के चरणों में निवास करता है 

श्रीवैकुण्ठमुपेत्य नित्यमजड़ं तस्मिन् परब्रह्मण:। 

सायुज्यं समवाप्य नन्दति समं तेनैवधन्यः पुमान।

वह ब्रह्म के साथ मिलकर अभिन्न नहीं हो जाता। वह सदा ब्रह्म से पृथक ही रहता है। मोक्ष दशा में विशेष आनन्द कैवल्य का फल है। जीव स्वरूप से नित्य है। ध्रुवानुस्मृति रूप भक्ति ही मोक्ष का साधन है।

आचार्य निम्बार्क के मत में मुक्ति (कैवल्य) का अर्थ ब्रह्मलोक की प्राप्ति है। मुक्ति का एकमात्र साधन भक्ति है। भक्ति का अर्थ है शरणागति या परा- प्रपत्ति। परा प्रपप्ति में भगवान की अनुकूलता का संकल्प लेना, प्रतिकूलता का वर्जन करना, “भगवान ही रक्षा करेंगे' ऐसा विश्वास करना तथा ईश्वर के रक्षकत्व रूप महिमा का वर्णन किया जाता है। भगवान भक्त के कार्पण्य भाव से प्रसन्न होते हैं। प्रसन्न हुए भगवान भक्त को स्वकीय धाम प्रदान करते हैं।

स्वामी दयानन्द दुःखों से मुक्त होने को कैवल्य कहते हैं -जिसका दूसरा नाम मुक्ति भी है

“मु चन्ति पृथग्भवन्ति जनाः यस्यां सा मुक्ति:“ (सत्यार्थ प्रकाश नवम समुल्लास )

मुक्ति की यही सीधी सी परिभाषा है। यह जीवनकाल में भी हो सकती है और मृत्यु काल के बाद भी। जैसे लोक में मनुष्य औषधि आदि का सेवन करके कुछ काल तक रोगों से मुक्त रहता है, वैसे ही उपासना, सत्कर्म आदि के अनुष्ठान से जन्म मरण के चक्र का कुछ कालपर्यन्त निरुद्ध हो जाना मोक्ष है। वे मुक्ति का एक सीमित काल मानते हैं, आत्यन्तिक मुक्ति नहीं। आत्यन्तिक शब्द का वे अत्यधिक अर्थ करते हैं (सत्यार्थ प्रकाश )। महर्षि का कथन है कि अल्पज्ञ और अल्पशक्ति युक्त जीवात्मा का इतना सामर्थ्य नहीं हो सकता कि वह त्रिविध दुःखों से शाश्वत मुक्ति प्राप्त कर सके।
स्वामी दयानन्द जी के अनुसार ”परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्य भाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति, पुरुषार्थ और उपासना अर्थात योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सबसे उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करें, वह सब पक्षपातरहित न्याय धर्मानुसार ही करें। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वर आज्ञा भंग करने आदि काम से बन्धन होता है। (सत्यार्थ प्रकाश) । इसके अतिरिक्त कैवल्य की प्राप्ति के लिए साधनचतुष्टय, अनुबन्ध चतुष्टय, श्रवणचतुष्टय, मैत्री करूणा आदि भावनाचतुष्टय को मुक्ति का साधन स्वीकार किया है।

सांख्य दर्शन के मतानुसार प्रकृति और पुरुष का संयोग ही बन्धन है, जिसे संसार कहा जाता है। तत्वज्ञान से इन दोनों का वियुक्त हो जाना ही मोक्ष है

पुंप्रकृत्योर्वियोगोऽपि योग इत्यभिधीयते।

पुरुष और प्रकृति का संयोग अंधे व लंगड़े के समान है। इस मत के अनुसार बन्धन व मोक्ष प्रकृति का ही होता है, पुरुष में तो उसका उपचार ही होता है। प्रकृति कार्य महत्व के आठ धर्म हैं धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य-अवैराग्य तथा ऐश्वर्य -नैश्वर्य। इनमें से सात रूपों से तो प्रकृति पुरुष को बाँधती और एक रूप से अर्थात ज्ञान से छोड़ती है

रुपैः सप्भिरेव तु बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृति:। 

सैव च पुरुषार्थ प्रति विमोचयत्येकरूपेण।।  (सां.का.63)

योगदर्शन के अनुसार आत्मा का स्वरूप में अवस्थान ही कैवल्य कहलाता है तथा मोक्ष की शास्त्रीय संज्ञा ही कैवल्य है। मोक्षावस्था में जीवात्मा निजस्वरूप में अवस्थित होता है, यह स्वरूपावस्थान ही कैवल्य है

तदा द्रष्ट: स्वरूपेऽवस्थानम्   (योगसूत्र 1/3)

शान्त, घोर तथा मूढधर्मों से रहित निर्विषय चैतन्यमात्र ही पुरुष का स्वरूप है। जैसे धूल मिट्टी के हट जाने पर स्फटिक मणि या दर्पण अपने स्वच्छ शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है, वैसे ही वृत्ति के हट जाने पर वृत्तियों के प्रतिबिम्ब से रहित पुरुष अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है।

प्रकृति और चित्त त्रिगुणात्मक हैं। त्रिगुणात्मक प्रकृति के दो ही प्रयोजन हैं. पुरुष के लिए भोग व अपवर्ग देना। जब दोनों प्रयोजन पूर्ण हो जाते हैं, तो वह निवृत्त हो जाती है। त्रिगुणात्मक होने से शान्त, घोर तथा मूढरूप है। उसके साथ पुरुष को तादात्म्य का अभिमान होने से पुरुष में भी औपाधिक शान्त, घोर और मूढरूप धर्म भासने लगते हैं। जब वृत्तिसहित चित्त अपने कारणरूप प्रकृति में लीन हो जाता है तो पुरुष में जो शान्त, घोरादि धर्म भासते थे, वे नहीं भासते। पुरुष का यह स्वरूप में अवस्थित होना ही कैवल्य की दशा कहलाती है। तत्वज्ञान चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग से साध्य है। यह योग अभ्यास और वैराग्य रूप है। क्रियायोग, अष्टांगयोग और ईश्वर प्रणिधानरूप भक्तियोग भी कैवल्य प्राप्ति के अन्य साधन हैं। 

बन्धन और मोक्ष

योगदर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष का संयोग ही बन्धन है और इन दोनों का वियोग ही मोक्ष है। प्रकृति और पुरुष का संयोग अनादि है। यह संयोग अविद्या के कारण होता है। जब विवेकज्ञान से अविद्या का अभाव हो जाता है। तो प्रकृति और पुरुष के संयोग का भी अभाव हो जाता है। यही मोक्ष या कैवल्य है।

प्रकृति के दो प्रयोजन हैं भोग और मोक्ष। बुद्धि से प्रकृति सर्वप्रथम पुरुष के लिये भोग प्रदान करती है और पुनः मोक्ष प्रदान करती है। जब उसके ये दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं तो प्रकृति पुरुष का साथ छोड़ देती है। चित्त भी अपने कारण रूप प्रकृति में लीन हो जाता है। योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि ने कहा है-

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।। (योगसूत्र 4/34)

अर्थात बुद्धि आदि के रूप में परिणत गुणों का जब भोग और अपवर्ग रूप प्रयोजन सिद्ध हो जाता है तो वे अपने अपने कारणों में लीन हो जाते हैं। यह प्रकृति का कैवल्य है। चितिशक्ति पुरुष वृत्तिसारूप्य की निवृत्ति होने पर स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। यह पुरुष का कैवल्य है।
इस प्रकार कैवल्य दो प्रकार का हुआ गुणों का प्रकृति में लय होना और पुरुष का स्वरूप में अवस्थित होना। प्रथम मोक्ष प्रकृति को होता है और दूसरा मोक्ष पुरुष को होता है। प्रकृति पुरुषार्थ से मुक्त हो गयी और पुरुष गुणों से मुक्त हुआ। चितिशक्ति रूप पुरुष का सर्वदा उसी प्रकार से अवस्थित रहना ही पुरुष का कैवल्य है।

कैवल्य के भेद-

कैवल्य या मुक्ति दो प्रकार की है जीवन- मुक्ति तथा विदेह-मुक्ति या आत्यन्तिक मुक्ति। जीवनकाल में तत्वज्ञान होने पर पुरुष का जो स्वरूपावस्थान होता है, वह जीवन-मुक्ति है और मृत्यु के पश्चात देहपात होने पर विदेहमुक्ति होती है। तत्वज्ञान होने पर भी आयु के शेष रहते हुए शरीर संस्कारवश चलता रहता है वह काल जीवन- मुक्तिकाल कहलाता है। उस काल में योगी जो कर्म करता है, वे कर्म न तो शुक्ल होते हैं और न कृष्ण। क्योंकि उन कर्मों से संस्कार नहीं बनते। संस्कार उन्हीं कर्मों से बनते हैं जिनके साथ मन का सम्बन्ध होता है। योगी के कर्म मन से नहीं किये जाते, वे तो पूर्व अभ्यास के कारण स्वचालित यन्त्र के समान स्वयंमेव होते रहते हैं। जैसे कुम्भकार का चक्र दण्ड हटा लेने पर भी पूर्वगति के संस्कार के कारण कुछ देर तक चलता रहता है। गति का संस्कार समाप्त होते ही चक्र स्वयंमेव रुक जाता है। जीवन-मुक्त पुरुष की भी यही दशा है। वह भी पूर्व संस्कारवश देह से जीवित रहता है। आयु समाप्त होते ही वह विदेहमुक्त हो जाता है। और वह फिर जन्म-मरण के चक्ररूप इस संसार में फिर नहीं आता।

कैवल्य प्राप्ति के उपाय-

मोक्ष (कैवल्य) प्राप्ति के उपाय हेतु उपनिषदों में ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों साधनों के साथ साथ योग को स्वीकार किया गया है। इन्हीं में से वेदान्तियों ने मात्र ज्ञान को, वैष्णवाचार्यों ने भक्ति को, मीमांसकों ने कर्म को तथा योगियों ने योग का चयन किया है।

उपनिषदों में केवल ज्ञान या केवल कर्म को मोक्ष के साधन के रूप में स्वीकार नहीं माना है, इसके अनेक प्रमाण उपनिषदों में प्राप्त होते हैं कर्मानुष्ठान द्वारा मृत्यु को पार करके ज्ञानानुष्ठान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मानी गई है। प्रणव उपासना व तप को भी साधन रूप में स्वीकार किया है। अन्यत्र शरणागति रूप भक्ति को मोक्ष का उपाय स्वीकार किया गया है। इस प्रकार ज्ञान, कर्म और भक्ति को कैवल्य का साधन स्वीकार किया गया है। केवल ज्ञान अथवा केवल कर्म अथवा उपासना ही इसके लिए पर्याप्त नहीं हैं। योगतत्व को मोक्षोपाय स्वीकार करके उपनिषदों में यहाँ तक कहा है कि योगाग्निमय शरीर वाले साधक को जन्म, मृत्यु और जरा नहीं सताते-

न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु प्राप्तस्य यौगाग्निमयं शरीरम्  (श्वेताश्वतरोपनिषद् 2/12)

अतः योग द्वारा अमरत्व प्राप्ति सम्भव है। योग की अन्तिम अवस्था समाधि है। इसके उपरान्त साधक अविद्या आदि पंचक्लेशों से छूटकर संस्कारों को दग्धबीज कर देता है। जिससे संस्कार शेष नहीं रहते और जन्म आयु रूपी फल प्रदान करने में असमर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार योग साधना द्वारा साधक जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर आनन्द प्राप्त कर लेता है। योगाभ्यासी साधक अष्टांगयोग, क्रियायोग, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा उस कैवल्यावस्था को प्राप्त कर लेता है, जहाँ जाकर उसे परमसुख की उपलब्धि होती है। उसे कल्पान्त तक मोक्षानन्द भोग का सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है।

असम्प्रज्ञातसमाधि मे प्राप्त सत्वपुरुषान्यताख्यातिरूप विवेकज्ञान ही कैवल्य का एकमात्र उपाय है। यद्यपि अविद्या की निवृत्ति ही मोक्ष का हेतु है किन्तु अविद्या की निवृत्ति विवेकज्ञान द्वारा होती है। अतः विवेकज्ञान ही कैवल्य का उपाय है। महर्षि पतंजलि ने कहा है-

विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः। (योगसूत्र 2/26)

अर्थात मिथ्याज्ञान रूप विप्लव से रहित विवेकख्याति ही अविद्या की निवृत्ति का तथा कैवल्य का हेतु है। शास्त्रजन्य ज्ञान से अविद्या की निवृत्ति नही होती क्योंकि वह परोक्ष ज्ञान है। विवेकख्याति अपरोक्ष ज्ञान है। इसी से अविद्या की निवृत्ति होती है। इस अवस्था को उपनिषद में कहा गया है कि सत्व, रज और तम रूप त्रिगुणात्मक प्रकृति अजन्मा है। यह त्रिगुणात्मक प्रजाओं को उत्पन्न करती है। उस प्रकृति को एक अजन्मा बद्धपुरुष तो भोगता हुआ अनुताप करता है और दूसरा अजन्मा मुक्तपुरुष भोग ओर मोक्ष देकर कृतकार्य हुई प्रकृति को छोड़ देता है।

योग की परिभाषा


Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim) 1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं न...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सु...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम ...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थ...

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म...

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके त...