Skip to main content

नाड़ी - मानव शरीर में वर्णित नाड़ी

नाड़ी-     (Theory of the nadis in yoga)

भारतीय चिन्तन में सत्य की खोज, मानव कल्याण और मोक्ष की प्राप्ति मुख्य लक्ष्य रहा है। मानव जीवन में ही व्यक्ति योग साधना कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। योग साधना का आधार मानव शरीर है। योगिक दृष्टि से मानव शरीर में नाड़ी, चक्र तथा कुण्डलिनी शक्ति योग साधना का आधार है।

प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि मुनियों ने अपने ज्ञान द्वारा प्राणशक्ति का उत्थान किया तथा वे प्राणशक्ति को जाग्रत कर चेतना को विकसित किया करते थे। आज मानव ने अणु को भी तोड़कर परमाणु ऊर्जा हासिल कर ली है। ठीक इसी तरह अगर वह चाहे तो अपने भीतर छिपी ऊर्जा के विशाल भण्डार को जाग्रत कर अपने जीवन को उत्कृष्ट कर सकता है। हमारे ऋषि मुनि प्राचीन काल से ही यह कार्य यौगिक तकनीकों से किया करते थे, और ऊर्जा का उत्पादन बाह्य साधनों से न करके अपने शरीर और मन के भीतर ही किया करते थे।

 जिस प्रकार ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जल और वाष्प ऊर्जा केन्द्रों की प्रणाली व्यवस्थित की जाती है ऊपर से जल को गिराकर उसके दवाब के फलस्वरूप नीचे टरबाइन घूमती है, उससे उत्पन्न ताप की सहायता से विधुत निर्माण कर ऊर्जा को संग्राहकों में संचित कर लिया जाता है। उसी प्रकार मानव शरीर में प्राण संचालन का तंत्र जाल फैला है। इस मानव शरीर में श्वास प्रश्वास द्वारा शरीर में प्राण ऊर्जा के क्षेत्र आवेशित होते है। ऊर्जा उत्पादन में हमारी श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया अहम भूमिका निभाती हैं। श्वास प्रश्वास द्वारा उत्पादित ऊर्जा को ऊर्जा संग्राहकों, जिन्हें योग की भाषा में चक्र कहा जाता है, में दिशान्तरित कर दिया जाता है।

ऊर्जा संचयन के पश्चात ऊर्जा को विद्युत उत्पादन केन्द्रों से तारो द्वारा उप केन्द्रों को भेजी जाती है। फिर ट्रांसफार्म के द्वारा उनका वोल्टेज घटाकर उसे अलग अलग कार्यों में प्रयुक्त किया जाता है। यही सिद्धान्त भौतिक शरीर और मन द्वारा ऊर्जा उत्पादन पर भी लागू होता है। इनमें बस अन्तर यह है कि बाहर की ऊर्जा विशेष तारों द्वारा तथा यह कार्य नाडियों द्वारा सम्पन्न होता है। नाडियां संवेदनाओं एवं प्राण को प्रवाहित करती है। स्थूल शरीर में इन्हें नर्व के रूप में, जाना जा सकता है जो रक्त प्रवाह में सहायक होती है। परन्तु योग में जो नाडियाँ वर्णित है उन्हें नग्न ओंखों से नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि वे अति सूक्ष्म होती है और उनमें सूक्ष्म प्राण शक्ति ही प्रवाहित होती है।

नाड़ी शब्द का अर्थ-  नाड़ी शब्द की व्युत्पप्ति संस्कृत के नाड् शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है प्रवाह। सूक्ष्म ध्वनि कम्पनों को भी नाद कहा जाता है। इस तरह नाडियां ध्वनि की सूक्ष्म कम्पनों का प्रवाह होती है। 

उपनिषद में वर्णन है कि समूचे शरीर में नाडियों का विस्तार सिर से लेकर पैर के तलवों तक पाया जाता है। ये नाडियाँ जीवनदायिनी श्वास द्वारा ऊर्जा को पूरे शरीर में प्रवाहित करती है। नाडियां समस्त प्राणी मात्र के जीवन का आधार तथा आत्मशक्ति का स्रोत है। छांन्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर में नाड़ी जाल की अत्यन्त सूक्ष्म रचना होती है। ये नाडियाँ संवेदनाओं, प्राण उद्वेगों आदि को सतत प्रवाहित करती रहती है।  

नाडियों की संख्या- हमारे शरीर में स्थित नाड़ी जाल बहुत विस्तृत है। शास्त्रों के अनुसार शरीर में 72000 नाडियां स्थित है। परन्तु योग विषयक ग्रन्थों में इसकी संख्या में मतभेद पाया जाता है। शिव संहिता के अनुसार हमारे नाभि क्षेत्र से साढ़े तीन लाख नाडियाँ निकलती है।

प्रमुख नाडियाँ - जिस प्रकार किसी भी विद्युत धारा मण्डल (सर्किट) के विद्युत परिचालन के लिए तीन तार (धनात्मक, ऋणात्मक तथा उदासीन) की आवश्यकता पड़ती है। ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में ऊर्जा संचार की व्यवस्था का यह कार्य तीन विशेष नाडियों द्वारा होता है। यह तीन नाडियाँ है इड़ा पिंगला तथा सुषुम्ना योग में इड़ा को ऋणात्मक धारा प्रवाह के रूप में जो कि गत्यात्मक शारीरिक शक्ति कही जाती है। 

जिस प्रकार घरों में विपरीत धाराओं के शार्ट सर्किट से बचने के उद्देश्य से एक भूधृत अर्थिंग तार डाला जाता है जिसका एक सिरा भूमि में गड़ा होता है। इसी प्रकार हमारे शरीर में भी इड़ा तथा पिंगला नाड़ी के शार्ट सर्किट को टालने के उद्देश्य से एक उदासीन अथवा तटस्थ नाड़ी होती है। जिसका एक सिरा मूलाधार में स्थित होता है। इसी को सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। सुषुम्ना नाड़ी का वास्तविक प्रयोजन आध्यात्मिक शक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करना होता है। 

शिव संहिता के अनुसार -

सुषुम्णेडा पिग्डला च गान्धारी हस्तिजिव्हिका। 

कुहु: सरस्वती पूषा शडिवनी च पयस्विनी। 

वारुण्यलम्बुषा चैव विव्श्रोदरी यशस्विनी। 

एतासु तिस्त्रों मुख्यास्स्यु: पिग्डलेडासुषुम्णिका।। (शिवसंहिता द्वितीय पटल -14 15)

अर्थात सुषुम्ना, इड़ा, पिंगला, गंधारी, हस्तिजिव्हा, कुहु, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनि, वरूणी, अलम्बुषा, विश्वोदरा और यशस्विनी। इनमें भी तीन मुख्य है इड़ा पिंगला तथा सुषुम्ना। 

वशिष्ट संहिता के अनुसार चौदह नाडिया है- 

नाड़ीनामपि सर्वासां मुख्यां: पुत्र चतुदर्श।। (वशिष्ट संहिता 2-20)

अर्थात हे पुत्र सभी नाडियों में 14 नाडियाँ मुख्य हैं। इन 14 नाडियों के नाम इस प्रकार हैं- 1. इड़ा 2. पिंगला 3. सुषुम्ना 4. गांधारी 5. हस्तिजिव्हा 6. कुहु  7. सरस्वती  8. पूषा  9. शंखिनी 10. पयस्विनी 11. वारूणी  12.अलंबुषा  13.विश्वोदरा 14. यशस्विनी

इन चौदह नाडियों में से तीन नाडियाँ प्रमुख है- 1. इड़ा 2. पिंगला 3. सुषुम्ना 

1. इड़ा नाड़ी-  वायी नासिका द्वारा प्रवाहित होने वाली नाड़ी इड़ा है, जो शीतलता का प्रतीक है। इसके कई अन्य नाम है जैसे चन्द्र, शीत, कफ, अपान, रात्रि, जीव, शक्ति, तामस आदि।

शरीर विज्ञान की दृष्टि से इंड़ा नाड़ी का सम्बन्ध हमारे परानुकम्पी तंत्रिकातंत्र से होता है। इससे हमारे अंगों (कंठ, नाभि के बीच स्थित अंगों) हृदय, फफड़ों तथा पाचन संस्थानों को प्रेरणा जाती है, जिससे मांसपेशियों में शिथिलीकरण होने से तापमान में गिरावट आती है। इसलिए इस नाड़ी की प्रकृति, चित्त को अर्न्तमुखी बनाने वाली तथा शीतल मानी जाती है।

इड़ा नाड़ी का उदगम स्थान रीढ़ की हडडी का अधोभाग 'मूलाधार चक्र' माना जाता है, तथा इसका अन्तशीर्ष आज्ञा चक्र' माना जाता है। इड़ानाडी मूलाधार से बलखाती हुई किसी को स्पर्श किये बिना सभी चक्रों (स्वाधिष्ठान, मणिपुर अनाहत और विशुद्धि) को पार करते हुए ऊपर आज्ञाचक में पहुच कर विलीन हो जाती है।

इडा के प्रवाहित होने से मस्तिष्क का दाया भाग क्रियाशील होता है। इड़ा सुषुम्ना की उपनाड़ी है तथा मनस शक्ति या चन्द्र शक्ति की प्रदायिनी है। इसका रंग नीला होता है।

2. पिंगला नाड़ी- इसका प्रवाह हमारी दायीं नासिका द्वारा होता है। प्राण शक्ति प्रावाहिनी पिंगला नाड़ी को माना जाता है। क्योंकि यह धनात्मक प्राण ऊर्जा को प्रवाहित करती है। प्राण शक्ति की ऊर्जा शरीर में जोश उत्पन्न करती है। इसलिए इसे सूर्य नाड़ी के नाम से जाना जाता है। यह चेतना को बहिर्मुखी भी बनाती है। और शरीर को स्फूर्ति तथा कठोर परिश्रम के लिए तैयार करती है।  पिंगला नाड़ी का सीधा संबंध हमारे शरीर में मेरूदण्ड की दाहिनी ओर स्थित अनुकम्पी नाड़ी संस्थान से होता है। यह शरीर में हृदय की धड़कन तेज कर अतिरिक्त ताप उत्पन्न करती है। इसलिए कहा जाता है कि पिंगला नाड़ी शक्ति तथा उष्णता बढ़ाती है तथा चित्त को बहिर्मुखी बनाने वाली होती है। पिंगला नाड़ी (दाई नासिका) का ताप बायी नासिका इड़ा नाड़ी से अधिक होता है। यह पुरानी यौगिक पद्धति को सिद्ध करता है, इसको कई नामों से जाना जाता है जैसे सूर्य, ग्रीष्म, पित्त, प्राण, ब्रहम, राजस आदि।

मूलाधार चक्र के दाहिने पार्श्व से पिंगला का उदगम होता है यह हर चक्र को पार करते हुए लहराती हुई मेरूदण्ड के सहारे ऊपर उठती है। तथा दाहिने नासिका रन्ध्र के मूल में जहाँ आज्ञा चक्र है वहाँ समाप्त होती है। पिंगला नाड़ी मेरूदण्ड के दाहिने ओर समूचे शरीर को नियमित तथा नियन्त्रित करती है। पिंगला नाड़ी के प्रवाहित होने पर मस्तिष्क का बायाँ भाग क्रियाशील होता है। इस पिंगला नाड़ी का रंग लाल बताया जाता है। पिंगला नाड़ी द्वारा बाहरी शारीरिक कार्यो द्वारा उत्पन्न तनाव और थकावट व दबाव को सहने करने की क्षमता बढ़ाती है।

3. सुषुम्ना नाडी-  हमारा शरीर ऊर्जा प्रवाह के परिप्रेक्ष्य में दो भागों में विभक्त रहता है। धनात्मक तथा ऋणात्मक बलों तथा ऊर्जा प्रवाह के परस्पर खिचाव द्वारा ये भाग नियमित होते है। तीसरा पक्ष मध्य अक्ष जहाँ धनात्मक तथा ऋणात्मक ऊर्जा मिलती हैं। दोनों समान हो जाती है। वहाँ पर ऊर्जा तटस्थ होती है। जो उस अक्ष के ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर ऊर्जा प्रवाहित होती है। योग में इस मध्य अक्ष को सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है।

मेरूदण्ड के मूल से सुषुम्ना नाड़ी प्रारम्भ होती है, इसका मार्ग मेरूदण्ड में एक दम सीधा होता है। यह मार्ग में आने वाले सभी चक्रों को भेदते हुए आगे बढ़कर आज्ञाचक्र में इड़ा और पिंगल्रा से जा मिलती है। सुषुम्ना में अपार शक्ति का भण्डार छिपा पड़ा है। यह महत शक्ति ले जाने वाली नाड़ी है। जहाँ इड़ा और पिंगला स्थूल शक्ति का निर्माण करती है। वहीं सूक्ष्म शक्ति का निर्माण सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा होता है। सुषुम्ना में असीमित शक्तियों का भण्डार है।
सुषुम्ना जब जाग्रत अवस्था में होती है, तो पूरा मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता है। सुषुम्ना की शक्ति जिसे कुण्डलिनी के नाम से जाना जाता है। मूलाधार में स्थित होती है। जब इड़ा व पिंगला नाडी में प्राण एक साथ प्रवाहित होती है तब प्राण और चेतना का अंतर टूट जाता है, एक अवस्था समरूप हो जाती है, तब कुण्डलिनी स्वयं ही सुषुम्ना नाड़ी से आज्ञा चक्र में पहुँच जाती है।
सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ही समस्त ज़ानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में चेतना का संचार होता है। सुषुम्ना नाड़ी का दूसरा नाम ब्रहमनाड़ी भी है। इसका रंग चाँदी के समान होता है। 

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त प्रसादन के उपाय

Comments

Popular posts from this blog

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सुखपूर्वक बैठने को

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नोपनिषद्‌ के अनुसार, मनुष्य को विभिन्न लोकों में ले जाने का कार्य कौन करता है? (1) प्राण वायु (2) उदान वायु (3) व्यान वायु (4) समान वायु

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim) 1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं नाभी से नीचे के हिस्से पर अन्दर ध्य

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल भी

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थात ठकार हकार - का अर्थ

प्राणायाम का अर्थ एवं परिभाषायें, प्राणायामों का वर्गीकरण

प्राणायाम का अर्थ- (Meaning of pranayama) प्राणायाम शब्द, प्राण तथा आयाम दो शब्दों के जोडने से बनता है। प्राण जीवनी शक्ति है और आयाम उसका ठहराव या पड़ाव है। हमारे श्वास प्रश्वास की अनैच्छिक क्रिया निरन्तर अनवरत से चल रही है। इस अनैच्छिक क्रिया को अपने वश में करके ऐच्छिक बना लेने पर श्वास का पूरक करके कुम्भक करना और फिर इच्छानुसार रेचक करना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम शब्द दो शब्दों से बना है प्राण + आयाम। प्राण वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है। अगर प्राण शब्द का विवेचन करे तो प्राण शब्द (प्र+अन+अच) का अर्थ गति, कम्पन, गमन, प्रकृष्टता आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है।  छान्न्दोग्योपनिषद कहता है- 'प्राणो वा इदं सर्व भूतं॑ यदिदं किंच।' (3/15/4) प्राण वह तत्व है जिसके होने पर ही सबकी सत्ता है  'प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम। (प्रश्नेपनिषद 2/6) तथा प्राण के वश में ही सम्पूर्ण जगत है  “प्राणस्वेदं वशे सर्वम।? (प्रश्नोे. -2/13)  अथर्वद में कहा गया है- प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।  यो भूतः सर्वेश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्।॥ (अथर्ववेद 11-4-1) अर्थात उस प्राण को नमस्कार है, जिसके

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके ताजगी

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के पश्चात जालन्धरबन्ध ख

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम मेरे