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घेरण्ड संहिता में वर्णित षट्कर्म

1. धौति

 2. वस्ति

घेरण्ड संहिता में वर्णित वस्ति का फल सहित वर्णन-

वस्ति का अर्थ बड़ी आंत से होता है वस्ति क्रिया के अर्न्तगत बड़ी आंत को साफ किया जाता है इसलिए ये वस्ति क्रिया कहलाती है। महर्षि घेरण्ड ने वस्ति के दो भेद बताये है- (क) जल वस्ति (ख) स्थल वस्ति

(क) जल वस्ति- इसका अभ्यास जल में बैठकर किया जाता है। इसलिए इसे जल वस्ति कहते है।

नाभिमग्नजले प्रायुन्यस्तनालोत्कटासन:। 

आकुंचन प्रसारं च जल वस्तिं रामाचरेत्।। 

प्रमेहं च उदावर्त क्रूरवायुं निवारयते। 

भवेत्रवच्छन्ददेहश्च कामदेवसमो भेवत्।। घे0सं0

अर्थात, जल में नाभिपर्यन्त बैठकर उत्कट आसन लगाये और गुहा देश का आकुंचन प्रसारण करें यह जल वस्ति है। यह जल वस्ति कर्म प्रमेह, क्रूर वायु का निवारण कर शरीर को कामदेव के समान सुन्दर बना देता है।  

लाभ- आंतों के रोग एवं बवासीर के लिए लाभकारी अभ्यास है। इसके अभ्यास से शरीर में स्थित दूषित वायु से मुक्ति मिलती है। सूखे एक्जीमा में भी लाभ पहुंचाने वाली क्रिया है। आन्तरिक अंगों को स्वस्थ एवं मजबूत बनाती है।  

सावधानियाँ- इसका अभ्यास टब या टंकी में बैठकर न करे क्योंकि इस क्रिया में विषाक्त पदार्थ बाहर आते है। इसलिए इसका अभ्यास बहते पानी में ही करना चाहिए।

(ख) स्थल वस्ति- ये क्रिया जमीन पर बैठकर की जाती है इसलिए इसे स्थल वस्ति क्रिया कहते है महर्षि घेरण्ड ने इसे इस प्रकार परिभाषित किया है। 

पश्चिमोत्तानतो वस्तिं चालयित्वा शनै शनै:। 

अश्विनीमुद्रया पायुमाकुंयेत्प्रसारयेत्।।

एवमभ्यासयोगेन कोष्ठदोषो न विद्यते। 

बिवर्द्धयेज्जठराग्निमामवातं विनाशयेत्।। घे0सं0

अर्थात, पश्चिमोत्तान आसन में बैठकर नीचे के भाग वस्ति का परिचालन करें। अश्विनी मुद्रा के द्वारा गुदा का आकुंचन एवं प्रसारण करना चाहिए।  इसे स्थल वस्ति कहते है। इसके साधन से कोष्ठ के दोष एवं आमवात आदि रोगों का शमन और जठराग्नि का वर्धन होता है। 

लाभ- इसका अभ्यास बड़ी आंत को साफ करने के लिए किया जता है। वायु विकार, कब्ज, पित्त इत्यादि के लिए बेहद लाभकारी अभ्यास है। उदर के अंगों की मालिश होती है तथा वे स्वस्थ रहते है। 

सावधानियाँ- यह क्रिया हमेशा उचित गुरू के निर्देशन में ही करें।  उच्चरक्त चाप, पाचन सम्बन्धी गंभीर रोग और हार्निया के रोगी के लिए अभ्यास वर्जित है।  

3. नेति-

घेरण्ड संहिता में वर्णित नेति का फल सहित वर्णन-  

नेति क्रिया का सम्बन्ध नाक व गले से होता है इससे आन्तरिक नाडियां संवेदनशील बनती है। महर्षि घेरण्ड कहते है।

वितस्तिमानं सूक्ष्मसूत्र नासानाले प्रवेशयेत।

मुखान्निर्गमयेत्श्चात प्रोच्यते नेतिकर्मकम।

साधनान्नेतिकार्यस्य खेचरीसिद्धिमाप्नुयात् । 

कफदोषा विनश्यन्ति दिव्यदृष्टि: प्रजायते।। घे0 सं0

अर्थात- आधा हाथ लम्बा सूत्र (डोर) लेकर नासिका में घुसाये और मुख से बाहर निकाल दे। इसे नेति कर्म कहते है। इसका साधन करने से खेचरी की सिद्धि कफ दोषों की निवृत्ति और दिव्य दृष्टि की उपलब्धि होती है।
इस क्रिया में एक सूत्र का प्रयोग किया जाता है इसलिए इसे सूत्र नेति कहते है। हालाकि महर्षि घेरण्ड ने केवल सूत्रनेति का वर्णन किया है परन्तु वर्तमान में जल नेति, रबर नेति क्रिया भी करायी जाती है।

(क) जल नेति- इसमें जल द्वारा नासिका मार्ग का शुद्धिकरण किया जाता है। 

क्रियाविधि- एक नेति पोट (टोटीं वाला लोटा) ले लेकर। उकड़ूं बैठकर या बडे होकर सिर को आगे झुकाये। स्वच्छ जल शरीर के तापमान के बराबर जिसमें स्वादानुसार नमक डला हो उसे नेति पोट में भर लें। जो स्वर चल रहा हो उसमें नेति पोट के टोटी को घुसाये। मुँह खोल लिजिए तथा गर्दन को थोड़ा झुकायें। जल दूसरे नाक से स्वतः आने लगेगा। 20-25 सेकण्ड तक करें पुनः दूसरी नाक से इस क्रिया को दोहराये। नेति पोट वर्तमान में प्लास्टिक व तॉबे, पीतल का बना बाजार में उपलब्ध रहता है। 

(ख) रबर नेति- अर्थात कैथेडर द्वारा नासिका मार्ग की सफाई करने का रबर नेति कहते है।

क्रियाविधि- एक लम्बी, पतली रबर की ट्यूब (केैथेडर) को (जो अच्छी तरह उबली हो) ले लीजिए। खडे होकर बिना तनाव लिये जो स्वर चल रहा हो उस ट्यूब को धीरे-धीरे नासिका मार्ग में डाले। थोड़ी देर बाद रबर नेति (कैथेडर) का दूसरा सिरा गले तक पहुँच जायेगा। अंगूठा व तर्जनी अंगुली मुँह में डालकर गले से उसके दूसरे सिरे को पकड कर बाहर खींच लीजिए। थोडी देर दोनों छोरों को पकड़कर उसमें आगे-पीछे घर्षण करें। अन्त में धीरे-धीरे रबर नेति को बाहर निकाल दीजिए। पुनः इस प्रक्रिया को दूसरे नासाछिद्र में डालकर करें।

(ग) सूत्र नेति-  लगभग 10 इंच लम्बे 8-10 महीन सूती धागों में मोम लगाकर रस्सी की तरह बांट लीजिए एक हिस्से को लगभग 6 इंच मोम में डाल कर कडा होने दे। इस प्रकार सूत्र नेति बनाकर इस प्रक्रिया को किया जाता है। 

क्रियाविधि-  एक सूत्र नेति लेकर सावधानी पूर्वक जो स्वर चल रहा हो उसमें सूत्र नेति धीरे-धीरे डालते है। थोड़ी देर बाद सूत्र नेति का दूसरा सिरा गले तक पहुँच जायेगा। अंगूठा व तर्जनी अंगुली को मुँह में डालकर गले से उसके दूसरे सिरे को खीच लीजिए |थोड़ी देर सूत्र नेति के दोनों छोरों को पकड़कर घर्षण कीजिए। अन्त में मुँह से सूत्र नेति निकाल दीजिए पुनः दूसरे नाक से इस प्रक्रिया को दोहराये। वर्तमान में बाजार में सूत्र नेति बनाई हुए उपलब्ध रहती है। सभी प्रकार की नेति की लाभ व सावधानियाँ इस प्रकार है।

लाभ- नेति क्रिया का साइनस ग्रन्थि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। नाक से निकलने वाले श्लेष्मा का नियंत्रण करती है। श्वसन संस्थान के रोगों, साइनोसाइटिस, ब्रोकाइटिस, अस्थमा में लाभकारी है। दूर व निकट दृष्टि में अत्यन्त लाभकारी है। आँख, नाक व कानों के रोगों में लाभप्रद है । नासिका मार्ग में श्लेष्मा झिल्ली की मालिश होने से उसकी क्रियाशीलता बढ़ती है तथा रक्त का प्रभाव तेज होता है। नेति क्रिया से तनाव, चिन्ता, अवसाद के रोगियों को भी लाभ पहुँचता है। मस्तिष्क में गर्मी, उत्तेजना, मिर्गी की बीमारी में भी इसका सार्थक प्रभाव पड़ता है।

सावधानियाँ- नासिका मार्ग एक नाजुक अंग है, रबर या सूत्र नाक में नहीं जाये तो जबरदस्ती ना करे। रबर नेति या सूत्र नेति करने से पहले उसे साफ अवश्य कर लेना चाहिए। नेति करते समय हाथ स्वच्छ रहे तथा नाखुन कटे होने चाहिए। एक कुशल मार्गदर्शन में नेति का अभ्यास करें।

4. नौलि-

घेरण्ड संहिता में वर्णित नौलि का फल सहित वर्णन-   
 
नौलि शब्द की उत्पत्ति लोल शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है उत्तेजनापूर्वक इधर उधर घुमाना। महर्षि घेरण्ड के अनुसार उदर को दोनों पार्श्वो में अत्यन्त वेगपूर्वक घुमाना चाहिए। यह लौलिकी, अर्थात जठराग्नि का उद्धीपक है। भलई महर्षि घेरण्ड ने नौलि क्रिया की विधि में उदर को दोनों पार्श्वों में घुमाने की बात कही है. परन्तु अध्ययन की सुविधा के लिये नौलि को निम्न प्रकार समझना ठीक होगा।

(क) मध्यम नौलि- इस नौलि में सामान्य रूप से पेट की मॉसपेशियों को समेट कर कुछ देर सिकोड कर रखते है।
क्रियाविधि- दोनों पैरो में कन्धे की दूरी के बराबर जगह बनाये। दोनों हाथों को घुटने पर रखकर थोड़ा झुक जाये। पूरा श्वास का रेचक कीजिए। पेट को अन्दर की ओर खींच लीजिए। दोनों हाथों से घुटने पर हल्का दबाब डाले उदर की मांसपेशियाँ बीच में स्वतः आ जाय॑गी। यह मध्यम या सामान्य नौलि की एक आवृति है।

(ख) वाम नौलि- वाम अर्थात बायीं और उदरगत मॉसपेशियों के समूह को ले जाना वाम नौलि कहलाती है।
क्रियाविधि- दोनों पैरों में कन्धों की दूरी के बराबर जगह बनाये। दोनों हाथों को घुटनों या जांघों पर रखकर थोड़ा झुक जाइये। फिर उपरोक्त मध्यम नौलि कीजिए। उदर की दाहिनी मॉसपेशियों को ढ़ीला कर दीजिए। तदपश्चात्‌ उदर की बायीं ओर की मांसपेशियों को संकुचित करें। उदरगत मॉसपेशियों का पिण्डी बायी और स्वतः आ जायेगा। इसे वाम नौलि कहते है।

(ग) दक्षिण नौलि- दक्षिण अर्थात दाहिने ओर उदरगत मांसपेशियों के समूह को ले जाना दक्षिण नौलि कहलाता है।
क्रियाविधि- दोनों पैरों में कन्धों की दूरी के बराबर जगह बनाइये। दोनों हाथों की घुटनों पर या जंघाओं पर रख लीजिए। सामान्य नौलि की अवस्थाओ में आये। उदरगत बाये भाग की मांसपेशियों को अन्दर की ओर संकुचित करें। स्वतः मांसपेशियों का पिण्डी संकुचित होकर पेट के दाहिने ओर आ जायेगा। यह दक्षिण नौलि की एक आवृति है।

(घ) भ्रमर नौलि- जब उपरोक्त तीनों नौलि मध्यम, वाम व दक्षिण को एक साथ जोड़ देते है तो वह भ्रमर नौलि कहलाती है। इस नौलि की प्रक्रिया में गुरू के निर्देशानुसार 5-6 बार घड़ी की सुई की दिशा में व 5-6 बार उसकी विपरीत दिशा में उदरगत मांसपेशियों को घुमाते है। इसलिए इसे भ्रमर नौलि के नाम से जाना जाता है।
क्रियाविधि- सर्वप्रथम सामान्य (मध्यम) नौलि कीजिए। तद्पश्चात वाम नौलि कीजिए। फिर दक्षिण नौलि कीजिए। जब वेगपूर्वक उपरोक्त क्रिया करेंगे तो भ्रमर नौलि स्वतः ही होने लगेगी।
 
लाभ- नौलि क्रिया से कुण्डलीनी शक्ति जागृत होती है। उदरगत मांसपेशियों की क्रियाशीलता बढ़ती है तथा वहाँ रक्त का संचार तीव्र होता है। मणिपुर चक्र की जागृति होती है। तन्त्रिका तन्त्र के साथ-साथ शिराओं पर इस नौलि क्रिया का प्रभाव पड़ता है। रक्त परिसंचरण संस्थान पर इसका सार्थक प्रभाव पड़ता है। भूख बढ़ती है जठराग्नि तीव्र होती है। अग्नाशय पर इसका सार्थक प्रभाव पड़ता है इसलिए मधुमेह में भी लाभकारी है।
 
सावधानियाँ-
नौलि का अभ्यास अगर पेट में दर्द हो तो न करें। हार्निया, पथरी में यह अभ्यास वर्जित है। उच्च रक्त चाप, पेप्टिक अल्सर, एसिडिटी के रोगी इस अभ्यास को न करें। गर्भवती महिलायें इस अभ्यास को बिल्कुल न करें। ये सभी यौगिक षटकर्म गुरू के निर्देश में ही किये जाते है। इस बात का विशेष ध्यान रखें। भोजन के बाद इस अभ्यास को नहीं करना चाहिए। नौलि क्रिया से पहले उड्डयान बन्ध और अग्निसार का अभ्यास करना चाहिए।

 5. त्राटक-

घेरण्ड संहिता में वर्णित त्राटक का फल सहित वर्णन-

षट्कर्मो में पाँचवा षट्कर्म त्राटक है। सामान्य भाषा में किसी भी वस्तु को एक टक (लगातार) देखना ही त्राटक कहा जाता है। महर्षि घेरण्ड त्राटक को परिभाषित करते हुए कहते है- 

निमेषोन्मेषक त्यकत्वा सूक्ष्मलक्ष्यं निरीक्षयेत्। 

पतन्ति यावदश्रूणी त्राटकं प्रोच्यते बुधै:। 

एवमभ्यासयोगेन शम्वभवी जायते ध्रवम। 

नेत्ररोगा विनश्यन्ति दिव्यदृष्टि: प्रजायते।। घे0सं0
अर्थ, निमेष उन्मेष को रोककर जब तक आंसू न गिरने लगे तब तक किसी सूक्ष्म लक्ष्य की ओर टक-टकी लगा कर देखते रहने को त्राटक कहते है। इसके अभ्यास से शाम्भवी मुद्रा की स्थिति होती है। नेत्र के दोषों का निवारण होकर दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है।
महर्षि घेरण्ड ने
त्राटक तीन प्रकार के बताये है- 1. बहिरंग त्राटक 2. अन्तः रंग त्राटक 3. अधो त्राटक

1. बहिरंग त्राटक- बहिरंग अर्थात बाहर, त्राटक अर्थात एकटक देखना। इस प्रक्रिया में पूर्णिमा दृष्टि का प्रयोग किया जाता है संसार में हमें विविध वस्तु ,प्रतीक दिखाई देते है साधक सबसे पहले किसी एक प्रतीक का चुनाव करता है फिर पूर्णिमा दृष्टि का प्रयोग करते हुए उस लक्ष्य को एकटक तब तक देखता है जब तक आँखों से ऑसू न निकले। तद्पश्चात उस प्रतीक का आँख बन्द कर अवलोकन करता है। इस प्रक्रिया में जलते दीये या जलती मोमबत्ती का प्रयोग भी किया जा सकता है

2. अन्तःरंग त्राटक॑- अन्तःरंग का अर्थ है अन्तःकरण के अन्दर त्राटक का अर्थ है एकटक देखना। अर्थात आँख बन्द कर लक्ष्य का काल्पनिक अवलोकन कर उसे देखते रहना। व्यक्ति आँख खोलकर स्थूल रूप से विविध वस्तुओं को देख सकता है पर जो वस्तु उसने स्थूल जगत में देखी है अगर वह काल्पनिक अवलोकन करे तो अन्त: चक्षु से उसे वह वस्तुए
आँख बन्द कर भी दिखाई देती है।
उदाहरण के लिये यदि आँख बन्द करवाकर किसी से कहा जाये कि अपके ईष्टदेव, गुरू, सूरज, चन्द्रमा, तारे तो उसे एक पल वह स्पष्ट दिखाई देने लगेंगे। त्राटक में
आँख बन्द करके अपने भीतर देखने या काल्पनिक अवलोकन करने की यह प्रक्रिया अन्तःरंग त्राटक है।

3.
अधो त्राटक- अधो त्राटक की प्रक्रिया में आँखों को आधा खुला आधा बन्द रखा जाता है। योग के ग्रन्थों में इस अवस्था को प्रतिपदा दृष्टि नासिकाग्र मुद्रा या कही इसे शाम्भवी मुद्रा भी कहा जाता है। अधो त्राटक में लक्ष्य या प्रतीक को प्रतिपदा दृष्टि से देखा जाता है अभ्यास के क्रम में बीच में ऑंख बन्द कर उसका काल्पनिक अवलोकन भी कर सकते है।
भलई ग्रन्थों में
त्राटक तीन प्रकार का बताया गया है पर त्राटक की सर्वसुलभ. क्रियाविधि को गुरू के निर्देशन में निम्न प्रकार किया जा सकता है। 

त्राटक क्रियाविधि- ध्यान के किसी आसन (स्वस्तिक, पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन) में बैठ जाए। सिर, कन्धे व रीढ की हड्डी एक सीध में रहे। आँखों के ठीक सामने २ फिट की दूरी पर एक जलती मोमबत्ती रख दीजिए। आँख बन्द कर काल्पननिक अवलोकन कर शरीर का ध्यान करें| कायास्थेर्यम्‌ का अभ्यास करें तो उचित होगा। अब धीरे से आँख खोलकर मोमबत्ती की लौ को अनवरत देखते रहे | लौ को तब तक देखे जब तक आँखों से ऑसू न निकले । 40-50 सेकण्ड से 2-3 मिनट तक लगातार लौ पर त्राटक करे। तद्पश्चात्‌ आँखे बन्द करके चिदाकाश में उस लौ का अवलोकन कीजिए। उचित मार्गदर्शन में 2-3-4 बार यह प्रक्रिया दोहराई जा सकती है। 

लाभ- त्राटक की क्रिया नेत्र दोषों में लाभकारी है। त्राटक के अभ्यास से आँखों में जमा मल बाहर निकल जाता है। दूरदृष्टि दोष, निकट दृष्टिदोष व मोतियाबिन्द में लाभकारी है। त्राटक के आध्यात्मिक लाभ में दिव्यदृष्टि की प्राप्ति होती है। त्राटक के अभ्यास मात्र से साधक सभी अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति कर सकता है। त्राटक के अभ्यास से आत्मसाक्षात्कार किया जा सकता है। त्राटक के अभ्यास से शाम्भवी मुद्रा की भी सिद्धि प्राप्त होती है। त्राटक चित्त को स्थिर कर तनाव को दूर करता है। त्राटक के अभ्यास से पीनियल ग्रन्थि पर सार्थक व सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। स्मरणशक्ति बढ़ाने, कल्पना शक्ति का विकास करने में त्राटक एक अचूक रसायन का काम करता है। त्राटक के अभ्यास से आन्तरिक उत्तेजनाओं पर नियंत्रण होता है, आत्मबल बढ़ता है, मन शान्त होता है, तथा शक्ति प्राप्त होती है।
सावधानियाँ- त्राटक का अभ्यास एक कुशल मार्गदर्शन में करना चाहिए। माइग्रेन हो तो त्राटक न करें। अवसाद के रोगियों को भी त्राटक नहीं कराना चाहिए। आँखों में अगर चश्मा (ज्यादा पावर) का लगा है तो उचित देखरेख में करें। मोतियाबिन्द का आपरेशन हुआ हो तो वह व्यक्ति भी इस अभ्यास को न करें। त्राटक का अभ्यास प्रातःकाल या रात्रि के समय में करना चाहिए।

6. कपालभाति-

घेरण्ड संहिता में वर्णित कपालभाति का फल सहित वर्णन- 

कपाल अर्थात सिर के सामने वाला भाग भाति अर्थात चमकना। महर्षि घरेण्ड ने कपाल भांति को इस प्रकार परिभाषित किया है- 

वातक्रमेण व्युतक्रमेण शीत्क्रेण विशेषतः। 

भालभातिं विधा कुर्यात्कफदोषं निवारयेत्‌ ।। घे0सं0

अर्थात- वातक्रम कपालभाति, व्युत्क्रम कपालभाति और शीतक्रम कपालभाति के भेद से कपालभाति तीन प्रकार की होती है। इसका साधन करने से कफ से उत्पन्न दोषों का निवारण होता है। 

कपालभाति के भेद-  महर्षि घेरण्ड ने तीन प्रकार के कपालभाति बताये है- 1. वातक्रम कपालभाति 2. व्युत्क्रम कपालभाति 3. शीतक्रम कपालभाति

1. वातकर्म कपालभाति- वात अर्थात वायु, अर्थात वायु तत्व द्वारा मस्तिष्क की शुद्धि करना ही वातक्रम कपालभाति है।
इडया पूरयेद्वायुं रेचयेत्पिड.ग्लया पुन:। 

पिड.ग्लया पूरयित्वा पुनश्चन्द्रेण रेचयेत्‌ 

पूरक रेचकं कृत्वा वेगेन न तु धारयेत्‌। 

एवमभ्यास योगेन कफ दोषं निवारयेत्‌।। घे0सं0 

अर्थात- इड़ा नाड़ी या बायी नासिका से श्वास अन्दर लेनी है और पिंगला नाड़ी या दाहिनी नासिका से श्वास छोड़नी है, फिर पिंगला से श्वास अन्दर लेनी है और चन्द्र नाड़ी से उसे बाहर निकाल देना है। पूरक और रेचक की जो क्रियाएं होती है, उनकी गति तेज नही होनी चाहिए। इस क्रिया के अभ्यास से सर्दी खांसी से मुक्ति मिलती होती है।

लाभ- इस क्रिया को करने से मस्तिष्क के अग्रभाग का रक्‍त अधिक मात्रा में शुद्ध होता है। इसका अभ्यास करने से फेफड़ों का विस्तार होता है तथा उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। वातक्रम कपालभाति के अभ्यास से हमारे शरीर में आक्सीजन अधिक मात्रा में जाती है। दिमाग को मजबूत बनाने तथा स्मरण शक्ति को बढ़ाने में यह लाभकारी अभ्यास है। इसके अभ्यास से मस्तिष्क केन्द्रों को भी जगाया जा सकता है। 

सावधानियाँ- उच्चरक्त चाप से ग्रसित व्यक्ति इसका अभ्यास न करें क्योंकि इसके करने से रक्‍त प्रवाह तीव्र हो जाता है। जो उच्च रक्तचाप वालों के लिए हानिकारक है। हार्निया के रोगी भी इसका अभ्यास न करें। अभ्यास को एक साथ ज्यादा न करे धीरे धीरे नियमित रूप से ही इसका अभ्यास करना चाहिए। यदि अभ्यास के दौरान किसी भी प्रकार की परेशानी हो तो अभ्यास रोक देना चाहिए। योग शिक्षक के उचित निर्देशन में ही अभ्यास की शुरूवात करें।

2. व्युत्क्रम कपालभाति- कपालभाति का दूसरा प्रकार व्युतक्रम कपालभाति है। महर्षि घेरण्ड कहते है-

नासाम्यां जलमाकृष्य पुनर्वक्त्रेण स्वेयेत्‌। 

पाय॑ पाय॑ व्युतक्रमेंण श्लेष्मादोषं निकारयेत्‌ ।। घे0सं0

 
अर्थात- नासिका के दोनों छिद्रो के द्वारा जल खीचें और मुख से निकाल दे तथा मुख से जल खींचकर नासिका से निकाल दें। यह व्युतक्रम कपालभाति कफ जन्य दोषों का निवारण करती है।

लाभ- इस क्रिया का लाभ ये है कि हमारे अन्दर कुछ नाडिया ऐसी होती है जिनका सम्पर्क कभी भी जल से नहीं होता इसके अभ्यास करने से वे जल के सम्पर्क में आती है जो बहुत लाभकारी है। इस क्रिया का अभ्यास बिन्दु चक्र को जाग्रत करता है जो पुरूषों में चोटी वाले स्थान पर होता है। योग की दृष्टि से यदि देखा जाये तो इसके अभ्यास से अमृत की प्राप्ति होती हैं जो खेचरी मुद्रा की सिद्धि के बाद प्राप्त होता है।

सावधानियाँ- इस क्रिया को नमक के गुनगुने पानी से ही करें अन्यथा जल सिर में चढ़ने लगता है और इस स्थिति में सिर दर्द की परेशानी होने लगती है। नमक के पानी के साथ उच्च रक्तचाप वाले व्यक्ति को यह व्यायाम नहीं करना चाहिए और न ही करना चाहिए। अभ्यास को करने के बाद शशांक आसन में वातकर्म कपालभाति का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। गिलास या नेति पॉट को पानी से पूरा भरकर ही अभ्यास करे अन्यथा जल के साथ साथ वायु का प्रवेश भी हो सकता है जिनसे खांसी भी आ सकती है. या पानी भी चढ़ सकता है। उचित मार्गदर्शन में ही अभ्यास प्रारम्भ करें।

3. शीतक्रम कपालभाति-
शीतक्रम, कपालभाति का तीसरा तथा अन्तिम प्रकार है। इस प्रक्रिया में पानी मुंह से पीकर नासिका मार्ग द्वारा बाहर निकाला जाता है। महर्षि घेरण्ड शीतक्रम कपालभाति को परिभाषित करते हुए कहते है-

शीतकृत्य पीत्वा वक्त्रेण नासानालैरविरिचयेत। 

एवमभ्यासयोगेन कामदेव समो भवेत् 

न जायते वार्द्धक॑ च ज्वरो नैव प्रजायते। 

भवेत्स्व्छन्द देहच्छ कफ दोष निवारयेत्‌।। घे0सं0

अर्थात, शीतकार करता हुआ साधक मुख के द्वारा जल ग्रहण कर नासिका के द्वारा निकाल दे। यह क्रिया शीतक्रम कपालभाति कहलाती है। इसके द्वारा साधक का शरीर कामदेव के समान सुन्दर हो जाता है और बुढापा नहीं सताता। शरीर में स्वच्छता उत्पन्न होती है तथा कप दोष का निवारण होता है। 

लाभ- शीतक्रम कपालभाति के अभ्यास से शरीर में एकत्रित हुए विषाक्त पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। शरीर कामदेव के समान सुन्दर एवं कान्तिवान हो जाता है। इसके अभ्यास से साधक को उत्तम स्वास्थ की प्राप्ति होती है। इस क्रिया के अभ्यास करने वाले साधक को बुढापा छू भी नहीं पाता है।

सावधानियाँ- अभ्यास में प्रयोग किये जाने वाले पानी का तापमान शरीर के तापमान के बराबर हो तथा उसमें हल्का नमक मिला हो। यदि इसका अभ्यास नियमित करते है तो रात्रि को सोते समय गाय का घी नाक अवश्य डाले अन्यथा नाक सूख जायेगी जिससे नाक में जलन होगी। उच्च रक्‍तचाप के व्यक्ति को इलायची के चूर्ण से यह अभ्यास करवाते है। अभ्यास कर लेने के पश्चात शशांक आसन में वातक्रम कपालभाति का अभ्यास अवश्य करें। योग शिक्षक के निर्देशन में ही अभ्यास की शुरूवात करें।

घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति

 

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आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सु...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम ...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थ...

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म...

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके त...