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घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति

घेरण्ड संहिता के अनुसार षट्कर्म-

षट्कर्म जैसा नाम से ही स्पष्ट है छः: कर्मो का समूह वे छः कर्म है- 1. धौति 2. वस्ति 3. नेति 4. नौलि 5. त्राटक 6. कपालभातिघेरण्ड संहिता में षटकर्मो का वर्णन विस्तृत रूप में किया गया है जिनका फल सहित वर्णन निम्न प्रकार है।

1. धौति

घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति
 

घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति- 

धौति अर्थात धोना (सफाई करना) जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा इससे अन्तःकरण की सफाई की जाती है। इसलिए इसका नाम धौति पड़ा। घेरण्ड संहिता में महर्षि घेरण्ड ने चार प्रकार की धौति का वर्णन किया है-

(क) अन्त: धौति  (ख) दन्त धौति (ग) हृद धौति (घ) मूलशोधन

(क) अन्त: धौति-  अन्त:का अर्थ आंतरिक या भीतरी तथा धौति का अर्थ है धोना या सफाई करना। वस्तुत: शरीर और मन को विकार रहित बनाने के लिए शुद्धिकरण अत्यन्त आवश्यक है। अन्त: करण की शुद्धि के लिए चार प्रकार की अन्त: धौति बताई गई है- 1. वातसार अन्त: धौति 2. वारिसार अन्त: धौति 3. अग्निसार अन्त: धौति 4. बहिष्कृत अन्त: धौति
1. वातसार अन्त: धौति-  वात अर्थात वायु तत्व या हवा से अन्तःकरण की सफाई करना ही वातसार अन्त: धौति है। महर्षि घेरण्ड कहते है-
काकचंचुवदास्येन पिबेद्वायुं शनै: शनै:। 

चालयेदुदरं पाश्चाक्ष्द्वर्मना रेचयेच्छनै: ।। (घेरण्ड संहिता 1- 15)

अर्थात कौवे की चोंच के समान दोनों ओठों को करके धीरे धीरे वायु को पियें। पूर्ण रूप से पान कर लेने पर पेट में उसका परिचालन कर उस वायु को फिर बाहर निकाल दे।

क्रियाविधि- सर्वप्रथम किसी अभ्यस्थ ध्यानात्मक आसन में बैठ जाये। कमर सिर व गर्दन को एकदम सीधा रखें। मुंह से कौवे की चोंच के समान आकार बनायें।  धीरे-धीरे वायु का पान करते हुए पेट में भरने का प्रयत्न करें। जब पूरी श्वास से पेट भर जाये तब शरीर ढीला कर वायु को उदर में घुमायें। धीरे धीरे श्वास को दोनों नासाछिद्रों से बाहर निकाल दें। 

लाभ- इस गोपनीय क्रिया से शरीर निर्मल होता है। यह क्रिया कफ दोष को दूर करती हैं।सभी रोगों को नष्ट करती है। पाचनशक्ति को बढाती है तथा जठराग्नि को भी तेज करती है। 

सावधानियाँ-  यह क्रिया हमेशा खाली पेट ही करनी होती है। यह अभ्यास अधिकतम पाँच बार ही करना चाहिए। अधिक वृद्ध व्यक्ति कमजोर व्यक्ति यह अभ्यास न करें। हृदय रोगी या पेट आदि का कोई बडा आपरेशन हुआ हो तो उस व्यक्ति को यह अभ्यास नही करना चाहिए।

2. वारिसार अन्त: धौति- वारि अर्थात जल तथा सार अर्थात तत्व इस धौंति में जल तत्व के द्वारा पेट की साफई की जाती है। महर्षि घेरण्ड इस धौति को इस प्रकार बताते है

आकण्ठं पूरयेद्वारि वक्त्रेण चे पिबेच्छने:। 

चालयेदुदरेणैव चोदरादेरचयेद्रध:।। (घेरण्ड संहिता 1- 17)

वारिसारं पर गोप्यं देहनिर्मल कारकम्। 

साधयेत्तप्रयत्नेन देवदेहं प्रपघ्यते।। (घेरण्ड संहिता 1- 18)

अर्थात- मुख से धीरे धीरे जल पीते हुए कण्ठ तक जल से भर लेना है। उसके बाद उदर को चलाकर जल को अधोमार्ग से निकाल देना है। यह वारिसार संज्ञक धौति परम गोपनीय एवं शरीर को स्वच्छ करने वाली है इसका प्रयत्नपूर्वक साधन करने वाले योगी को देवताओं के समान शरीर की प्राप्ति होती है।

क्रियाविधि- इस क्रिया को शंखप्रक्षालन भी कहते हैं। एक बर्तन (भिगोने आदि मे) में गुनगुना पानी लें तथा उसमें स्वादानुसार नमक तथा हल्का सा निम्बू डाल ले। सर्वप्रथम 2-3 गिलास गुनगुना पानी पीये फिर निम्न पाँच आसन करें- ताडासन, तिर्यकताडासन, कटिचक्रासन, तिर्यक भुजगांसन, उदराकर्षण । फिर पुनः 2-3 गिलास पानी पीकर उपरोक्त आसनों को करें। जब तक शौच की इच्छा न हो इस क्रिया को दोहराते रहें। 10-15 गिलास पानी पीकर जब उक्त क्रिया हो जाये तो विश्राम करें। 

लाभ- यह शरीर की शुद्धि की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया है। इस क्रिया से समस्त पाचन संस्थान की सफाई होती है। शरीर से अपशिष्ट पदार्थ (मल) पूर्ण रूप से निकल जाता है। इस क्रिया से देव देह की प्राप्ति होती है। योगी देवता के समान दिव्य, कान्तिमान, ओजस्वी हो जाता है। मोटापे को कम करता है तथा शरीर हल्का हो जाता है। 

सावधानियाँ- यहाँ पर उक्त यौगिक क्रिया का वर्णन आपको सिर्फ अध्ययन करने के लिये बताया जा रहा है। इस अभ्यास को हमेशा कुशल, योगगुरू के सलाह में ही करें। उच्च रक्तचाप हृदय रोग में यह अभ्यास सोंफ के पानी के साथ उचित मार्गदर्शन मेँ किया जा सकता है। गर्भवती स्त्री, हार्निया से पीडित व्यक्ति इस अभ्यास को बिल्कुल न करें। अभ्यास के बाद व पहले दिन से ही रसाहार पतली खिचडी का सेवन ही करना चाहिए। दूध का सेवन बिल्कुल न करें।

3. अग्निसार अन्त: धौति- अग्नि का अर्थ सभी समझते है सार अर्थात तत्व। अग्निसार से तात्पर्य जिस क्रिया द्वारा पाचन शक्ति को प्रदीप्त किया जाए अन्तधौति से तात्पर्य अन्तर की अशुद्धियों को धोना। इस क्रिया में भी अशुद्धियों को बाहर निकाला जाता है। महर्षि घेरण्ड के अनुसार- 

“नाभिग्रन्थि मेरुपृष्टे शतवारं च कारयेत।

अन्गिसारमियं धाँतियॉगिनां योगसिद्धिदा।।

उदरामयजं त्वक्त्वा जठराग्निं विवदयेत। 

एषो धोति: परा गोप्पा द्वेनानामपि दुर्लभा।

अर्थात, प्राणवायु को रोक कर नाभि को मेरू पृष्ठ भाग से लगाये इससे अग्निसार संज्ञक धौति कर्म सम्पन्न होता है। इससे सभी उदर रोग नष्ट होते है। जठराग्नि तीव्र होती है। यह धौति कर्म अत्यन्त गोपनीय और देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। केवल इस कर्म के करने मात्र से देवताओं जैसा शरीर हो जाता है, इसमें संदेह नही।

क्रियाविधि- वज्रासन, अर्धपद्मासन या सिंहासन में बैठें। रीढ की हडडी को सीधा रखना है। दोनों हाथ को तानकर घुटनों में रखिए। मुंह खोलकर जीभ बाहर निकालकर पूरी श्वास को बाहर निकाल दीजिए। श्वास को बाहर रोककर पेट को जल्दी-जल्दी अन्दर-बाहर करें। यह प्रयास रहे कि नाभि प्रदेश पृष्ठ भाग पर लगे। कुछ पल आराम के बाद इस क्रिया को पुनः उचित मार्गदर्शन में दोहराये। 

लाभ- पाचन सम्बन्धी विकारों को नष्ट करता है। उदर गत माँसपेशियों को मजबूत बनाता है। जठराग्नि को तेज कर पाचक रसों का नियंत्रण करता है। मानसिक रोंगों में अवसाद की अन्तर्मुखी अवस्था में लाभकारी है। योग के आध्यात्मिक लाभ कुण्डलीनी जागरण में भी सहायक है। 

सावधानियाँ- वस्तुतः योग की सभी क्रियायें खाली पेट की जाती हैं। इसी तरह यह क्रिया भी भोजन के बाद नही की जाती। उच्चरक्त चाप व हृदय रोगी इस अभ्यास बिल्कुल ना करें। अल्सर, हार्नियाँ, दमा के रोगियों के लिए भी यह अभ्यास वर्जित है। शारीरिक क्षमता के अनुसार गुरू के निर्देशन में ही अभ्यास करें। 

4. बहिष्कृत अन्त: धौति- इस क्रिया में कौए की चोंच के समान वायु को मुंह से पीना है तत्पश्चात उसे कुछ देर पेट में रोककर अधो मार्ग से बाहर निकाल देते है। ये बहिष्कृत धौति कही जाती है। महर्षि घेरण्ड के अनुसार-

काकीमुद्रां शोधपित्वा पूरयेदुदर॑ मरूत्। 

धारयेदर्धयाम तु चालयेदवर्त्मना। 

एषा धौति: परा गोप्पा न प्रकाश्या कदाचना।।  घे0 सं०

अर्थात, कौवे की चोंच के समान ओठों को करके उनके द्वारा वायु पान करके तथा उसे रोक कर परिचालित करते हुए अधोमार्ग से बाहर निकाल दे। यह परम गोपनीय धौति कहलाती है।

क्रियाविधि- यह क्रिया सहज नही की जा सकती एक योग्य शिक्षक की देखरेख में करें अन्यथा परेशानियाँ हो सकती है। सर्वप्रथम किसी ध्यानात्मक आसन में बैठ जाये। दोनों हाथों को घुटने पर रखें। काकी मुद्रा (कोवे की चोंच के समान) होठो को करके वायु को धीरे-धीरे पान करें। एक घंटे वायु का परिचालन पेट पर होने दें। अन्त में अधोमार्ग से उसे बाहर निकाल दें। 

लाभ- उदरगत विकार दूर होते है। शरीर हल्का, कान्तिमान हो जाता है। कुण्डलीनी शक्ति जागरण में लाभकारी है। प्रजनन संस्थान को बलिष्ठ बनाती हैं।

सावधानियाँ- वही व्यक्ति इस अभ्यास को करें जिसे एक घंटे श्वास रोकने का अभ्यास हो। इसे एक योगी ही कर सकता है। अतः इस अभ्यास में विशेष मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

(ख) दन्त धौति-  दन्त धौति से तात्पर्य समान्यत: लोग दाँत की सफाई से समझते है, परन्तु दन्त धौति का अर्थ शीर्ष प्रदेश की सफाई करने से है इसके अर्न्गगत मसूडों की सफाई, जीभ की सफाई कान की सफाई तथा कपाल की सफाई की जाती है। दन्त धौति के चार प्रकार बताए गये है  (1) दन्तमूल धौति (2) जिव्हामूल धौति (3) कर्णरन्ध्र धौति (4) कपालरन्ध्र धौति  किन्तु दोनों कानों को अलग- अलग जोड़नें पर दन्त धौति के पांच प्रकार होते है।

(1) दन्तमूल धौति- दन्त अर्थात दांत मूल अर्थात जड़। जिस धौति के अर्न्तगत दांत के मूल भाग अर्थात मसूडों की सफाई की जाती है वह दन्तमूल धाौति कही जाती है। महर्षि घेरण्ड के अनुसार- जब तक मैल न छूटे, तब तक खादिर के रस अथवा विशुद्ध मिट्टी से दांतों की जड़ों को माँझना चाहिए। योगियों को यह साधन अपने दोंतों की रक्षा के लिए नित्य प्रात: काल अवश्य करना चाहिए। योग को जानने वाले पुरूष इस दन्तमूल धौति को प्रमुख कर्म मानते है।

लाभ- दन्‍त मूल धौति का नित्य अभ्यास करना चाहिए इससे हमारे दांत एवं मसूड़े स्वस्थ एवं मजबूत रहते है। दांतों के रोग भी दूर हो जाते है जैसे दांतों में कीड़ा लगना तथा पायरिया का होना। 

सावधानी- दन्त मूल धौति का अभ्यास करने पूर्व ध्यान रखें यदि मसूड़ों की मसाज करें तो मिट॒टी में कंकड़ न हो अन्यथा मुँह छिल सकता है।

(2) जिव्हामूल धौति- जिव्हा का अर्थ जीभ से है तथा मूल का अर्थ जड़ से है इस क्रिया के अर्न्तगत जीभ के मूल भाग की सफाई की जाती है इसलिए इसे जिव्हा मूल धौति कहते है महर्षि घेरण्ड के अनुसार- तर्जनी, मध्यमा और अनामिका तीनों अंगुलियों को मिलाकर कष्ठ में डाल जिव्हा की जड़ को स्वच्छ करना चाहिए, धीरे धीरे कोमलता से रगड़ने से कफ दोष का निवारण होता है जब यह सफाई और रगड़ना हो जाए तब जीभ में थोड़ा मक्खन लगा ले। पुनः दूध दुहने जैसी क्रिया करें, तत्पश्चात लोहे की चिमटी से जीभ को पकड़कर बाहर खीचें, अभ्यास को प्रतिदिन सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय करने से जीभ की लम्बाई बढ़ जाती है।

लाभ- जिव्हा मूल धौति का अभ्यास करने से गले व श्वास नली में एकत्र हुआ कफ बाहर निकल जाता है। इस क्रिया को करने से जीभ लम्बी हो जाती है और लम्बी जीभ अच्छे वक्‍ताओं की पहचान होती हैं।

सावधानी- जिव्हामूल धौति का अभ्यास करने में ध्यान रखे कि नाखून कटे होने चाहिए।  

(3) कर्णरन्ध्र धौति- इस धौति में कानों की सफाई की जाती है इसलिए इसे कर्ण रन्ध्र धौति कहा जाता है महर्षि घेरण्ड के अनुसार-

तर्जन्यनामिका योगान्मार्जयेत्कर्णरन्ध्रयो:। 

नित्यमभ्यास योगेन नादानतरं प्रकाशयेत्।।  घे0सं0

अर्थात, तर्जनी और अनामिका को मिलाकर योगीजन दोनों कानों के छिद्रों की सफाई करते हैं। इस योग विधि के नित्य अभ्यास से नाद की अनुभूति होती है। नोट- कर्णरन्ध्र धौति को दोनो कानों से करने के कारण 2 प्रकार का माना जाता है। 

लाभ- कर्णरन्ध्र धौति का अभ्यास कानों के लिए विशेष रूप से लाभकारी है। हमारे कानों में म्यूकस पदार्थ जम जाता है। उसे बाहर निकालने के लिए बेहद लाभकारी है।

सावधानी- कर्णरन्ध्र धौति में कान की सफाई करते समय विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है।

(4) कपालरन्ध्र धौति- कपाल अर्थात सिर के ऊपर वाला भाग। इस धौति क्रिया में हाथ की कपनुमा आकृति बनाकर ठंडे पानी से कपाल को थपथपाते है, इसलिए इसे कपालरन्ध्र धौति कहा जाता है। महर्षि घेरण्ड के अनुसार- अपने दाहिने हाथ की अंगुलियों को समेटकर एक कप की आकृति बनानी चाहिए और उस कप की आकृति वाले हाथ में जल भरकर अपने कपाल रन्ध्र में ब्रहारन्ध्र में थपकी देनी चाहिए। इस प्रकार के अभ्यास से कफ दोष से मुक्ति मिलती है। खोपड़ी के ऊपर जो नाडियां है, वे निर्मल बनती है और दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है। निद्रा की समाप्ति पर भोजन करने के बाद और निद्रा के पहले तथा दिन की समाप्ति पर अपनी खोपड़ी पर थपकी देनी चाहिए। 

लाभ- कपालरन्ध्र धौति उच्च रक्त चाप और आंखों के रोग के लिए बेहद लाभकारी क्रिया है। मस्तिष्क को ठंडक पहुँचाती है तथा मोतियाबिन्द में भी लाभकारी अभ्यास है।

सावधानी- कपाल रन्ध्र धौति का अभ्यास सर्दियों में नहीं करना चाहिए अन्यथा सर्दी जुकाम होने की सम्भावना रहती है। दमा के रोगी विशेष निर्देशन में ही इसका अभ्यास करें।

(ग) हृद धौति-  हृद धौति के तीन प्रकार है- (1) दण्डधौति (2) वमन धौति (3) वस्त्र धौति

(1) दण्डधौति-  दण्ड से तात्पर्य दण्डे से तथा धौति का अर्थ स्वच्छता से है। इस क्रिया में केले के मृदु भाग से गले पेट की सफाई की जाती है। इसलिए इसे दण्ड धौति कहते हैं। महर्षि घेरण्ड जी के अनुसार- केले के मृदु भाग के डण्डे, हल्दी के डण्डे को हृदय के मध्य बार बार घुसा का धीरे धीरे निकालना चाहिए। फिर कफ, पित्त, क्लेद का मुख द्वार से रेचन करना चाहिए। यह कर्म हृदय रोग का भी निश्चित रूप से नाश कर देता है।

क्रियाविधि-परम्परागत रूप से दण्ड धौति के लिए केले, बेंत या हल्दी के मृदु भाग को लेते हैं । आधुनिक समय में रबर की दण्ड भी बाजार में उपलब्ध रहती है इस दण्ड को प्रयोग करने से पहले अच्छी तरह उबाल लें।
सर्वप्रथम 4-5 गिलास स्वच्छ नमकीन जल पी लें। धीरे- धीरे रबर, हल्दी, बेंत की दण्ड (जो उपलब्ध हो) मुंह खोलकर आमाशय तक डालें | फिर थोड़ा आगे झुकें पूरा जल दण्ड के अगले छोर से आने लगेगा। तदुपरान्त धीरे-2 दण्ड को बाहर निकाले तथा इसके साथ कफ, पित्त, श्लेष्मा, जो भी निकले उसे  बाहर थूक दें। 

लाभ- कफ, पित्त, क्लेद का निष्काषन इस क्रिया से होता है।  अम्ल पित्त, दमा में यह अभ्यास लाभकारी है। फफड़ें की क्षमता बढ़ती है, हदय रोग में भी लाभकारी है।

सावधानी- योग शिक्षक की देखरेख में ही इस अभ्यास को करें। यहाँ पर दण्ड धौति का वर्णन मात्र अध्ययन के लिए किया गया है। 

(2) वमन धौति- वमन धौति में कण्ठ पर्यन्त जल पीते है और फिर बाहर निकाल देते है इसलिए इसे वमन धौति कहते है। महर्षि घेरण्ड के अनुसार-
भोजनान्ते पिबेद्वारि चाकण्ठं पूरितं सुधी: 

उर्ध्वा इृष्टिं क्षणं कृत्वा तज्जलं वमयेत्पुन:। 

नित्यमभ्यासयोगेन कपपित्तं निवारयेत।। घे0सं0 

ज्ञानी साधक को भोजन के अन्त में कण्ठ पर्यन्त जल पीना और क्षण भर बाद ऊपर की ओर देखते हुए उसे वमन द्वारा निकाल देना चाहिए। इस प्रयोग से कफ और पित्त का निवारण होता है। 

इस धौति को व्याग्रक्रिया नाम से भी जाना जाता है। वमन वस्तुतः दो प्रकार का होता है -एक खाली पेट किया जाने वाला जिसे कुंजलक्रिया नाम दिया है और दूसरा भोजन के उपरान्त किये जाने वाली व्याग्रक्रिया है।

क्रियाविधि- सर्वप्रथम बैठकर बिना रूके हुए गुनगुना नमकीन जल इच्छानुसार 5.-7 -10 गिलास तक पिये। फिर उठकर तर्जनी, मध्यमा व अनामिका ऊंगली को गले तक डालकर वमन करे। अंगुलियों को पुनः मुंह के भीतर ले जाये यह क्रिया तब तक दोहरायें जब तक पेट खाली ना हो जाये। 

लाभ- आमाशय को स्वच्छ कर विकार रहित बनाती है। कफ, पित्त, क्लेद को बाहर निकालती है। अजीर्ण, अम्लपित्त में लाभकारी है। दमा के रोगी को कफ के विरेचन हो जाने के कारण लाभ मिलता है। 

सावधानियाँ- पानी गुनगुना नमक युक्त व स्वच्छ हो। हाथ के नाखुन पूरे कटे होने चाहिए। हार्निया व कमर दर्द में इस अभ्यास को ना करें।

(3) वस्त्र धौति- वस्त्र कपड़े को कहते है धौति से अर्थ धोने से है इस क्रिया में धौति से आमाशय, गले और आहार नाल की सफाई होती है। इसलिए इसे धौति कर्म कहा जाता है। महर्षि घेरण्ड कहते है-
चतुरड.गल विस्तारं सूक्ष्मवस्त्रं शनैर्ग्रसेत।

पुन: प्रत्याहारेदेतेप्रोच्येते धौतिकर्मकम्।।

गुल्म जबर प्लीहकुष्ठकफपितं विनश्यति।

आरोग्यं बलपुष्टिश्च भवेत्तस्य दिने दिने। घे0सं० 

अर्थात- महीन वस्त्र की चार अंगुल चौड़ी पटटी लेकर धीरे धीरे निगलना चाहिए फिर इसे धीरे धीरे बाहर निकाले। इस वस्त्र धौति के अभ्यास से गुल्म, ज्वर, प्लीहा कुष्ठ एवं कफ पित्त के विकारों का शमन होता है। यह धौति आरोग्य, बल और पुष्टि की दिनों दिन वृद्धि करती है। 

क्रियाविधि- चार अँगुल चौढ़ा व 3-4 मीटर लम्बा साफ सूती कपड़ा लेकर, उसे एक पात्र (गिलास, कटोरी) में रखकर भिगा दें। एक छोर को पकड़कर धीरे-धीरे उसे निगले बीच-बीच में स्वच्छ जल अवश्य पियें। जब अन्तिम छोर बचा हो फिर धीरे-धीरे उसे बाहर निकाल दें। 

लाभ- कफ, क्लेद का निष्कासन होता है। दमा के रोगी के लिए यह क्रिया रामवाण है। वायु विकार, बुखार, चर्मरोग में लाभकारी है। उदरगत व्याधि दूर होती हैं। जठराग्नि बढ़ती है। 

सावधानियाँ- यह एक कठिन क्रिया है इसे योग्य योग शिक्षक के मार्गदर्शन में ही करे। अगर वस्त्र धौति करते हुए 5 मिनट हो जाये तो फिर उसे बाहर निकाल दें अन्यथा वह आतों की ओर जा सकती है। कपड़े को निगलते समय जीभ में सटाकर रखें। कोशिश यह करें कि निगलते समय कपड़े में लार अवश्य मिले जिससे निगलने में सुविधा होगी।

(घ) मूलशोधन- इस अभ्यास से मूल क्षेत्र अर्थात शरीर का मूल भाग (गुदा) की सफाई होती है महर्षि घेरण्ड कहते हैं- अपानक्रूरता तावद्यावन्मूषलं न शोधयेत्‌ 

तस्मात्तसिर्वेप्रयत्नेन मूलशोधनमाचरेत्‌ 

पीतमूलस्यस दण्डेन मध्येमाडगुलिनाडपि वा 

थलेन क्षालयेदगुछ वारिणा च पुनः पुनः 

तारयेत्कोलष्ठगकाठिन्यरमामाजीर्ण निवारयेत्‌ 

कारण कान्तिपुष्टवयोश्चय दीपनं बहिमण्डनलम्‌  घे0सं०

अर्थात मूल शोधन न होने तक अपान वायु की क्रूरता नष्ट नही हो पाती। इसलिए प्रयत्नपूर्वक मूल शोधन कर्म करना चाहिए। हल्दी की जड़ अथवा मध्यम अंगुली के द्वारा जल से पुनः पुनः प्रक्षालन आवश्यक है। इस कर्म से कब्ज (मल की शुष्कता, मलावरोध) एवं अजीर्ण आदि का निवारण होकर जठराग्नि प्रदीप्त होती है। 

क्रियाविधि- हल्दी की नरम जड़ से या अनामिका अंगुली में घी लगाकर गुदा क्षेत्र में डालें हल्दी की जड़ रोगाणुरोधक होने के कारण उपयुक्त है दो-चार बार इस क्रिया को दोहरायें। 

लाभ- उत्सर्जन तन्‍त्र को बलिष्ठ करता है इस क्रिया से नाड़ी और कोशिकाओं की ओर रक्त संचार तेज होता है। कब्ज में यह अभ्यास लाभकारी है। अपान वायु का संतुलन करती है। इस धौति से पाचन संस्थान के रोगों में भी लाभ मिलता है। 

सावधानियाँ- अंगुली के नाखून अच्छी तरह काटे हो। बवासीर के रोगियों को अंगुली मूल प्रदेश में डालते समय बेहद सावधानी बरतनी चाहिए। योग्य गुरू की सलाह में ही इस अभ्यास को करें।


Continuous........


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हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...