षटकर्मो का अर्थ- शोधन क्रिया का अर्थ - Meaning of Body cleansing process
'षट्कर्म' शब्द में दो शब्दों का मेल है षट्+कर्म। षट् का अर्थ है छह (6) तथा कर्म का अर्थ है क्रिया। छह क्रियाओं के समुदाय को षट्कर्म कहा जाता है। यें छह क्रियाएँ योग में शरीर शोधन हेतु प्रयोग में लाई जाती है। इसलिए इन्हें षट्कर्म शब्द या शरीर शोधन की छह क्रियाओं के अर्थ में 'शोधनक्रिया' नाम से कहा जाता है। इन षटकर्मो के नाम - धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौलि व कपालभाति है। जैसे आयुर्वेद में पंचकर्म चिकित्सा को शोधन चिकित्सा के रूप में स्थान प्राप्त है। उसी प्रकार षट्कर्म को योग में शोधनकर्म के रूप में जाना जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा में भी पंचतत्वों के माध्यम से शोधन क्रिया ही की जाती है। योगी स्वात्माराम द्वारा कहा गया है-
कर्म षटकमिदं गोप्यं घटशोधनकारकम्।
विचित्रगुणसंधायि पूज्यते योगिपुंगवैः।। (हठयोगप्रदीपिका 2/23)
शरीर की शुद्धि के पश्चात् ही साधक आन्तरिक मलों की निवृत्ति करने में सफल होता है। प्राणायाम से पूर्व इनकी आवश्यकता इसलिए भी कही गई है कि मल से पूरित नाड़ियों में प्राण संचरण न होने के कारण साधना में सफलता मिलना सम्भव नहीं है।
मलाकुलासुनाडीषु मारुतो नैव मध्यगः।
कथं स्यादुन्मनीभावः कार्यसिद्धिकथ्थं भवेत्।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/4)
जब नाडीशुद्धि हो जाती है तो प्राणायाम करने में योगी समर्थ हो जाता है
शुद्धिमेति यदा सर्व नाडीचक्रं मलाकुलम्।
तदैव जायते योगी प्राण संग्रहणे क्षम:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/ 5)
इसलिए-
मेद: श्लेष्माधिकः पूर्व षटकर्माणि समाचरेत्।
अन्यस्तु नाचरेत्तानि दोषाणां समभावतः।। (हठयोगप्रदीपिका - 2/ 21)
अर्थात् स्थूल तथा श्लेष्मा की अधिकता वाले साधकों को षट्कर्मो का अभ्यास करके शरीर को कृश (कमजोर) कर लेना उपयुक्त है। अन्य साधकों (जिनके त्रिदोष साम्यावस्था में है) को करने की आवश्यकता नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि जो लोग स्थूलकाय तथा श्लेष्माधिक्य वाले है, उसको इन शोधन क्रियाओं की नितान्त आवश्यकता है। अतः यह कहा जा सकता है कि षट्कर्म वे छह शोधन क्रियाएं है, जिसकी स्थूल शरीर वाले तथा श्लेष्मा की अधिकता वाले साधकों को त्रिदोषों को साम्यावस्था में लाने के लिए नितान्त आवश्यकता है तथा जिनका प्रयोग करके शरीर को निरोग रखा जा सकता है। अतः संक्षेप में कह सकते है कि आन्तरिक मलों की शुद्धि तथा नाड़ी शुद्धि के लिए जो उपाय किये जाते है हठयोग में उन्हें षटकर्मो के नाम से जाना जाता है। शरीर शोधन के लिए जो षट्कर्म गोपनीय बताए हैं, उनका वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा गया है-
धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।
कपालभातिश्चैतानि षटकर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोगप्रदीपिका - 2/22)
अर्थात्- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभाति ये छह कर्म हैं जिनके द्वारा शरीर की शुद्धि होती है।
षटकर्मो का उद्देश्य - The purpose of Body cleansing process
इस समस्त चराचर जगत् का उपादान कारण त्रिगुणात्मकप्रकृति होने से प्राणिमात्र के शरीर वात, पित्त और कफ इन तीन धातुओं के विभिन्न प्रकार के रूपान्तरों के सम्मिश्रण से बने हैं। इसीलिए किसी का शरीर वातप्रधान है, किसी का शरीर पित्तप्रधान और किसी का शरीर कफप्रधान होता है। वातप्रधान शरीर आहार-विहार के दोष से तथा देश कालादि के कारण वात कुपित हो जाता है। इसी कारण पित्तप्रधान शरीर में पित्त और कफ प्रधान शरीर में कफ प्रधान हो जाता है। इनके दूषित होने पर मेद, श्लैष्मा, पित्त वात आदि का शरीर में संग्रह हो जाता है, जिसके कुपित होने पर शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। फलस्वरूप साधक साधना में संलग्न नहीं रह पाता क्योंकि स्वस्थ शरीर के अभाव में आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त नहीं होता। उपनिषदों में भी कहा है
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः
अर्थात् बलहीन शरीर से आत्म साक्षात्कार सम्भव नहीं है। इसलिए शरीर में व्याधियों को उत्पन्न न होने देने और यदि व्याधि उत्पन्न हो गयी हो तो उसे दूर करने के लिए तथा शरीर को स्वस्थ व साधना योग्य बनाने के लिए हठयोगियों ने षटकर्मों का विधान किया है। यद्यपि महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में इनको शौच के अन्तर्गत रखा है। परन्तु समय और अनुभव ने हठयोगियों को सिखाया कि प्राणायाम आदि क्रियाओं से जितने समय में शरीर के मल दूर किये जाते हैं, उससे कम समय में षट्कमों द्वारा शरीर के मल दूर किये जा सकते हैं। इसलिए इन कर्मों की आवश्यकता को अनुभव करते हुए इनका विकास किया गया। इन षट्कर्मों का विधान इस प्रकार किया गया कि ये सम्पूर्ण शरीर की शुद्धि करने में समर्थ हो सके।
हठयोग व योग के अन्य ग्रन्थों में प्राणायाम के महत्व को एक मत से स्वीकार किया गया है। हठयोगप्रदीपिका में प्राणायाम को मन को स्थिर करने वाला माना है। मनुस्मृति में इन्द्रियों के सभी दोषों को दूर करने के लिए प्राणायाम का निर्देश किया गया है। योगवशिष्ट में प्राणायाम को राज्य से मोक्ष तक की सम्पदायें प्रदान करने वाला बताया गया हैं। प्राणायाम के ये सभी लाभ तभी प्राप्त हो सकते हैं, जब प्राणायाम सिद्ध कर लिया गया हो और प्राण शरीर में सूक्ष्म से सूक्ष्म नाड़ियों में संचरण करने लगे। वह तभी सम्भव है, जब शरीर की स्थूल व सूक्ष्म नाड़ियाँ मलों से रहित हो गयी हो अन्यथा प्राणायाम बहुत समय में सिद्ध होगा तथा शरीर में विकार उत्पन्न हो सकते हैं। इसीलिए हठयोग के ग्रंथों में प्राणायाम साधना से पूर्व षट्कर्मों के अभ्यास का विधान किया है जिससे शरीर मलों से रहित हो सके और प्राणायाम का पूरा लाभ प्राप्त किया जा सके।
स्वामी चरणदास जी भी पहले षटकर्म करने के ही पक्ष में हैं। वे कहते हैं-
पहले ये सब साधिये, काया होवे शुद्धि।
रोग न लागे देह को, उज्ज्वल होवे बुद्धि (भक्तिसागर)
अर्थात् साधना में प्रथम षट्कर्मों का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि इनके करने से शरीर शुद्ध हो जाता है। शरीर में कोई रोग नहीं रह पाता अर्थात् शरीर निरोग हो जाता है तथा बुद्धि भी प्रकाशमान् हो जाती है जिससे यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है।
हठयोग साधना में षट्कर्मों का उद्देश्य यही है कि इनके द्वारा शरीर को स्वस्थ बनाएँ जिनसे साधना के अन्य अंगों का भी पूरा लाभ प्राप्त किया जा सके और साधनारत रहकर अपने चरमलक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।
षट्कर्मों की उपयोगिता- Utility of the body cleansing process
मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से षटकर्मों की अत्यधिक उपयोगिता है। षट्कर्मों के द्वारा शरीर के मलों व विषाक्त तत्वों को दूर किया जाता है। षट्कर्म शरीर की चपापचय क्रिया को नियन्त्रित व सुव्यवस्थित करते हैं। षटकर्मों की क्रियायें शरीर का कायाकल्प कर उसे रोगमुक्त, दीर्घायु व स्वस्थ करती हैं। हठयोग में वर्णित षट्कर्मो के अभ्यास से दीर्घकाल तक युवावस्था को बनाया रखा जा सकता है। इनके अभ्यास से नाक, कान, आँख, गले, फेफड़े, आमाशय व पूरी आहार नाल से सम्बन्धित रोगों को तो प्रत्यक्ष रूप से ही ठीक किया जा सकता है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से ये समस्त शरीर को प्रभावित करते हैं तथा शरीर को निरोगी बनाते हैं। हठयोग के ग्रन्थों में इनकी उपयोगिता बताते हुए कहा गया है कि षट्कर्मो के अभ्यास से कफ, वात व पित्त रोग, कुष्ठ रोग, प्लीहा, यकृत फेफड़ों तथा उदर के रोग दूर होते हैं।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए तो औषधियों का प्रयोग भी किया जा सकता है। फिर इन कठिन षटकर्मों का ही अभ्यास क्यों किया जाये अथवा जब योग साधना में भी केवल प्राणायाम को ही सर्वरोगों का नाशक बताया है तो फिर उसी का अभ्यास क्यों न किया जाये चिन्तन करने पर ये दोनों शंकायें निराधार प्रतीत होती है। प्रथम शंका के सम्बन्ध में जब औषधियों पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि भले ही चिकित्सा पद्धतियों में उपयोगी से उपयोगी औषधियों की खोज कर ली गयी हो किन्तु फिर भी वे शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने में समर्थ नहीं है। अधिकतर औषधियाँ रोगों की चिकित्सा नही करती बल्कि उनका शमन करती हैं। रोग कुछ समय के लिए शान्त हो जाता है और पुनः तीव्रवेग के साथ उपस्थित हो जाता है। अधिकतर औषधियों में यह कमी है कि एक रोग को दूर करती हैं तो दूसरी ओर अन्य कई रोगों को उत्पन्न कर देती है। इनके विपरीत यदि षटकर्मों का अभ्यास किया जाये तो वे शरीर को पूर्ण आरोग्य प्रदान करते हैं। ये शरीर से मलों का निष्कासन कर देते हैं और कोई अन्य विकार उत्पन्न नहीं होने देते। शरीर से मर्लों की निवृत्ति होते ही आरोग्य प्राप्त हो जाता है।
दूसरी शंका कि जब प्राणायाम सब रोगों को समाप्त कर देता है तो फिर षटकर्मों का अभ्यास क्यों किया जाये। तो इस पर चिन्तन करने से ज्ञात होता है कि यह कथन सही है कि प्राणायाम सर्वरोगों का नाशक है। किन्तु जितना समय प्राणायाम के द्वारा रोगों को दूर करने में लगता है। उससे बहुत कम समय में षट्कर्मो के द्वारा रोगों को दूर किया जा सकता है। यदि केवल प्राणायाम का ही अभ्यास किया जाये तो रोग कठिनता से दूर होते हैं, जबकि प्राणायाम से पूर्व षटकर्मो का अभ्यास किया जाए तो रोग आसानी से और शीघ्रता के साथ दूर हो जाते हैं। इसीलिए हठयोग के ग्रन्थों में षटकर्मों को प्राणायाम से पूर्व करने का विधान किया गया है।
अगर हम उपनिषदों व वेदों का अवलोकन करें तो उपनिषदों व वेदों में कहा गया है 'जीवेम: शरदः शतम' अर्थात हम सौ वर्ष तक जीवित रहें। यह केवल एक विचारधारा ही नहीं, अपितु व्यावहारिक सत्य है। मनुष्य का शरीर यदि विकार रहित रहे तो यह सौ वर्षों से भी अधिक जीवित रह सकता है। भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक पुरुष हुए हैं, जिन्होंने कई सौ वर्षों का आरोग्य पूर्ण व सुखपूर्वक जीवन जिया है।
हमारे शरीर के तीनों दोष वात, पित्त व कफ शरीर के आधार स्तम्भ है। यदि ये तीनों समान अवस्था में बने रहें तो शरीर स्वस्थ व निरोग बना रहता है। इसके विपरीत इनकी विषम अवस्था होने पर शरीर में विभिन्न रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आयुर्वेद में वात के कुपित होने से 80 प्रकार के रोग, पित्त के कुपित होने से 40 प्रकार के रोग व कफ के कुपित होने से 20 प्रकार के रोगों का उत्पन्न होना माना गया है। इन सभी प्रकार के रोगों को दूर करने के लिए आयुर्वेद में स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन व वस्ति ये पंच कर्म बताए गए हैं। उसी प्रकार योग में षटकर्मों का विधान किया गया है।
षट्कर्मों के द्वारा जहाँ शरीर स्वस्थ, निरोग व ओजस्वी बनता है, वहीं दूसरी ओर मन में शान्ति व स्फूर्ति आती है तथा बुद्धि भी निर्मल व तीक्ष्ण हो जाती है। वर्तमान समय में विभिन्न शोध संस्थानों ने यह स्पष्ट किया है कि शोधन क्रिया (षटकर्म) शरीर व मन दोनों से सम्बन्धित रोगों के उपचार में एक अचूक एवं दिव्य रयासन का कार्य करते हैं। षटकर्म जहाँ शरीर के आन्तरिक स्थूल अंगों की शुद्धि करते हैं, वहीं इन्द्रियों, मन व बुद्धि जैसे सूक्ष्म करणों को भी मल रहित कर शान्ति प्रदान करते हैं।
इस आधार पर हम देखते हैं कि आन्तरिक शुद्धि, आरोग्यता तथा सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए षटकर्मों की उपयोगिता सिद्ध होती है, वहीं दूसरी ओर षटकर्म मन व बुद्धि को भी एकाग्र व शान्त करते है और जिज्ञासु साधक के लिए मोक्ष तक का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
षटकर्मों के फल का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
षटकर्मनिर्गतस्थॉल्यकफ दोषमलादिक:।
प्राणायामं ततः कुर्यादनायासेन सिद्धयति।। (हठयोगप्रदीपिका -2/37)
अर्थात षटकर्मों के अभ्यास से साधक के शरीर की स्थूलता दूर हो जाती है तथा बीस प्रकार के कफ दोष, दूषित वात, पित्त आदि मल दूर हो जाते हैं जिससे प्राणायाम आदि करने में शीघ्र सफलता मिलती है। इस प्रकार हठयोग में षट्कर्मों का बहुत अधिक महत्व प्रतिपादित किया गया है और सामान्यतः षटकर्म का महत्वपूर्ण फल शुद्धिकरण है और जब शरीर का शुद्धिकरण होता है तब शरीर में कोई विकार नहीं रहते।
हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य
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