7 Chakras in Human Body
हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है।'चक्र' शब्द का अर्थ-
1. मूलाधार चक्र- यह ऊर्जा चक्र मेरूदण्ड के मूल में स्थित है। मूलाधार का शाब्दिक अर्थ मूल का अर्थ जड़ तथा आधार का अर्थ जगह होता है। मनुष्यों में विकास यात्रा का प्रस्थान बिन्दु मूलाधार होता है। मूलाधार उत्सर्जन संस्थान तथा जनन अंगों को नियन्त्रित करता है। इसका सम्बन्ध नासिका तथा प्राण शक्ति से होता है। मूलाधार को सक्रिय नासिकाग्र दृष्टि के अभ्यास द्वारा किया जा सकता है।
मूलाधार चक्र की आकृति चतुष्कोण रक्त वर्ण चार दलों वाला कमल होता है। इसके भीतर पीले रंग का वर्ग होता है। चारों दलों में अक्षर अर्थात वर्ण है। चारों पंखुडियों पर वं शं षं सं ये चार मात्रिका वर्ण है। चार मात्रिका वर्णो की चार ही वृत्तियाँ है काम, क्रोध, लोभ और मोह। चतुष्कोण युक्त सुवर्ण रंग के सहश पृथ्वी तत्व का मुख्य स्थान है, इसका तत्व बीज 'लं' है और इस पृथ्वी तत्व का गुण गन्ध है। इसमें लोक भू-लोक है। तत्व बीज का वाहन ऐरावत हाथी है। जिसके उपर इन्द्रदेव विराजमान है। इसके अधिपति देवता चतुर्मुख वाले ब्रहमा जी है। वह अपने शक्ति चतुर्भुजा डाकिनी के साथ विराजमान है।
मूलाधार चक्र के ध्यान का फल- इसके ध्यान का फल इस प्रकार है आनन्द व आरोग्यता का उदय होना, वाक्य सिद्धि, सृजनात्मकता, काव्य सिद्धि आदि दक्षता प्राप्त करना आदि विशेष ल्राभ है।
2. स्वाधिष्ठान चक्र- मुलाधार चक्र से दो अंगुल ऊपर पेडू के पास स्वाधिष्ठान का स्थान है। स्व का अर्थ है स्वयं और अधिष्ठान का अर्थ जगह होता है। जब स्वाधिष्ठान में चेतना और ऊर्जा कार्य करने लगती है तो साधक में स्व तथा अहम की चेतना जाग्रत होने लगती है। स्वाधिष्ठान व मूलाधार मेँ निकटतम सम्बन्ध होता है। यह जनन अंगों से सम्बन्धित ग्रन्थियों को प्रभावित करता है।
इस चक्र की आकृति सिन्दुरी रंग के प्रकाश से युक्त छ: पंखुडी-दलों वाला कमल के समान हैं। इन छ: दलों पर बं, भं, मं, यं, रं, लं, ये छ: मात्रिका वर्ण हैं । इन छ दलों की छः प्रकार की वृत्तियां है। ये है प्रश्रय, अवज्ञा, मूर्च्छा, विश्वास, सर्वनाश और क़्रूरता। इसमें अद्धर्चन्द्राकार युक्त जल तत्व 'बं' श्वेत रंग का मुख्य स्थान है। जल तत्व का बीज 'बं' है इस जल तत्व का गुण रस है। इसका लोक भुवर्लोक है। जल तत्व बीज का वाहन मकर है। जिसके उपर जल देवता वरुणदेव विराजमान है। इसके अधिपति देवता विष्णु हैं जो अपनी चतुर्भुजा वाली राकिनी शक्ति के साथ शोभायमान है।
स्वाधिष्ठान चक्र के ध्यान का फल- इसके बीज मंत्र का मानसिक जाप करते हुए स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान करने से प्रबुद्ध बुद्धि का उदय होता है। तथा जिह्वा में सरस्वती का वास होता है तथा नवनिर्माण की शक्ति प्राप्त होती है।
3. मणिपुर चक्र- मणिपूर चक्र हमारे शरीर में मेरूदण्ड के पीछे स्थित होता है। मणिपुर का शाब्दिक अर्थ मणि का अर्थ मोती तथा पुर का अर्थ नगर होता है अत: मणिपूर को मोतियों, मणियों का नगर भी कहा जाता है। यहाँ नाडियों के मिलन के उपरान्त तीव्र आलोक का विकरण होता है। इस आलोक की तुलना योग ग्रन्थों में जाज्यल्यमान मोतियों की आभा से की गई है। मणिपुर में अग्नि तत्व स्थित माना जाता है। जो जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। मणिपुर चक्र का संबंध आत्मीकरण, प्राण ऊर्जा और भोजन के पाचन से है।
मणिपुर चक्र का स्थान नाभिमूल है। इसकी आकृति अरुण आभा युक्त आलोकित दस दलों वाले कमल के समान होती है, इनके दस दलों में दस मात्रिका वर्ण है डं, ढं, णं, तं, थं, दं, थं, नं, पं, फं, इन दस मत्रिका वर्णों या अक्षरों की ध्वनियाँ विभिन्न प्रकार से होकर निकलती है। इन दस दलों की दस वृत्तियाँ इस प्रकार है लज्जा, ईर्ष्या, सुषुप्ति, विषाद, कषाद, तृष्णा, मोह, घृणा और भय। त्रिकोणाकार रक्तवर्ण अग्नितत्व का मुख्य स्थान है। अग्नितत्व का बीज 'रं' है। अग्नितत्व की स्वाभाविक गुणानुसार इस तत्वबीज की गति ऊपर की ओर होती है तत्वबीज का वाहक मेष है और उसके ऊपर अग्निदेवता विराजमान हैं इसका अधिपति देवता इन्द्र अपनी चतुभुर्जा शक्ति लाकिनी के साथ शोभायमान है।
मणिपुर चक्र के ध्यान का फल- अग्नि के ध्यान बीज मंत्र 'रं' का ध्यान करने से मानसिक कायव्यूह का ज्ञान हो जाता है और पालन तथा संहार की शक्ति आती है। योगी तेजस्वी हो जाता है। शरीर कान्तियुक्त हो जाता है।
4. अनाहत चक्र- चौथे चक्र का नाम अनाहत चक्र है। हमारे शरीर में स्थित मेरूदण्ड में हृदय के पीछे अनाहत चक्र है। अनाहत यदि शाब्दिक अर्थ लिया जाए तो अनाहत का अर्थ होता है 'चोट नहीं करना' इस अनाहत चक्र का स्थान हृदय प्रदेश है। अनाहत चक्र आकृति परम उज्जवल नव पुष्पित कमलाकार धूसर रंग युक्त है। इस चक्र में बारह दल होते है, बारह दलों पर बारह मात्रिका वर्ण है। कं, खं, गं, घं, डं, चं, छं, जं, झं, नं, टं, ठं, इन द्वादस वायुतत्व के गुण धर्म वृत्तियाँ है- आशा, चिन्ता, चेष्टा, मतता, दम्भ, विफलता, विवेक, अंहकार, कपटता, वितर्क और अनुताप, वायुतत्व का बीज “यं' है और इस तत्वबीज की गति तिर्यक गति है। वायुतत्व का गुण स्पर्श है। इसको शास्त्र में दिव्य लोक भी कहा गया है। इसका अधिपति देवता रुद्र है जो अपनी त्रिनेत्रा चतुर्भुजा शक्ति काकिनी के साथ विराजमान है। षटकोणयुक्त इस चक्र का यन्त्र है और उसका रंग ध्रूमवर्ण है।
अनाहत चक्र के ध्यान का फल- वायुतत्व के बीज “यं' का मानसिक जाप करते हुए इस चक्र का ध्यान करने से वाक् अधिप्तिय, अर्थात कवित्व शक्ति प्राप्त हो जाती है। ध्यान अधिक करने से 10 प्रकार के नाद तथा श्रुतिगोचर होने लगते है।
5. विशुद्धि चक्र- पांचवा चक्र विशुद्धि चक्र हमारे शरीर में स्थित मेरूदण्ड में कण्ठ के पीछे स्थित है। इसका शाब्दिक अर्थ 'वि' अर्थात विशेष, जिसकी तुलना नहीं हो सकती है और शुद्धि का अर्थ शुद्ध करने से लिया जाता है। विशुद्धि चक्र शरीर में विषाक्त तत्वों को फैलने से रोकता है। इसका प्रभाव स्वर यंत्र, गले, टॉसिल, आदि ग्रंथियों पर पड़ता है।
इसकी आकृति नील आभा युक्त खिले हुए कमल के समान है। इसमें 16 दल होते है। सोहल दलों पर सोलह मात्रिका वर्ण हैं- अं, आं, इं, ई, उं, ऊं, ऋं, ऋ, लृं, एं, ओं, औं, आं, अः। इन सोलह दलों पर आकाश तत्व की वृत्तियों है जो सोलह है- निषाद, ऋषभ, गान्धार, षडश, मध्यम, धौवत, पंचम ये सात स्वर रूप में है और अं, हूं, फट, वषट, स्वधा, स्वाहा स्वर रूप में है और अमृत यह बिना स्वर के हैं। आकाश तत्व का 'हं' बीज है। इस तत्व की गति गम्भीर होती है। आकाश तत्व का गुण 'शब्द' होता है। जो ऊपर की ओर गति करने वाला है। आकाश तत्वबीज का वाहन हस्ती जिसके ऊपर प्रकाश देवता है। इसके अधिपति देवता पंच मुख वाले सदाशिव हैं जो अपनी शक्ति चर्तुभुज, 'शाकिनी' के साथ विराजमान है। इसका यन्त्र पूर्णचन्द्रमा के वृत्ताकार आकाश मण्डल के समान है।
विशुद्धि चक्र के ध्यान का फल- आकाश तत्व का बीज 'हं' का जाप करते हुए विशुद्धि चक्र का ध्यान करना चाहिए। विशुद्धि चक्र में ध्यान करने से भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों का ज्ञान हो जाता है। साधक ज्ञानवान, तेजस्वी, शांत चित्त और दीर्घजीवी हो जाता है।
6. आज्ञा चक्र- छटा चक्र आज्ञाचक्र कहलाता है। आज्ञा चक्र हमारे शरीर में मेरूदण्ड के उपरी छोर पर भूमध्य के पीछे स्थित होता है। इसका सम्बन्ध पिनियल ग्रन्थि से होता है। इसी को तीसरा नेत्र भी कहा जाता है इस चक्र की आकृति दो दलों वाला कमल के समान होती है। दोनों दलों पर मात्रिका वर्ण हं' और “क्ष' है। इनकी वृत्तियाँ भी दो ही है प्रवृत्ति और अहंमन्यता। इसका तत्व महत तत्व है। इसके तत्वबीज ऊँ है और तत्व बीज की गति नाद है। तत्वबीज के वाहन नाद पर लिंग देवता विराजमान हैं। इसका अधिपति देवता ज्ञान प्रदाता शिव है जो कि चतुर्भुजा षड़ानना (छ: मुखवली) 'हाकिनी' शक्ति के साथ शोभायमान है। इसका यन्त्र लिंगाकार के समान वर्तुल है।
आज्ञा चक्र के ध्यान का फल- इस चक्र का ध्यान, ऊँ बीज मंत्र का मानसिक जप करने से प्रतिभ चक्षु या दिव्य नेत्र खुल जाते है योगी को दिव्य-दृष्टि मिलती है। दिव्य योग दृष्टि प्राप्त योगी को विश्व-ब्रहमाण्ड में हर तत्व का ज्ञान हो जाता है। उससे कोई भी तत्व अज्ञात नहीं रहता है।
7. सहस्रार चक्र- सबसे ऊपर और सबके अन्त में यह सहस्रार चक्र, सहस्त्र दल कमल के रूप में विद्यमान है। यह सहस्रार चक्र के सूक्ष्म स्वरूप का स्थूल रूप मात्र है। इसका स्थान, जो सभी शक्तियों का केन्द्र स्थान है ब्रह्मताल या ब्रहमरंध के ऊपर मस्तिष्क में है। विभिन्न प्रकार के रंगों के प्रकाश से युक्त हजार दलों वाले कमल के समान इसकी आकृति है। वह कमल एक छत्री के समान अर्ध: मुख विकसित है। इन सहस्र दलों पर मत्रिका समूह अं से लेकर 'क्ष' विद्यमान है। जिसमें समस्त स्वर और व्यंजन वर्ण समूह विद्यमान है। इसका तत्व तत्वातीत है। बिंदु तत्वबीज का वाहन है तथा अधिपति देवता परब्रह्म (शिव) हैं। जो अपनी महाशक्ति के साथ शोभा पा रहे हैं। इसका लोक अन्तिम सत्य लोक है। इससे ऊपर कोई लोक नहीं है।
इस सहस्रार चक्र का यन्त्र शुभ आभा युक्त पूर्ण चन्द्रमा के समान वर्तुल है। वही पर इस यन्त्र में कुण्डलिनी शक्ति उपस्थित होकर सदैव परमात्मा के साथ युग्म रूप में पर महाशक्ति से मिलन होता है। यहां पर शिव और शक्ति का मिलन होता है।
कुण्डलिनी शक्ति परम शिव के साथ लीन होने के साथ ही विभिन्न चक्रों की शक्तियों अहंकार, चित्त, बुद्धि तथा मन के साथ सम्पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन हो जाती है तत्पश्चात साधक को इस जगत का भी भान नहीं रहता और उसे असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति हो जाती है। इसका फल अमरत्व या अमरपद की प्राप्ति होती है।
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