Skip to main content

कुण्डलिनी का अर्थ, परिभाषायें, योग विज्ञान के अनुसार कुण्डलिनी का स्थान

कुण्डलिनी की अवधारणा (Concept of Kundalini)

प्रत्येक योग साधक की कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया के प्रति अगाध जिज्ञासा रहती है। प्रत्येक योग अनुयायी अवश्य ही यह इच्छा मन में संजोए रखता है कि वह भी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत कर इसकी विभूतियों तथा उपलब्धियों से लाभान्वित हो सके। परन्तु कुण्डलिनी शक्ति तभी जाग्रत हो पाती है जब मन को वास्तव में कामनाओं तथा वासनाओं से मुक्त कर लिया जाए। जब कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है तो मन, प्राण और जीव के साथ सुषुम्ना में प्रवेश करता है और चिद्आकाश में ही सारा प्रत्यक्ष दर्शन होता है। कुण्डलिनी योग में सम्पूर्ण शरीर में संग्रहित शक्ति का भगवान शिव के साथ यथार्थ में मिलन होता है।

परन्तु साधकों की महती अभिलाषा व आकांक्षा के बावजूद ऐसे कुछ गिने चुने ही होते है। जो सफलतम रीति से कुण्डलिनी जाग्रत कर पाये हों। अधिकतर साधको को शाब्दिक एवं बौद्धिक सन्तोष ही करना पड़ता है। इसका कारण कुण्डलिनी शक्ति की सही जानकारी का अभाव व उपयुक्त मार्गदर्शन का ना होना। कुण्डलिनी शक्ति मानव शरीर में आध्यात्मिक शक्ति के महत्वपूर्ण केन्द्र के कुछ ऐसे सुषुप्त बीज हैं, यदि उनका उत्कर्ष हो जाए तो मानव योग की उच्च अवस्था, उच्च पराकाष्ठा तक पहुँच कर अपने जीवन को दिव्य बना सकता है।

कुण्डलिनी का अर्थ- संस्कृत व्याकरण पर दृष्टिपात करें तो कुण्डलिनी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो मूल शब्दों से हुयी है। 'कुण्डल' एवं 'कुण्ड', कुण्डल का तात्पर्य है गोल फन्दा या घेरा, तथा कुण्ड का तात्पर्य है कोई गहरा स्थान, गर्त, छेद या गड्ढा। वैदिक काल से ही यज्ञ हवन की प्रक्रिया भी कुण्ड में ही होती रही है योगियों के अनुसार कुण्डलिनी शब्द का तात्पर्य उस शक्ति से है जो गुप्त व निष्क्रिय अवस्था में मूलाधार चक्र में पड़ी रहती है। ऐसी ही गुप्त शक्ति की तिजोरी कुण्डलिनी शक्ति है। वह दैवीय ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से युक्त है। कुण्डलिनी शक्ति ने ही दुर्गा, काली, महालक्ष्मी, महासरस्वती आदि नामों और रूपों को धारण किया है। कुण्डलिनी शक्ति ही विश्व में प्राण विद्युत बल, चुम्बकत्व, संयोग, गुरूत्वाकर्षण को संजोए हुए है।

कुण्डलिनी की परिभाषायें- 

हठ प्रदीपिका के अनुसार-

सशैलवनधात्रीणां यथाधारोडहिनायक:। 

सर्वेषां योगतन्त्राणां तथा धारो हि कुण्डली।। (हठ प्रदीपिका)

जिस प्रकार सर्पो के स्वामी शेषनाग पर्वत, वन सहित सम्पूर्ण पृथ्वी के आधार है। उसी प्रकार सम्पूर्ण योग तंत्रों का आधार कुण्डलिनी है। 

कुण्डली कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता। 

सा शक्तिश्चालिता येन स मुक्तो नात्र संशय:।। (हठ प्रदीपिका) 

 कुण्डलिनी सर्प के समान टेडी-मेठी आकार वाली बताई गयी है। उस कुण्डलिनी शक्ति को जिसने जाग्रत कर लिया वह मुक्त हो जाता है। इसमें संदेह नहीं है। 

शिव संहिता के अनुसार- 

तत्र विघुल्लताकारा कुण्डली परदेवता 

सार्द्धत्रिकरा कुटिला सुषुम्ना मार्ग संस्थिता।। (शिव संहिता) 

इसी मेँ विधुतलता के समान परम् देवतारूप कुण्डलिनी विद्यमान है, जो साढ़े तीन आवृत्ति से टेढी सुषुम्णा मार्ग में स्थित है। 

जगत्संष्टिरुपा सा निर्माणे सततोदता। 

वाचामवाच्या वाग्देवी सदा देवैर्नमस्कृता।। (शिव संहिता) 

वह जगतरचना स्वरूप निर्माण में सतत उद्यमरूप है। वाणियों का उच्चारण कराने वाली वही वाग्देवी है। वह सदा देवताओं द्वारा नमस्कार की जाती है। 

योग विज्ञान के अनुसार- “कुण्डलिनी सारे संसार की आधारभूत तथा मानव शरीर में स्थित जीवन अग्नि है। शास्त्रों में इसे ब्राहमी शक्ति कहा गया है। यह शक्ति ही जीव के बंधन एवं मोक्ष का कारण हैं।

कुण्डलिनी का स्थान- मानव शरीर की रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से में सोई हुई एक गुप्त शक्ति है। पुरूष के शरीर में इसकी स्थिति मूत्राशय और मलाशय के बीच पेरिनियम में है स्त्रियों में यह गर्भाशय व सविक्स में स्थित है,। वस्तुतः यह केन्द्र एक स्थूल संरचना है। जिसे मूलाधार चक्र कहते है। 

आधुनिक मनोविज्ञान के मतानुसार इसे मानव में निहित अचेतन शक्ति कहा जा सकता है। पुराणों में जहां एक ओर इसे काली कहा गया वहीं दूसरी ओर शैव दर्शन ने इसे चारों तरफ से सर्प से लिपटे शिवलिंग के माध्यम से स्पष्ट किया है। कुण्डलिनी कुण्डली मारे एक सर्प के रूप में निवास करती है, जब यह सर्प जागता है। तब वह सुषुम्ना के माध्यम से सभी चक्रों को जाग्रत करते हुए ऊपर की ओर बढ़ता है । 

साधकों ने सुषुम्ना को एक प्रकाशमान स्तम्भ के रूप में माना है। एक सुनहरे पीले सर्प के रूप में देखा है। कभी उन्होंने इसे एक दस इंच लम्बे चमकीले काले सर्प के रूप में जिसकी ओंखे अंगारों की तरह लाल है। जीभ बाहर निकली है, और जीभ में बिजली सी चमक रही है। उसे रीढ़ में विचरण करते देखा है। कुण्डलिनी साढ़े तीन फेरे मारे सुषुप्त अवस्था में पड़ी है। साढ़े तीन फेरे का तात्पर्य यहाँ ऊँ की तीन मात्राओं से है। जो तीनों कालों भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों गुणों सतोगुण, रजोगुण तमोगुण, चेतना के तीन अनुभव जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों लोकों धरती आकाश पाताल तीन प्रकार के अनुभव स्वानुभूतिमूलक, इन्द्रियानुभव एवं अनुभवरहितता की प्रतीक है और आधी कुण्डली उस स्थिति की प्रतीक है जहाँ न जाग्रत अवस्था है और न ही सुषुप्ता अवस्था और न ही स्वप्न अवस्था इस प्रकार यह साढ़े तीन कुण्डली विश्व के समस्त अनुभवों को इंगित करती है।

उपनिषदों में भी कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन किया गया है। कठोपनिषद में यम - नचिकेता संवाद में पंचाग्नि विद्या के रूप में इसका वर्णन किया गया है। 

श्वेताश्ववरतर उपनिषद में कुण्डलिनी शक्ति को योगाग्नि कह कर सम्बोधित किया गया है।

महान-साधिका मैडम ब्लेवेटस्की ने इसे 'कास्मिक इलेक्ट्रिसिटी” कहा है। 

ईसाईयों द्वारा बाइबिल में इसे 'साधको का पथ' या स्वर्ग का रास्ता” कहा गया है तथा कुण्डलिनी जागरण को बताया गया है।

तंत्र में कुण्डलिनी को विश्व जननी और सृष्टि संचालिनी शक्ति कहा गया है। 

इन सभी कथनों से यह स्पष्ट होता है कि हमारे आध्यात्मिक जीवन में जो कुछ भी होता है। वह सभी कुण्डलिनी जागरण से ही सम्बन्धित होता है। क्योकि किसी भी प्रकार की योग साधना का सफल होना कुण्डलिनी शक्ति के जागरण द्वारा ही संभव है।

यह कुण्डलिनी जागरण बहुत आसान भी है और दुष्कर्म भी है क्योंकि यदि कुण्डलिनी शक्ति को नियन्त्रित व जाग्रत किया जाए तो यही कुण्डलिनी शक्ति दुर्गा का सोम्य रूप धारण कर जीवन को उत्कृष्ट बना देती है। परन्तु यदि इसे नियंत्रित न किया जा सका तो वही कुण्डलिनी शक्ति महाकाली बनकर प्रलय के दृश्य उपस्थित करती है। कुछ लोग मानसिक रूप से स्थिर ना होने के कारण अपने अचेतन के सम्पर्क में आ जाते हैं। जिस कारण उन्हें अशुभ व भयानक दृश्य दिखाई देने लगते है। परन्तु निरन्तर अभ्यास के द्वारा जब अचेतन शक्ति का जागरण होता है, तो यह शक्ति उर्ध्वगामी हो आनन्दप्रदायिनी, उच्च चेतना दुर्गा का साौम्य रूप धारण कर लेती है। 

कुण्डलिनी जागरण के उपाय

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

चित्त प्रसादन के उपाय

अष्टांग योग

Comments

Popular posts from this blog

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...