प्रत्येक योग साधक की कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया के प्रति अगाध जिज्ञासा रहती है। प्रत्येक योग अनुयायी अवश्य ही यह इच्छा मन में संजोए रखता है कि वह भी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत कर इसकी विभूतियों तथा उपलब्धियों से लाभान्वित हो सके। परन्तु कुण्डलिनी शक्ति तभी जाग्रत हो पाती है जब मन को वास्तव में कामनाओं तथा वासनाओं से मुक्त कर लिया जाए। जब कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है तो मन, प्राण और जीव के साथ सुषुम्ना में प्रवेश करता है और चिद्आकाश में ही सारा प्रत्यक्ष दर्शन होता है। कुण्डलिनी योग में सम्पूर्ण शरीर में संग्रहित शक्ति का भगवान शिव के साथ यथार्थ में मिलन होता है।
परन्तु साधकों की महती अभिलाषा व आकांक्षा के बावजूद ऐसे कुछ गिने चुने ही होते है। जो सफलतम रीति से कुण्डलिनी जाग्रत कर पाये हों। अधिकतर साधको को शाब्दिक एवं बौद्धिक सन्तोष ही करना पड़ता है। इसका कारण कुण्डलिनी शक्ति की सही जानकारी का अभाव व उपयुक्त मार्गदर्शन का ना होना। कुण्डलिनी शक्ति मानव शरीर में आध्यात्मिक शक्ति के महत्वपूर्ण केन्द्र के कुछ ऐसे सुषुप्त बीज हैं, यदि उनका उत्कर्ष हो जाए तो मानव योग की उच्च अवस्था, उच्च पराकाष्ठा तक पहुँच कर अपने जीवन को दिव्य बना सकता है।
कुण्डलिनी का अर्थ- संस्कृत व्याकरण पर दृष्टिपात करें तो कुण्डलिनी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो मूल शब्दों से हुयी है। 'कुण्डल' एवं 'कुण्ड', कुण्डल का तात्पर्य है गोल फन्दा या घेरा, तथा कुण्ड का तात्पर्य है कोई गहरा स्थान, गर्त, छेद या गड्ढा। वैदिक काल से ही यज्ञ हवन की प्रक्रिया भी कुण्ड में ही होती रही है योगियों के अनुसार कुण्डलिनी शब्द का तात्पर्य उस शक्ति से है जो गुप्त व निष्क्रिय अवस्था में मूलाधार चक्र में पड़ी रहती है। ऐसी ही गुप्त शक्ति की तिजोरी कुण्डलिनी शक्ति है। वह दैवीय ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से युक्त है। कुण्डलिनी शक्ति ने ही दुर्गा, काली, महालक्ष्मी, महासरस्वती आदि नामों और रूपों को धारण किया है। कुण्डलिनी शक्ति ही विश्व में प्राण विद्युत बल, चुम्बकत्व, संयोग, गुरूत्वाकर्षण को संजोए हुए है।
कुण्डलिनी की परिभाषायें-
हठ प्रदीपिका के अनुसार-
सशैलवनधात्रीणां यथाधारोडहिनायक:।
सर्वेषां योगतन्त्राणां तथा धारो हि कुण्डली।। (हठ प्रदीपिका)
जिस प्रकार सर्पो के स्वामी शेषनाग पर्वत, वन सहित सम्पूर्ण पृथ्वी के आधार है। उसी प्रकार सम्पूर्ण योग तंत्रों का आधार कुण्डलिनी है।
कुण्डली कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता।
सा शक्तिश्चालिता येन स मुक्तो नात्र संशय:।। (हठ प्रदीपिका)
कुण्डलिनी सर्प के समान टेडी-मेठी आकार वाली बताई गयी है। उस कुण्डलिनी शक्ति को जिसने जाग्रत कर लिया वह मुक्त हो जाता है। इसमें संदेह नहीं है।
शिव संहिता के अनुसार-
तत्र विघुल्लताकारा कुण्डली परदेवता
सार्द्धत्रिकरा कुटिला सुषुम्ना मार्ग संस्थिता।। (शिव संहिता)
इसी मेँ विधुतलता के समान परम् देवतारूप कुण्डलिनी विद्यमान है, जो साढ़े तीन आवृत्ति से टेढी सुषुम्णा मार्ग में स्थित है।
जगत्संष्टिरुपा सा निर्माणे सततोदता।
वाचामवाच्या वाग्देवी सदा देवैर्नमस्कृता।। (शिव संहिता)
वह जगतरचना स्वरूप निर्माण में सतत उद्यमरूप है। वाणियों का उच्चारण कराने वाली वही वाग्देवी है। वह सदा देवताओं द्वारा नमस्कार की जाती है।
योग विज्ञान के अनुसार- “कुण्डलिनी सारे संसार की आधारभूत तथा मानव शरीर में स्थित जीवन अग्नि है। शास्त्रों में इसे ब्राहमी शक्ति कहा गया है। यह शक्ति ही जीव के बंधन एवं मोक्ष का कारण हैं।
कुण्डलिनी का स्थान- मानव शरीर की रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से में सोई हुई एक गुप्त शक्ति है। पुरूष के शरीर में इसकी स्थिति मूत्राशय और मलाशय के बीच पेरिनियम में है स्त्रियों में यह गर्भाशय व सविक्स में स्थित है,। वस्तुतः यह केन्द्र एक स्थूल संरचना है। जिसे मूलाधार चक्र कहते है।
आधुनिक मनोविज्ञान के मतानुसार इसे मानव में निहित अचेतन शक्ति कहा जा सकता है। पुराणों में जहां एक ओर इसे काली कहा गया वहीं दूसरी ओर शैव दर्शन ने इसे चारों तरफ से सर्प से लिपटे शिवलिंग के माध्यम से स्पष्ट किया है। कुण्डलिनी कुण्डली मारे एक सर्प के रूप में निवास करती है, जब यह सर्प जागता है। तब वह सुषुम्ना के माध्यम से सभी चक्रों को जाग्रत करते हुए ऊपर की ओर बढ़ता है ।
साधकों ने सुषुम्ना को एक प्रकाशमान स्तम्भ के रूप में माना है। एक सुनहरे पीले सर्प के रूप में देखा है। कभी उन्होंने इसे एक दस इंच लम्बे चमकीले काले सर्प के रूप में जिसकी ओंखे अंगारों की तरह लाल है। जीभ बाहर निकली है, और जीभ में बिजली सी चमक रही है। उसे रीढ़ में विचरण करते देखा है। कुण्डलिनी साढ़े तीन फेरे मारे सुषुप्त अवस्था में पड़ी है। साढ़े तीन फेरे का तात्पर्य यहाँ ऊँ की तीन मात्राओं से है। जो तीनों कालों भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों गुणों सतोगुण, रजोगुण तमोगुण, चेतना के तीन अनुभव जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों लोकों धरती आकाश पाताल तीन प्रकार के अनुभव स्वानुभूतिमूलक, इन्द्रियानुभव एवं अनुभवरहितता की प्रतीक है और आधी कुण्डली उस स्थिति की प्रतीक है जहाँ न जाग्रत अवस्था है और न ही सुषुप्ता अवस्था और न ही स्वप्न अवस्था इस प्रकार यह साढ़े तीन कुण्डली विश्व के समस्त अनुभवों को इंगित करती है।
उपनिषदों में भी कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन किया गया है। कठोपनिषद में यम - नचिकेता संवाद में पंचाग्नि विद्या के रूप में इसका वर्णन किया गया है।
श्वेताश्ववरतर उपनिषद में कुण्डलिनी शक्ति को योगाग्नि कह कर सम्बोधित किया गया है।
महान-साधिका मैडम ब्लेवेटस्की ने इसे 'कास्मिक इलेक्ट्रिसिटी” कहा है।
ईसाईयों द्वारा बाइबिल में इसे 'साधको का पथ' या स्वर्ग का रास्ता” कहा गया है तथा कुण्डलिनी जागरण को बताया गया है।
तंत्र में कुण्डलिनी को विश्व जननी और सृष्टि संचालिनी शक्ति कहा गया है।
इन सभी कथनों से यह स्पष्ट होता है कि हमारे आध्यात्मिक जीवन में जो कुछ भी होता है। वह सभी कुण्डलिनी जागरण से ही सम्बन्धित होता है। क्योकि किसी भी प्रकार की योग साधना का सफल होना कुण्डलिनी शक्ति के जागरण द्वारा ही संभव है।
यह कुण्डलिनी जागरण बहुत आसान भी है और दुष्कर्म भी है क्योंकि यदि कुण्डलिनी शक्ति को नियन्त्रित व जाग्रत किया जाए तो यही कुण्डलिनी शक्ति दुर्गा का सोम्य रूप धारण कर जीवन को उत्कृष्ट बना देती है। परन्तु यदि इसे नियंत्रित न किया जा सका तो वही कुण्डलिनी शक्ति महाकाली बनकर प्रलय के दृश्य उपस्थित करती है। कुछ लोग मानसिक रूप से स्थिर ना होने के कारण अपने अचेतन के सम्पर्क में आ जाते हैं। जिस कारण उन्हें अशुभ व भयानक दृश्य दिखाई देने लगते है। परन्तु निरन्तर अभ्यास के द्वारा जब अचेतन शक्ति का जागरण होता है, तो यह शक्ति उर्ध्वगामी हो आनन्दप्रदायिनी, उच्च चेतना दुर्गा का साौम्य रूप धारण कर लेती है।
कुण्डलिनी जागरण के उपाय
हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य
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