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हठयोग प्रदीपिका में वर्णित आसन

 हठयोगप्रदीपिका में वर्णित आसनों का वर्णन 

Asanas described in HathaYog Pradipika 

हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन का किया गया है | हठयोगप्रदीपिका में स्वामी स्वातमाराम जी ने कहा है-

हठस्य प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यते। 

कुर्यात्तदासन स्थैर्यमारोग्यं चांड्गलाघवम्। ह-प्र. 1/17

अर्थात हठयोग का प्रथम अंग होने से आसन का प्रथम वर्णन करते हैं। आसन प्रथम अभ्यास इसलिए कहा गया है क्योंकि आसन करने से साधक के शरीर में स्थिरता आती है, उसकी चंचलता दूर हो जाती है, पूर्ण आरोग्य प्राप्त हो जाता है तथा शरीर के अंग लघुता को प्राप्त हो जाते हैं। शरीर से तमोगुण का प्रभाव दूर होकर शरीर हल्का हो जाता है।  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित आसनों का वर्णन निम्नलिखित हैं
 

1. स्वस्तिक आसन-  स्वस्तिकासन में साधक के पैरों की स्थिति स्वस्तिक चिन्ह के समान हो जाती है। इसीलिए इसका नाम स्वस्तिक आसन रखा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठ प्रदीपिका में कहा गया है 

जानूर्वोरंतरे सम्यकृत्वा पादतलेउभे। 

ऋजुकाय: समासीनः स्वस्तिकं तत्प्रचक्षते। ह.प्र. 1/ 19


स्वस्तिकासन की विधि- जानु (घुटने) और जंघा के मध्य दोनों पाद तलों को रखकर शरीर को सीधा रखते हुए सावधानीपूर्वक बैठने की स्थिति को स्वस्तिकासन कहा गया है।

स्वस्तिकासन के लाभ- यह एक ध्यानात्मक आसन है। इसके अभ्यास से मन आसानी से एकाग्र हो जाता है।

2. गोमुख आसन- गोमुखासन की स्थिति में दोनों घुटनों की स्थिति गाय के मुख के समान हो जाती है। इसीलिए इसका नाम गोमुखासन रखा गया है। गोमुखासन वर्णन करते हुए हठ प्रदीपिका में कहा गया है 

सव्ये दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपार्थे नियोजयेत्। 

दक्षिणेषपि तथा सव्यं गोमुखं गोमुखाकृति।। ह.प्र. 1/ 20 

गोमुखासन की विधि- दाँयें टखने को कटि के बायें भाग में रखने पर तथा बाँयें टखने को दाँयें भाग में रखने से जो गोमुख के समान आकृति बनती है, उसे ही गोमुखासन कहा जाता है।

गोमुखासन के लाभ- गोमुखासन आसन के अभ्यास से पैर पुष्ट होते हैं। अण्डकोष वृद्धि दूर होती है. तथा मन शान्त होता है।

3. वीर आसन- वीरासन के अभ्यास से वीरों के समान धैर्य की प्राप्ति होती है, इसलिए इसे वीरासन कहा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है

एकं पादमथैकस्मिन् विन्यसेदुरूणि स्थिरम। 

इतरस्मिस्तथा चोरूं वीरासनमितीरितम्।। ह.प्र. 1/21

वीरासन की विधि- वीरासन मे एक पैर बाँयीं जंघा पर और दूसरे पैर को दाँयीं जंघा पर रखकर स्थिर भाव से बैठने की स्थिति को वीरासन कहते हैं।

वीरासन के लाभ- इस आसन के अभ्यास से साधक के पैर पुष्ट होते हैं तथा मन वीरों के समान दृढ़ हो जाता है।  

4. कूर्म आसन- कूर्मासन में शरीर की स्थिति कछुए के समान हो जाती है, इसीलिए इसका नाम कूर्मासन रखा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है. 

गुदं निरुध्य गुल्फाभ्यां व्युत्क्रमेण समाहितः। 

कूर्मासनं भवेदेतदिति योगविदो विदु:।। ह.प्र. 1/22


कूृर्मासन की विधि-  इस आसन को करने में शरीर की स्थिति कछुए के समान हो जातौ है, इसीलिए इसका नाम कूर्मासन रखा गया है। 

कूर्मासन के लाभ-  मधुमेय के रोगी के लिए यह आसन लाभकारी है।

5. कुक्कुट आसन- कुक्कुटासन में मुर्गे के समान शरीर की स्थिति हो जाती है, इसीलिये इस आसन को कुक्कुटासन कहा जाता है। इसके विषय में हठ प्रदीपिका में कहा गया है।

पद्मासनं तु संस्थाप्य जानूर्वोरन्तरे करौ। 

निवेश्य भूमौ संस्थाप्य व्योयमस्थं कुक्कुटासनम्। ह.प्र. 1/23

कुक्कुटासन की विधि- पद्मासन लगाकर फिर जंघाओं और घुटनों के मध्य से दोनों हाथों को निकालकर दोनों हथेलियों को भूमि पर स्थापित करते हुए आकाश में स्थिर रहने की जो स्थिति है। यही कुक्कुटासन है।

कुक्कुटासन के लाभ- कुक्कुटासन के अभ्यास से हाथ व पैर पुष्ट होते हैं तथा वीर्य ऊर्ध्यगामी हो जाता है। उदर के अंग पुष्ट होते हैं।

6. उत्तानकूर्मासन- कूर्मासन की स्थिति को खींचकर रखने को उत्तान कूर्मासन कहा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठ प्रदीपिका में कहा गया है-

कुक्कुटासनबंधस्थो दोर्भ्या संबध्य कंधराम्। 

शैतेकूर्मवदुत्तान एतदुत्तानकूर्मकम्। ह.प्र.1 / 24 

 उत्तानकूर्मासन की विधि- सर्वप्रथम कूर्मासन लगाकर और दोनों हाथों से ग्रीवा को भली प्रकार बाधकर कछुएं के समान चित्त लेट जाने को कूर्मासन कहा जाता है। 

उत्तानकूर्मासन के लाभ- इस आसन के अभ्यास से हाथ पैर पुष्ट होने के साथ साधक इन्द्रियजयी हो जाता है।

7. धनुर आसन- धनुरासन जिस आसन में शरीर की आकृति धनुष के समान हो जाती है, उसी को धनुरासन कहा जाता है। इसका वर्णन करते हुए हठ प्रदीपिका में कहा गया है -

पादांडगुष्ठी तु पाणिभ्यां गृरीत्वा श्रवणावधि। 

धनुराकर्षणं कुर्यात धनुरासनमुच्यते।। ह-प्र. 1/25

धनुरासन की विधि- पेट के बल लेटकर दोनों पैरों के अंगूठों को हाथों से पकड़कर कानों तक धनुष के समान खींचकर रखते है, इसे धनुरासन कहते हैं।

धनुरासन के लाभ- इस आसन के अभ्यास से हाथों व पैरों के जोड़ पुष्ट होते हैं।

8. मत्स्येन्द्रासान-  इस आसन का नाम योगी मत्स्येन्द्रनाथ जी के नाम पर रखा गया है। इसलिये इसे मत्स्येन्द्र आसन कहा गया है इस आसन का वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है- 

वामोरुमूलार्पित दक्षपादं जानोर्बहिर्वेष्टितवामपादम्। 

प्रगृह्टा तिषेत्परिवर्तिताङग श्रीमत्स्यनाथोदितमासनं स्यात्।। ह.प्र. 1/26

मत्स्येन्द्रासन की विधि-  बाँयीं जंघा के मूल में दाँयीं पैर को रखकर तथा बाँये पैर को दाँये घुटने के बाहर रखते हुए विपरीत हाथ से खड़े हुए घुटने को लपेटते हुए बॉयें हाथ को पीछे पीठ पर रखकर बाँयीं ओर गर्दन व कमर मोड़कर पीछे देखें। शरीर की इस स्थिति का नाम ही मत्स्येन्द्रासन है। इसी प्रकार हाथ व पैरों की स्थिति बदलकर दाँयीं ओर से करें।

मत्स्येन्द्रासन के लाभ- यह आसन उदर के अंगों के लिए विशेष लाभकारी है। जठर अग्नि को तीव्र करता है तथा मधुमेह के रोग में लाभकारी है। हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि इसके अभ्यास से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है तथा साधक को ब्रह्मरन्ध से झरने वाली आनन्द क्षुधा का अनुभव होने लगता है।

9. पश्चिमोतान आसन- पश्चिमोतानासन की स्थिति में शरीर के पृष्ठ भाग में खिंचाव उत्पन्न होता है। इसीलिए इसका नाम पश्चिमोतानासन रखा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-

प्रसार्य पादौ भुवि दंडरूपाँ दोर्भ्या पदाग्रद्वितयं गृहीत्वा। 

जानूपरिन्यस्तललाटदेशो वसेदिदं पश्चिमतान माहु:। ह.प्र. 1/ 28


पश्चिमोतानासन की विधि-
दण्ड के समान दोनों पैरों को भूमि पर सामने फैलाकर बैठें। पैरों की एड़ी पंजे मिले रहें। फिर दोनों हाथों से पंजों को पकड़ते हुए माथे को घुटनों के साथ लगायें। दोनों पैर सीधे जमीन से लगे रहने चाहिएँ। शरीर की इस स्थिति का नाम ही पश्चिमोतानासन है।

पश्चिमोतानासन के लाभ- इस आसन को सब आसनों में मुख्य मानते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि यह पश्चिमोतान आसन प्रणव रूप पवन को पश्चिमवाही करता है अर्थात् इसके अभ्यास से प्राण सुषुम्ना नाड़ी में बहने लगता है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। पेट की बढ़ी हुई चरबी को कम करता है। अभ्यासी को यह निरोग करता है तथा नाडियों में बल की क्षमता प्रदान करता है।

10. मयूर आसन-
मयूरासन में शरीर की स्थिति मयूर के समान हो जाती है। इसीलिए इसे मयूरासन कहा जाता है। इसका वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-


धरामवष्टभ्य करद्वयेन तत्कूर्परस्थापितनाभिपाश्रर्व:। 

उच्चासनोदण्डवदुत्थितः खे मायूरमेतत्प्रवंदति पीठम्1। ह.प्र. 1 / 30

मयूरासन की विधि- दोनों हाथों को भूमि पर रखकर दोनों कोहनिया नाभि के पार्श्व भागों में लगाकर पूरे शरीर को दण्ड के समान दोनों हाथों के ऊपर उठाकर रखने से शरीर की जो स्थिति बनती है, उसी का नाम मयूरासन है।

मयूरासन के लाभ- इसके लाभों का वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है कि इसके अभ्यास से गुल्म, जलोदर, प्लीहा आदि रोग शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। वात, पित्त, कफ आदि दोषों को दूर कर आलस्य को भगाता है। अधिक या विषाक्त अन्न को पचाकर पाचन क्रिया को तीव्र करता है।

11. शवासन- शवासन में शरीर की स्थिति शव के समान रहती है। इसीलिए इसका नाम शवासन रखा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठ प्रदीपिका में कहा गया है- 

उत्तानं शववद्भूमौं शयनं तच्छवासनम्। 

शवासन श्रांतिहरं चित्तविश्रान्तिकारकम्।। ह.प्र. 1/32


शवासन की विधि- मृत के समान भूमि पर पीठ को लगाकर सीधा निद्रा के तुल्य लेटना शवासन कहलाता है इसमें शरीर निश्चेष्ट रहता है।

शवासन के लाभ- इस आसन के अभ्यास से शरीर व मन की थकान दूर होकर चित्त शान्त होता है।

12. सिद्धासन-  इस आसन के सिद्ध कर लेने से साधक को अनायास ही अनेक सिद्धिया प्राप्त हो जाती हैं। इसीलिए इसका नाम सिद्धासन रखा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठ प्रदीपिका में कहा गया है-

योनिस्थानकमंप्रिमूलघटितं कृत्वा दृढंविन्यसेत्। 

मेढ्रे पादमथैकमेव हृदये कृत्वा हनुं सुस्थिरम्। 

स्थाणु: संयमितेन्द्रिय4चंत्रद्शा पश्येद्भुुवोरन्तरम्। 

होतन्मोक्षकपाट भेदजनकं सिद्धासनं प्रोच्यते।। ह-प्र. 1/35

सिद्धासन की विधि- बायें पैर की एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवनी पर दृढ़ता के साथ लगाकर तथा दाँयें पेर की एड़ी को उपस्थ इन्द्रिय के ऊपर रखकर ठोढठ़ी को कण्ठकूप में लाकर दोनों भौंहों के मध्य से देखता हुआ अपनी इन्द्रियों को रोककर जब साधक निश्चल भाव से बैठता है तो उसी को योगियों ने सिद्धासन कहा है।

सिद्धासन के लाभ- हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि साधना के लिए किये जाने वाले चौरासी आसनों में सिद्धासन सबसे मुख्य आसन है। क्योंकि इसके करने से शरीरगत बहत्तर हजार नाड़ियों का शोधन हो जाता है। जो आत्मा में ध्यान लगाने वाला मिताहारी पुरुष है, वह केवल सिद्धासन के अभ्यास से ही अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है। इसके दीर्घ समय तक प्रयोग से तीनों बंध स्वयं ही लगने लगते हैं।

13. पद्मासन-  इस आसन में साधक के पैरों की स्थिति कमल की पंखुडियों के समान हो जाती है। इसीलिए इसका नाम पद्मासन रखा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा है-

वामोरूपरि दक्षिणं च चरणं संस्थाप्य वाम॑ तथा
दक्षोरुपरि पश्चिमेन विधिना धृत्वाकराभ्यां इृढम्।
अंड.गुष्ठी हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रमालोकयेत्।
एतद्व्याधिवानाशकारि यभिनां पद्मासनं प्रोच्यते।। ह.प्र. 1/44

पद्मासन की विधि- बायीं जंघा के ऊपर दाहिने पैर के पंजे को रखें। फिर बाँये को दाहिनी जंघा के ऊपर स्थिर करे। तत्पश्चात कमर के पीछे से हाथ लेते हुए दाहिने हाथ से दाहिने पैर का अंगूठा और बॉयें हाथ से बाँयें पैर का अंगूठा पकड़कर ठुडडी को कण्ठकूप में लगाकर दृष्टि को नासाग्र रखते हुए बैठे, उसी को योगियों ने रोगों को नष्ट करने वाला पद्मासन कहा है। योगी मत्स्येन्द्रनाथ ने इसकी विधि में दोनों हाथों को ब्रह्मांजलि मुद्रा में चरणों के ऊपर रखना तथा जिह्वा को दाढ़ों में लगाकर मूल बन्ध लगाने का प्रावधान किया है। यह बद्धपद्मासन की प्रचलित विधि है। पद्मासन में हाथों को घुटनों पर ज्ञानमुद्रा या पैरों पर ब्रह्मांजलि मुद्रा में रखा जाता है।

पद्मासन के लाभ- हठ प्रदीपिका में कहा गया है कि यह सम्पूर्ण व्याधि का नाशक है। कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर ज्ञान का उदय होता है। प्राण और अपान की एकता होती है। चित्त स्थिर हो जाता है तथा आत्म साक्षात्कार होता है।

14. सिंहासन- इस आसन के अभ्यास से साधक सिंह के समान बलवान व निडर हो जाता है। इसीलिए इसका नाम सिंहासन रखा गया है। इसका वर्णन करते हुए हठ प्रदीषिका में कहा गया है-

गुल्फौं च वृषणस्याधः सीवन्याः पार्श्चयोःक्षिपेत।।

 दक्षिणे सव्यगुल्फं तु दक्षगुल्फं तु सव्यके।। ह.प्र. 1/ 50 

हस्ताौ तु जान्वोः संस्थाप्य स्वाडगुली: संम्प्रसार्यच।।

 व्यात्तवक्त्रो निरीक्षेत नासाग्रं तु समाहितः।। हप्र. 1/51

सिंहासन की विधि- अण्डकोषों के नीचे सीवनी नाड़ी के ऊपर दाहिने और बाँयें पैर की एड़ी को दृढता से लगाए और घुटनों के मध्य हथेलियों को दृढता के साथ लगाकर हाथों की अंगुलियों को फैलाकर जिह्वा को बाहर निकालकर दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर स्थिर रखते हुए बैठें। योगियों ने इस स्थिति को सिहांसन कहा है।

सिंह आसन के लाभ- हठ प्रदीपिका में कहा है कि यह आसन सर्वोत्तम आसन है। यह तीनों बंधों को प्रकट करने वाला आसन है।

15. भद्रासन या गोरक्षासन-  इस आसन का अभ्यास गोरक्ष आदि महान् योगी एवं भद्र पुरुषों ने किया है, इसीलिए इसका नाम भद्रासन पड़ा। इसी को कुछ विद्वान् गोरक्षासन भी कहते हैं। इसका वर्णन करते हुए कहा गया है-

गुल्फौ च वृषणस्याधः सीवन्याः पाश्रर्वयोः क्षिपेत्। 

सव्यगुल्फं तथा सब्ये दक्षगुल्फं तु दक्षिणे।। ह.प्र. 1/53 

पार्थपादों च पाणिभ्यां दृढं बदध्वा सुनिश्चलम्। 

भद्रासनं भवेदेतत्सर्वव्याधि विनाशनम्।। ह.-प्र. 1/54

भद्रासन - गोरक्षासन की विधि- वृषणों के नीचे सीवनी नाडी के दोनों ओर टखनों को इस प्रकार रखें जिसमें दाहिना टखना दायीं ओर और बाँयां टखना बॉयी ओर लगा रहे तथा दोनों हाथों से पैरों के पंजों को इस प्रकार पकड़कर रखें कि उनके तल व अंगुलियाँ मिले रहें। ऐसी स्थिति में निश्वल बैठना ही भद्रासन या गोरक्षासन कहा जाता है।

भद्रासन- गोरक्षासन के लाभ- हठ प्रदीपिका में कहा है कि यह आसन समस्त नाड़ियों की शुद्धि करने वाला और समस्त व्याधियों का नाश करने वाला है।

नोट-  उपरोक्त आसनों की विधि हठयोगप्रदीपिका के अनुसार बताई गई है। वर्तमान में कई विद्वानों ने इन विधियों को सरलता व सहजता में बदल करना बताया है। जिज्ञासु साधक को चाहिए कि उचित मार्गदर्शन में ही इन आसनो का अभ्यास करें। 

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हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थ...

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म...

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके त...