प्राणायाम का अर्थ- (Meaning of pranayama)
प्राणायाम शब्द, प्राण तथा आयाम दो शब्दों के जोडने से बनता है। प्राण जीवनी शक्ति है और आयाम उसका ठहराव या पड़ाव है। हमारे श्वास प्रश्वास की अनैच्छिक क्रिया निरन्तर अनवरत से चल रही है। इस अनैच्छिक क्रिया को अपने वश में करके ऐच्छिक बना लेने पर श्वास का पूरक करके कुम्भक करना और फिर इच्छानुसार रेचक करना प्राणायाम कहलाता है।
प्राणायाम शब्द दो शब्दों से बना है प्राण + आयाम। प्राण वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है। अगर प्राण शब्द का विवेचन करे तो प्राण शब्द (प्र+अन+अच) का अर्थ गति, कम्पन, गमन, प्रकृष्टता आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है।
छान्न्दोग्योपनिषद कहता है- 'प्राणो वा इदं सर्व भूतं॑ यदिदं किंच।' (3/15/4) प्राण वह तत्व है जिसके होने पर ही सबकी सत्ता है
'प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम। (प्रश्नेपनिषद 2/6) तथा प्राण के वश में ही सम्पूर्ण जगत है “प्राणस्वेदं वशे सर्वम।? (प्रश्नोे. -2/13)
अथर्वद में कहा गया है-
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।
यो भूतः सर्वेश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्।॥ (अथर्ववेद 11-4-1)
अर्थात उस प्राण को नमस्कार है, जिसके वश में यह सम्पूर्ण संसार है। सब प्राणियों का जो ईश्वर है तथा जिसमें सभी प्रतिष्ठित हैं अर्थात् जिसकी सत्ता से ही सबकी सत्ता है।'
यह प्राण उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर से ही उत्पन्न हुआ है। प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है
“आत्मन एषः प्राणो जायते।! (प्रश्नो. 3/3)
तथा परमेश्वर ने ही उस प्राण का सृजन किया है जो सब प्राणियों का आधार बना।'
स प्राणमसृजत।” (प्रश्नो. 6/4)
प्राणियों का जीवनाधार यह प्राण ही ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ तत्व है
'प्राणो वै ज्येष्ठश्व॒ श्रेष्टच्ध।! . (बृहदारण्यकोप.. 6/1/1)
यह प्राण मुख्य रूप से पांच प्रकार का कहा गया है- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। इसके पाँच उपप्राण भी हैं जिनके नाम है- नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त तथा धनंजय।
(1) प्राण- यह जीवनी शक्ति है। इसी के कारण यह शरीर जीवित रहता है। 'प्राण शब्द दो प्रकार के अर्थ का अभिव्यंजक है। यह सूक्ष्म जीवन शक्ति को प्रकट करता है, उस सारतत्व को, जो हमारे शरीर को जीवित रखता है। दूसरे, यह श्वसन का परिचायक है जो मन, शरीर एवं इन्द्रियों का बहिर्गमनशील रूप है।' प्राण का स्थान हृदय माना गया है। श्वसन क्रिया की स्थिति में इसका विस्तार नासारन्धों से श्वासपटल (डायफ्राम) तक होता है।
(2) अपान- अपान का स्थान गुदा माना गया है। नाभि से नीचे गुदा, वृक्क, मूत्रेन्द्रिय आदि के कार्य इसी से सम्पन्न होते हैं।
(3) समान- इसका स्थान नाभि प्रदेश है। हृदय से नाभि पर्यन्त गति करता हुआ यह पाचन संस्थान, यकृत, क्लोमग्रंथि, आंतों, आमाशय आदि की क्रिया को संचालित करता है।
(4) उदान- इसका स्थान कंठ कहा गया है। कंठ के निकटवर्ती क्षेत्र का नियंत्रण इसके द्वारा होता है। इसी की शक्ति पाकर नाक, कान, आंख आदि इन्द्रियाँ सशक्त होती है।
(5) व्यान- सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त यह जीवनी शक्ति शरीर का आधार है। शरीर की गतिविधियाँ इसके अभाव में सम्पन्न नहीं हो सकती। सभी अवयवों में इसके द्वारा ही तालमेल सम्भव होता है। इसके असंतुलित होने पर मन, शरीर व इन्द्रियाँ अपना तालमेल खो देती है जिसके फलस्वरूप समस्त क्रियाएँ असंतुलित हो जाती है।
पाँच उपप्राण कहे गये है।
(1) नाग- डकार व हिचकी लेने में नागवायु का कार्य है।
(2) कूर्म- पलकों को उठाना गिराना कूर्म वायु का कार्य है।
(3) कृकल- भूख प्यास इस वायु के कारण लगती है।
(4) देवदत्त- जम्भाई लेने में देवदत्त वायु कार्य करता है।
(5) धनञ्जय- यह मृत्यु के बाद भी शरीर को नहीं छोड़ता। मृत्यु के पश्चात इसी के कारण शरीर फूलता है।
प्राण के अर्थ को समझने के बाद अब प्रश्न उठता है कि आयाम क्या है आयाम के कई अर्थ है जैसे विस्तार करना, बढाना इत्यादि। अब प्राणायाम का अर्थ स्पष्ट है कि प्राण शक्ति का पूरे शरीर में विस्तार करना प्राणायाम है। स्मरण रहे कि प्राणायाम का अभ्यास करके आप प्राण को अपने वश में कर सकते है। जब प्राण दीर्घ और सूक्ष्म हो जाता है तो धीमी गति होने के कारण सामान्य स्थिति से प्राण ऊर्जा का क्षय कम होता है। हमारे ऋषिमुनियों द्वारा इस विद्या का सकल प्रयोग किया गया है।
प्राणायाम की परिभाषायें- (Definitions of pranayama)
प्राणायाम को अनेक ऋषियों द्वारा अनेकानेक ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया गया है-
महर्षि पतंजलि के अनुसार प्राणायाम की परिभाषा- महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधनपाद में प्राणायाम को परिभाषित किया है।
तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम: (योगसूत्र 2/49)
अर्थात आसन सिद्ध हो जाने पर श्वास प्रश्वास की गति का विच्छेद करना प्राणायाम है। श्वास प्रश्वास की गति अनवरत से चल रही है। श्वास का रूकना मृत्यु का कारण है। अत: स्वाभाविक रूप से निरन्तर बिना प्रयास यह श्वसन क्रिया हो रही है। इस सामान्य श्वसन क्रिया को अपने इच्छानुसार चलाना प्राणायाम के द्वारा सम्भव है। प्राणायाम के फलो का वर्णन करते हुए योगसूत्र में कहा हैं
तत: क्षीयते प्रकाशावरणम् (योग सूत्र 2/52)
अर्थात प्राणायाम के अभ्यास से प्रकाश का अवरण क्षीण हो जाता है।
धारणासु च योग्यता मनस: (योग सूत्र 2/53)
तथा मन में धारणा की योग्यता भी प्राणायाम से आ जाती है।
हठयोग प्रदीपिका के अनुसार प्राणायाम की परिभाषा- हठप्रदीपिका में प्राणायाम के बारे में कहा है-
“चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत” (हठयोगप्रदीपिका 2/2 )
अर्थात प्राणवायु के चलने पर चित्त चलायमान होता है तथा प्राणवायु निश्चल होने पर चित्त एकाग्र हो जाता है।
घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम की परिभाषा- घेरण्ड संहिता में प्राणायाम को परिभाषित करते हुए कहा है कि मनुष्य को देवता बनाने की विद्या प्राणायाम है
संप्रवक्ष्यामि प्राणायामस्य सद्विधिम यस्य साधनमात्रेण देवतुल्यों भवेन्नर: (घे0सं0 5/1)
महर्षि घेरण्ड कहते है कि अब मैं प्राणायाम की विधि बताता हूँ जिसका साधन करने मात्र से मनुष्य देवता के समान हो जाता है।
मनुस्मृति के अनुसार प्राणायाम की परिभाषा- मनुस्मृति में प्राणायाम को परिभाषित कर कहा है इन्द्रिय दोषों का नाश करने वाला तप प्राणायाम हैं।
दहन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मला: तथेन्द्रियाणां दहन्ते दोषा: प्राणस्य निग्रहात् (मनुस्मृति 6/71)
जिस प्रकार तप शरीर व इन्द्रियों के दोषों को नष्ट कर देता हैं। उसी प्रकार प्राणायाम शरीर व इन्द्रिय के दोषों का नाश करके शुद्ध चैतन्य स्वरूप की प्राप्ति करवाने में समर्थ है।
महर्षि गोरक्षनाथ जी के अनुसार प्राणायाम की परिभाषा- गुरू गोरथानाथ ने सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में कहा है-
प्राणायाम दूति प्राणस्य स्थिरता” (सि. सि. प. 2/35)
अर्थात शरीर की नाडियों में प्रयासपूर्वक प्राण के प्रवाह को रोकना प्राणायाम है।
वशिष्ठ संहिता के अनुसार प्राणायाम की परिभाषा- वशिष्ठ संहिता में कहा है-
प्राणायानसमायोग: प्रोक्तो रेचपूरककुम्भकै: (व. सं. 3/2)
अर्थात प्राण और अपान का उचित संयोग प्राणायाम कहा जाता है। पूरक, कुम्भक एवं रेचक इन तीनों से प्राणायाम बनता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्राणायाम की परिभाषा- गीता में कहा गया है-
अपाने जुहवति प्राणं प्राणेऽपानं तथा परे प्राणापानगती रूदध्वा प्राणायाम: परायण: (श्रीमद्भगवतगीता 4/29)
अर्थात अपान वायु में प्राणवायु का हवन, प्राणवायु में अपान वायु का हवन या प्राण व अपान की गति का निरोध प्राणायाम है।
त्रिशिखब्राहमणोपनिषद के अनुसार प्राणायाम की परिभाषा-
निरोध: सर्ववृतीनां प्राणायाम: अर्थात सभी प्रकार की वृतियों के निरोध को प्राणायाम कहा गया है।
अमृतनादोपनिषद कहता है- जिस प्रकार सोने को तपाने से उसके मल निकल जाते है उसी प्रकार इन्द्रियों के विकार प्राणायाम से जलकर नष्ट हो जाते है।
स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार- शरीरस्थ जीवनी शक्ति को वश में लाना प्राणायाम कहलाता है।
स्वामी शिवानन्द के अनुसार- प्राणायाम वह माध्यम है जिसके द्वारा योगी अपने छोटे से शरीर में समस्त ब्रह्माण्ड के जीवन को अनुभव करने का प्रयास करता है तथा सृष्टि की समस्त शक्तियाँ प्राप्त कर पूर्णता का प्रयत्न करता है।
प्राणायामों का वर्गीकरण- (Classification of pranayama)
प्राणायामों के वर्गीकरण में भिन्न भिन्न मान्यताएँ प्राप्त होती है। योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि कहते हैं
बाह्याभ्यन्तर स्तम्भवृत्ति देशकाल संख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्म:। (योगसूत्र 2/50)
बाह्माभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः। (योगसूत्र 2/51)
महर्षि पतंजलि के अनुसार प्राणायाम के चार भेद है
(1) बाह्यवृत्ति प्राणायाम (2) आशभ्यन्तरवृत्ति प्राणायाम (3) स्तम्भवृत्ति प्राणायाम (4) बाह्याभ्यन्तर विषयाक्षेपी प्राणायाम
हठयोग प्रदीपिका में प्राणायामों को कुम्भक कहा गया है तथा प्राणायामों की (कुम्भको) संख्या आठ है-
सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारीशीतली तथा।
भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुम्भका:॥ (ह,प्र. 2/ 44)
हठयोग प्रदीपिका के अनुसार प्राणायाम (कुम्भक) आठ प्रकार के हैं- सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्च्छा व प्लाविनी। इनके अतिरिक्त शरीरस्थ बहत्तर हजार नाड़ियों की शुद्धि हेतु उन्होंने नाडी शोधन प्राणायाम भी बताया है जिसे इन प्राणायामों से पूर्व करना बताया गया है।
घेरण्ड संहिता में भी प्राणायामों को कुम्भक कहा गया है तथा प्राणायामों (कुम्भको) की संख्या 8 ही है घेरण्ड संहिता में कहा गया है-
सहितः सूर्यभेदश्व उज्जायी शीतली तथा।
भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली
चाष्टकुम्भका:।। (घे-सं.
5/ 46)
अर्थात- सहित, सूर्यभेदन, उज्जायी, शीतली,
भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्च्छा तथा
केवली ये -आठ
प्राणायाम (कुम्भक) है।
षटकर्मो का अर्थ, उद्देश्य, उपयोगिता
घेरण्ड संहिता में वर्णित षट्कर्म
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