हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है -
सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।
भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44)
अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है
1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है -
आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।
दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।
आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत।
ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49)
अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें। यथा शक्ति कुम्भक के पश्चात जालन्धरबन्ध खोलते हुए गर्दन सीधी करें तथा बांये नासारन्ध्र अर्थात इड़ा नाड़ी से शनैः शनैः रेचक करें। इसे ही योगियों ने सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम नाम दिया है।
सूर्यभेदी प्राणायाम के लाभ बताते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
कपालशोधनं वातदोषध्नं कृमिदोषहत।
पुनः पुनरिद कार्य सूर्यभेदनमुत्तमम् ।। (ह.प्र.2/50)
अर्थात् सूर्यभेदन प्राणायाम मस्तक की शुद्धि करता है, अस्सी प्रकार के वात दोषों को हरता है तथा उदर में उत्पन्न विकारो को नष्ट करता है। इसलिए इस उत्तम सूर्यभेदी प्राणायाम को बार बार करना चाहिए।
2. उज्जायी प्राणायाम- उज्जायी प्राणायाम का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
मुखं संयम्य नाडीभ्यामाड्डष्य पवन शनैः।
यथा लगति कंठातु हृदयावधि सस्वनम।।
पूर्ववत्कुंभयेत्प्राणे रेचयेदिडया ततः।
श्र्लेष्मदोषहरं कंठे देहानल विवर्धनम्।। (ह.प्र. 2/51 52)
अर्थात- इड़ा और पिंगला दोनों नाड़ियों से कंठ का संकोच करते हुए पूरक करें। इसमें वायु शनैः शनै कण्ठ से हृदय तक शब्द करती हुई अन्दर जाये। तत्पश्चात कुम्भक करें कुम्भक के उपरान्त इड़ा नाडी अर्थात वाम स्वर से रेचक करे। इसी को उज्जायी प्राणायाम कहते हैं।
स्वामी स्वात्माराम जी ने उज्जायी प्राणायाम के लाभ बताते हुये कहा है कि इस प्राणायाम के अभ्यास से कण्ठगत श्र्लेष्मा के दोष नष्ट होते हैं और यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। तथा कहा है-
नाडीजलोदराधातुगत दोषविनाशनम।
गच्छता तिष्ठता कार्यमुज्जाय्याख्यं तु कुंभकम्।। (ह.प्र. 2/53)
अर्थात- नाड़ियों के जलोदर तथा शरीरगत धातुओं के सभी दोषों को यह प्राणायाम नष्ट करता है। यह उज्जायी नाम का कुंभक बैठे हुए या चलते फिरते हुए भी करने योग्य है।
3. सीत्कारी प्राणायाम- सीत्कारी प्राणायाम का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
सीत्कां कुर्यान्तथा वकत्रे घ्राणेनैव विजृम्भिकाम्।
एवमभ्यासयोगेन कामदेवो द्वितीयकः।। (ह.प्र.-2/54)
अर्थात- दांतों को आपस में मिलाकर जिह्वा को उनके साथ लगायें। होठों को खोलकर दांतों के मध्य से सीत्कार की आवाज के साथ पूरक करें। तत्पश्चात आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के पश्चात दोनों नासारन्ध्रो से रेचक करें। स्वामी स्वात्माराम जी कहते हैं कि इसका अभ्यास करने वाला योगी कामदेव के समान हो जाता है।
सीत्कारी प्राणायाम के लाभ का वर्णन करते हुए आगे कहा गया है
योगिनी चक्रसम्मान्यः सृष्टि संहार कारकः।
न क्षुधा न तृषा निद्रा नैवाल्स्यं प्रजायते।।
भवेत्सत्त्वं च देहस्य सर्वॉपद्रवर्वर्जित:।
अनेन विधिना सत्य॑ योगीद्रो भूमिमंडले।। (ह.प्र. - 2/55-56)
अर्थात्- वह योगी योगिनियों के समूह का सेवन करने योग्य होता है। सृष्टि की उत्पत्ति और लय करने में समर्थ हो जाता है और योगी भूख, प्यास, निद्रा व आलस्य को जीत लेता है। अर्थात उसके शरीर व चित्त के दोष दूर हो जाते हैं। इसके अभ्यास से शरीर का बल बढ़ता है। इसका अभ्यासी योगी इन्द्रलोक व सम्पूर्ण भूमि मण्डल के उपद्रवों से रहित होता है। योगी कहते हैं कि इस प्राणायाम का यह फल सत्य है, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए।
4. शीतली प्राणायाम- शीतली प्राणायाम का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम हठ प्रदीपिका में कहते हैं-
जिह्वा वायुमाडडष्य पूर्ववत्कुंभसाधनम।
शनकैर्घराणरंक्षाभ्यां रेचयेत्पवनं सुधी:।। (ह.प्र. 2/57)
अर्थात्- जिह्वा को होठों से बाहर निकालकर उसे पक्षी की चोंच के समान गोल बनाते हुए जिह्वा के मध्य से शनैः शनैः पूरक करें। फिर आभ्यन्तर कुम्भक में मूल बन्ध व जालन्धर बन्ध तगायें। यथा शक्ति कुम्भक के पश्चात जालन्धर बंध खोले और दोनों नासारन्ध्रो से धीरे धीरे रेचक करें। इसी को शीतली प्राणायाम कहा गया है।
शीतली प्राणायाम के लाभ बताते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
गुल्मप्लीहादिकान्रोगान्ज्वरं पित्त क्षुधां तृषाम।
विषाणि शीतली नाम कुंभिकेयं निहन्ति हि।। (ह.प्र. 2/58)
अर्थात इस प्राणायाम का अभ्यास गुल्म, प्लीहा आदि रोग ज्वर, पित्त, क्षुधा और सर्प आदि का विष इन सबको नष्ट करता है अर्थात इसके कर्ता का देह स्वाभाविक रूप से शीतल रहता है।
5. भ्रस्त्रिका प्राणायाम- भ्रस्त्रिका प्राणायाम का वर्णन करते हुए कहा गया है-
सम्यक्पद्मासनं वद्ध्वा समग्रीवोदरं सुधीः।
मुखं संयम्ययत्रेन प्राणं घ्लाणेन रेचयेत्।।
यथा लगति हत्कंठे कपालावधि सस्वनम।
वेगेन पूरयेच्चापिहत्पद्मावधि मारुतम।।
पुनर्विरेचयेत्तद्वत्पूरयेच्च पुनः पुनः।
यथैव लोहकारेण भस्त्रा वेगेन चाल्यते।।
तथैव स्वशरीरस्थं चालयेत्पवरनं धिया।
यदा श्रमोभवेद्देहे तथा सूर्येण पूरयेत्।।
यथोदरं भवेतपूर्णपवनेन र्ण॑मनित्रेन तथा लघु।
धारयेत्रासिकां मध्यातर्जनीभ्यां विनाइडम्।।
विधिवत्कुम्भकं कृत्वा रेचयेदिडयानिल्म्।
वातपित्तल्लेष्महरं शरीराग्निविवर्धनम्।। ह-प्र. 2/59/65
अर्थात् पद्मासन में ग्रीवा और उदर को सीधा रखते हुए बैठकर मुख को बन्द कर नासिका से रेचक करें। यह रेचक इस प्रकार शब्द करते हुए करना चाहिए जैसे वह हृदय, कण्ठ व कपाल तक लगे। फिर वेग से हृदय तक पूरक करें तथा उसी प्रकार वेग से प्राण वायु का रेचक करें और उसी प्रकार पूरक करें। लोहार की भस्त्रा की विधि से वेगपूर्वक बार बार पूरक रेचक करते रहें। यह पूरक रेचक तब तक करें, जब शरीर असहजता का अनुभव न करने लगे। इसके बाद सूर्य नाडी से पूरक करें और शीघ्र ही उदर को वायु से भर ले। तत्पश्चात आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक में मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगाये। कुम्भक के पश्चात इड़ा अर्थात चन्द्र नाड़ी से रेचक करें। यह भस्त्रिका प्राणायाम वात, पित्त और श्लेष्मा तीनों का हरण करती है और जठराग्नि को बढ़ाती है।
भस्त्रिका प्राणायाम के लाभ का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में आगे कहा गया है।
कुंण्डलीबोथकं क्षिप्रं पवन सुखदं हितम्।
ब्रह्मनाडी मुखे संस्थकफाग्रर्गलनाशनम।।
सम्यग्गात्रसमुद्धूतं ग्रंथि त्रय विभेदकम।
विशेषेणैव कर्तव्यं भस्त्राख्यं कुंभंकं त्विदम।। ह-प्र. 2 /66&67
अर्थात इस प्राणायाम के अभ्यास से सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति जाग जाती है। यह प्राणायाम सुख का देने वाला है, शरीरस्थ तीनों दोषों को हरता है, इसलिए हितकारी है। मोक्ष की ओर ले जाने वाली ब्रह्मनाड़ी के मुख पर स्थित श्लेष्मा आदि दोषों का नाश करने वाला अर्थात ब्रह्मनाड़ी को शुद्ध करने वाला है। सुषुम्ना नाडी के मध्य जो ब्रह्म, विष्णु व रुद्र ग्रन्थियाँ हैं, विशेष रूप से उनका भेदन करने वाला प्राणायाम है। इसीलिए यह विशेष रूप से करने योग्य है।
6. भ्रामरी प्राणायाम- भ्रामरी प्राणायाम का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
वेगाद्वोषं पूरकं भृंगनादं भृंगीनाद॑ रेचकं मंदमंदम्।
योगींद्राणामेवमभ्यासयोगाच्चित्ते जाता काचिदानंदलीलरा।। (ह.प्र. 2/ 68)
अर्थात् दोनों नासारन्ध्रो से वेगपूर्वक गले से भ्रमर के समान शब्द उत्पन्न करते हुए पूरक करें। तत्पश्चात् आभ्यन्तर कुंभक करें। कुम्भक में मूलबन्ध व जालन्धर बन्ध लगायें। यथा शक्ति कुंभक के पश्चात् दोनों नासारंध्रो से भ्रामरी के समान शब्द करते हुए मंद-मंद गति से रेचक करें। इसे ही योगियो ने भ्रामरी कुम्भक कहा है।
भ्रामरी प्राणायाम के लाभ बताते हुए योगी स्वात्माराम कहते हैं कि इस प्राणायाम के अभ्यास से योगियों को विशेष आनन्द की प्राप्ति होती है।
प्रकांते गाढतरं बद्ध्वा जालंधरं शनैः।
रेचयेन्मूर्च्छख्येयं मनोमूर्चर्छा सुखप्रदा।। (ह.प्र. 2/ 69)
अर्थात् पूरक करने के पश्चात् अत्यन्त दृढ़ता के साथ जलान्धर बन्ध लगाकर शनैः-शनैः प्राण का रेचक करना चाहिए। इसको बार-बार करने से मूर्च्छा सी आने लगती है। इसीलिए इसको मूर्च्छा प्राणायाम कहा गया है।
मूर्च्छा प्राणायाम के लाभ बताते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं कि यह प्राणायाम मन को मूच्छित करने वाला है जिससे विशेष सुख की प्राप्ति होती है।
8. प्लाविनी प्राणायाम- प्लाविनी प्राणायाम का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है
अन्तः प्रवर्तितोदारमारुतापूरितोदर:।
पयस्यगाधे5पि सुखात्प्लवते पद्मपत्रवत्।। ह.प्र. 2/ 70
अर्थात् पूरक के द्वारा उदर में अधिक से अधिक वायु को भरकर कुम्भक करना इसी को प्लाविनी कुम्भक कहा जाता है।
प्लाविनी प्राणायाम का लाभ बताते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं कि इस प्राणायाम से साधक का शरीर ऐसा हो जाता है कि यह जल में बिना प्रयास के कमल के पत्ते के समान तैरता रहता है।
हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय
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