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प्राणायाम के उद्देश्य, प्राणायाम के सिद्धान्त

प्राणायाम के उद्देश्य / प्राणायाम की उपयोगिता-  

प्राणायाम के महत्व को जानते हुए हमारे ऋषिमुनियों ने बड़े सहज व स्पष्ट रुप से प्राणायाम की चर्चा की है। प्राण, वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है इस प्राण शक्ति को पूरे शरीर में विस्तारित करना ही प्राणायाम है। प्राणायाम का उपयोग करके मानव जीवन को भली प्रकार जी सकता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसकी उपयोगिता विभिन्न शोधों के माध्यम से सिद्ध हो रही है। शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है। निःसन्देह प्राणायाम हमारे ऋषियों की मानव जाति के लिये अनुपम देन है।

1. शारीरिक उन्नति-  प्राणायाम के द्वारा साधक की शारीरिक स्थिति उन्नत होती है। आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि जो स्वस्थ हों, उनको स्वस्थ रखा जाए और जो रोगी हो, उन्हें रोग मुक्त किया जाए।

 'स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम्आतुरस्य विकारप्रशमनम्

आयुर्वेद की यह मान्यता योग पर भी इसी रूप में लागू होती है। प्राणायाम को योग का सार कहा गया है। प्राणायाम' द्वारा उक्त दोनों दृष्टिकोणों की पूर्ति होती है। प्राणायाम का अभ्यास करके साधक असीम बल, तेज व बुद्धि की प्राप्ति तथा आन्तरिक शक्तियों का जागरण करने में समर्थ होता है। बलिष्ठ शरीर समस्त दैनिक क्रियाकलापों तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में बढ़ने के लिए प्रथम आवश्यकता है। अतः शरीर को दृढ करने के लिए प्राणायाम का उपयोग किया जाता है। प्राणायाम के अभ्यास के त्रिदोषों (वात, पित्त व कफ) को साम्यावस्था में रखा जा सकता है जिससे समस्त धातुओं (रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा ,शुक्र) की पुष्टि होकर शरीर निरोग रहता है। शरीरस्थ प्राण शक्ति साधक को ऊर्जावान बनाती है। इस प्रकार प्राणायाम के अभ्यासी साधक को स्वस्थ एवं बलिष्ट शरीर की प्राप्ति होती है। हमारे फेफड़ों के असंख्य कोष है जो वायु को धारण करते हैं किन्तु कुछ कोषों तक प्राणवायु नहीं पहुँचती तथा उनका उपयोग नहीं होता जिससे वे स्वस्थ नहीं रहते तथा धीरे-धीरे शरीर में ह्रास की स्थिति . उत्पन्न हो जाती है। फेफड़ों में वायु पूर्ण रूप से भरकर रक्त में स्थित कार्बबडाइऑक्साइड को कम करके शरीर को निरोग रखा जा सकता है।

प्राणायाम का अभ्यास करने वाला साधक विभिन्न शारीरिक व्याधियों से बचा रहता है तथा उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि हो जाती है। शरीरस्थ मलों का निवारण होने पर त्रिदोष साम्यावस्था में आ जाते हैं जिससे व्याधि का कारण ही नष्ट हो जाता है। प्राणायाम के विविध भेदों द्वारा विविध रोगों के निवारण का वर्णन प्राप्त होता है। जैसे हठयोग प्रदीपिका मे बताया गया है-
सूर्यभेदन- कपालशोधक, वातरोग व कृमिरोग नाशक आदि। (2/50) 

उज्जायी- कण्ठस्थित कफनिवृति, जठराग्नि प्रदीप्त कारक, जलोदर, धातुदोष आदि का निवारक (2/52-53)

 सीत्कारी- क्षुधा, तृष्णा, निद्रा व आलस्य का नाश करने वाला, शरीर पर नियंत्रण देने वाला, कामदेव के समान सुन्दर शरीर बनाने वाला। (2/5556)

शीतली- वायुगोला, तिल्ली, ज्वर, पित्त, क्षुधा, तृष्णा आदि में लाभकारी तथा विष के प्रभाव को नष्ट करने वाला है। (2/58)

 भस्त्रिका- वात पित्त-कफ जन्य विकारों में लाभदायक तथा जठराग्नि प्रदीप्त कारक है। (2/65) 

स्वामी चरणदास जी भक्तिसागर में कहते हैं कि प्राणायाम आयु व बल बढ़ाने वाला तथा शरीर में रोगों की निवृत्ति करने वाला है

प्राणायाम बड़ा तप सोई। प्राणायाम सो बल नहिं कोई। 

प्राणवायु को यह वश लावै। मन को निश्चल करि ठहरावे।।

आयुर्दा को यही बढावै। तन में रोग रहन नहिं पावै।। (भक्तिसागर अष्टांगयोग)

2. मानसिक उन्नति-  प्राणायाम का अभ्यासी स्वस्थ शरीर के कारण उच्च मानसिक स्थिति वाला होता है। 'प्राणायामैर्टहेद्दोषान' प्राणायाम के अभ्यास से दोष नष्ट हो जाते हैं। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। 'आसनेन रुजो हन्ति प्राणायामेन पातकम्' आसन से रोग दूर होते हैं और प्राणायाम से मानसिक विकार दूर होते हैं। मन अपनी इच्छानुकूल गति न करके साधक के वश में हो जाता है और साधक का अन्तःकरण पवित्र होने के कारण उसमें दोषों या विकारों के लिए कोई स्थान नहीं बचता। इसी कारण ऐसा साधक संसार में एकत्व की भावना रखता है। वह न किसी से राग, न किसी से द्वेष की स्थिति, प्राप्त होने पर सब पापों से मुक्त होकर आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। ऐसा साधक ही संसार का आभूषण बनकर सबके हृदयों पर राज्य करता है। |

3. आध्यात्मिक उन्नति- आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्राणायाम का उद्देश्य चित्त की स्थिरता है जिससे साधक समाधि की अवस्था प्राप्त करके कैवल्य की सीमा में प्रविष्ट हो सके। कहा भी है

चले वाते चलें चित्त निश्चले निश्चलं भवेत। (ह.प्र. 2/2 )

इसलिए चित्त की चंचलता को समाप्त करने के लिए प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है। साधना की प्रारम्भिक अवस्था में आसन का अभ्यास दृढ़ हो जाने के बाद चित्त को नियंत्रित करने में प्राणायाम महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है। योगसूत्र में कहा गया है- 

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम। (योगसूत्र 2/ 52)

प्राणायाम के अभ्यास से विवेकज्ञान पर पड़े अविद्या रूपी अज्ञान के आवरण को क्षीण किया जाता है तथा

धारणासु च योग्यता मनसः। (योगसूत्र 2/ 53)

चित्त में धारणा, ध्यान व समाधि की योग्यता उत्पन्न हो जाती है जिससे चरमल्रक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति सम्भव हो सकती है। हठयोग प्रदीपिका की मान्यता- कि मल से पूरित नाड़ियों में पवन का संचरण नहीं होता। सुषुम्ना में पवन संचरण न होने पर कुण्डलिनी जागरण सम्भव नहीं है। अतः प्राणायाम करके मलो का निवारण करने पर कुण्डलिनी द्वारा चक्रभेदन की क्रिया होने से चरमलक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।

मलाकुलासु नाडीषु मारुतो नैव मध्यगः।

 कर्थ स्यादुन्मनी भावः कार्यसिद्धिः कर्थ भवेत्।। 

शुद्विमेति यदा सर्व नाडीचक्रं मलाकुलम्। 

तदैव जायते योगी प्राणसंग्रहणे क्षमः।। 

प्राणायामं ततः कुर्यान्नित्यं सात्विकया धिया। 

यथा सुषुम्ना नाडीस्था मलाः शुद्धि प्रयान्ति च।। (ह-प्र. 2/4,5,6)

इसके लिए नाडीशोधन प्राणायाम का विधान किया गया है। 

भक्तिसागर में स्वामी चरणदास भी कहते हैं-

ज्यों ज्यों होवे प्राणवश, त्यों त्यों मन वश होय। 

ज्यों ज्यों इन्द्री थिर रहै, विषय जायं सब खोय।। 

ताते प्राणायाम करि, प्राणायामहि सार। 

पहिले प्राणायाम करि पीछे, प्रत्याहार।। (भक्तिसागर अष्टांगयोग)

यह तो निर्विवाद है कि प्राणायाम मनुष्य के लिए दैवी वरदान है जिसका उपयोग करके वह लोक में रहकर सफलतापूर्वक जीवनयापन कर सकता है। दोषों के नष्ट होने तथा सुसंस्कारों के अर्जन से वह उच्चतर योनियों में जन्म धारण करेगा अथवा कैवल्य की स्थिति प्राप्त कर असीम आनन्द का उपभोग करेगा। 

प्राणायाम के सिद्धान्त - Principles of Pranayama


प्राणायाम करने से पहले प्राणायाम करने के सिद्धान्तों की जानकारी आवश्यक है। अतः संक्षेप में
प्राणायाम करने के सिद्धान्तों का वर्णन किया जा रहा है-

प्राण को अग्नि कहा जाता है। अग्नि के साथ खिलवाड़ करने वाला भस्म हो जाता है। उसी प्रकार प्राणायाम को खेल समझकर इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। अपितु जैसे वन में रहने वाले सिंह, हाथी आदि बलिष्ठ प्राणी भी धीरे धीरे विधिपूर्वक वश में कर लिए जाते है, उसी प्रकार धीरे धीरे प्राणायाम का विधिपूर्वक अभ्यास करने पर प्राण वश में हो जाता है और किसी प्रकार का अहित नहीं होता। हठयोग प्रदीपिका में कहा है

यथा सिंहो गजो व्याप्नो भवेद्वश्य शनै: शनै:। 

तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।। (ह.प्र. 2/15)

. विधिपूर्वक अभ्यास करने पर रोगों का नाश तथा ठीक विधि से न किए जाने पर रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। अतः मात्रा, काल, शरीर की सामर्थ्य, उचित आहार आदि का ध्यान रखकर अभ्यास करें। (ह.प्र.2/ 16)

स्थूल काय प्रकृति वाले साथकों को चाहिए कि षटकर्मों का अभ्यास करके पहले दोष निवारण कर ले। अन्य लोगों को षटकर्मों की आवश्यकता नहीं है। फिर भी नेति, धोंति, नौलि, त्राटक, कपालभाति के अभ्यास से साधक के शरीर में हल्कापन आ जाता है। अतः कभी कभी इनका अभ्यास करना भी श्रेयस्कर है। (ह.-प्र. 2 /21)

प्राणायाम के अभ्यास से शरीर में पसीना आए तो उसे शरीर पर मल लेना चाहिए। इससे शरीर में दृढता व स्थिरता आती है। (ह.प्र. 2 /13)  

शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र, धूल धुआँ व दुर्गन्ध रहित एकान्त स्थान पर ही अभ्यास करना चाहिए। 

केवल योग साधना कार्य में रत पूर्णकालिक साधको को चार बार प्राणायाम का अभ्यास करने का विधान किया गया है। किन्तु अन्य अंशकालिक साधकों को प्रातःकाल ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। (ह.प्र. 2/ 11)

नये साधक को बसन्त व शरद ऋतु में योगारम्भ आरम्भ करना चाहिए। हेमन्त, शिशिर, ग्रीष्म तथा वर्षा में योगाभ्यास न करें। यदि करेंगे तो रोग होने की सम्भावना होगी। (घे.सं-5/8 9)

प्राणायाम के अभ्यास को एक बार में 5 से बढ़ाकर 80 तक ले जाना तथा 4 मात्रा से 20 मात्रा तक बढ़ाना चाहिए। इसी प्रकार पूरक, कुम्भक व रेचक में 1:1:1, 1:2:1, 1:2:2, 1:3:2, 1:4:2 का अनुपात रखकर धीरे थीरे (10 -15 दिन तक एक अभ्यास करना) अभ्यास करने पर प्राणायाम सिद्ध हो जाता है।

पूरक (श्वास भरते समय) में पेट बाहर तथा वक्षस्थल उभार लेता हुआ होना चाहिए। रेचक (श्वास निकलते समय) में पेट अन्दर तथा वक्षस्थल दबता हुआ रहे। उडडीयान बंध लगाकर पेट को ऊपर की ओर खींचना चाहिए।

मिताहार का प्रयोग करें। घी, दूध आदि चिकनाई युक्त पदार्थों का सेवन करने से प्राणायाम द्वारा उत्पन्न अग्नि का शमन होता रहता है। यात्रा, आगतापना व स्त्री संग वर्जित है।

सर्वप्रथम केवल नाड़ीशोधन प्राणायाम का अभ्यास न्यूनतम चार मास करके नाड़ियों की शुद्धि कर ले। तत्पश्चात प्राणायाम का अभ्यास करें। अनावश्यक बल प्रयोग सर्वथा वर्जित है।

प्राणायाम से पूर्व निम्न तैयारी आवश्यक है

पद्मासन या सिद्धासन में सिद्धि प्राप्त कर लेनी चाहिए ताकि प्राणायाम के लिए निश्चल होकर बैठा जा सके।

अभ्यास खाली पेट करना चाहिये। भोजन के बाद यदि करना है तो 5- 6 घंटे के अन्तराल पर कर सकते है।

जिस स्थान पर अभ्यास करना है, वहाँ वायु का आवागमन तो हो किन्तु वायु सीधी अभ्यासी के शरीर पर नहीं लगनी चाहिए।

स्नान प्राणायाम से पूर्व कर लेंना
चाहिएं। यदि बाद में करना है तो न्यूनतम आधा घंटा का अंतर होना चाहिए।

वस्त्र आरामदायक होने
चाहिए। यदि मच्छर, मक्खी आदि का व्यवधान हो तो साधक वस्त्र ओढकर भी बैठ सकता है।

प्राणायाम की सही विधि जानकर ही अभ्यास करना
चाहिए। यदि अभ्यास करते समय सिरदर्द, आंखों में दर्द, हिचकी, खांसी, श्वास रोग, कानदर्द आदि हो जाए तो अभ्यास छोड़कर केवल दीर्घश्वसन करना चाहिए।

रेचक, पूरक, कुम्भक, प्राण भेद, प्राणायाम भेद, प्राणायाम की सही विधियाँ, मात्रा, काल, बंध, षटचक्र, कुण्डलिनी, नाडियाँ आदि की जानकारी साधक को होनी चाहिए। 

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