पंचतत्वों का मानव शरीर पर प्रभाव व महत्व
2. वायु तत्व का मानव शरीर पर प्रभाव व महत्व-
अतः यह कहा जा सकता है कि वायु ही ज़ीवन है। वायु तत्व हमें जीवन, शक्ति एवं स्फूर्ति प्रदान करता है। इसलिए वायु का पूर्ण लाभ उठाने के लिए उसके शुद्ध रूप को ग्रहण करना जरूर हो जाता है परन्तु आजकल के दूषित वातावरण में यह बहुत ही कठिन है। आये दिन अनेकों प्रकार के रोग और विशेष कर कैंसर आदि रोगो से लोग तीव्र गति से शिकार हो रहे हैं। यदि हम गम्भीरता पूर्वक रोग के कारणों पर विचार करते तो रोग हमसे बहुत दूर होते। क्योंकि देखा जाए तो हमारे रोगी और अस्वस्थ होने के पीछे कारण है तो बस प्रकृति से दूर होना।
आज मनुष्य प्रकृति से दूर होकर पंच तत्वों के असंतुलन से ग्रसित हो जाता है। देखा जाए तो गांव के लोग शहरी जीवन से अधिक सुखमय जीवन बिताते हुए दीर्घायु वाले बनते हैं क्योंकि उनकी जीवन शैली अभी भी ऐसी है कि वह प्रकृति के नजदीक रहते हैं। खेतों में काम करना, स्वच्छ वायु का सेवन करना, पौष्टिक आहार का सेवन करना, अत्यधिक प्रदूषणों से दूर रहना आदि। शहरों में रहने वाले लोग इन सभी के अभाव में रोगों को बुलावा दे रहे हैं।
अतः वायु तत्व के सम्बन्ध में अच्छी तरह जानने के लिए उसके संगठन एवं उसके विभिन्न उपयोगों के बारे में जानते है।
(अ) श्वास प्रणाली- मनुष्य द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है उस आहार के दहन के लिए वायु बहुत ही आवश्यक है। हमारी नाक के द्वारा वायु फेफड़ों में पहुंचकर रक्त आक्सीकृत करती है तथा आहार का दहन कर शरीर को उर्जा व शक्ति प्रदान करती है।
(ब) दहन क्रिया- जो आहार हम ग्रहण करते हैं उसके दहन के लिए अर्थात उसे तोड़ने के लिए हमें वायु की आवश्यकता होती है। दहन क्रिया के फलस्वरूप आहार शरीर को उर्जा प्रदान करता है तथा कुछ व्यर्थ पदार्थ जैसे कार्बन डाई आक्साइड तथा अन्य पदार्थ तैयार हो जाते हैं जिन्हे शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।
श्वसन क्रिया में प्रयुक्त होने वाले अंग-
(1) नाक (2) गला (3) स्वर यंत्र (4) श्वास नलिका (5) श्वास वाहिनी (6) फेफड़े (7) वक्षस्थल
(1) नाक- सर्वप्रथम वायु नाक के द्वारा ही शरीर में प्रवेश करती है। नाक चेहरे के ऊपर कोमल हड्डी से निर्मित होती है इसमें दो नथुने होते हैं। नाक के भीतर एक श्लेष्मिक झिल्ली होती है जिसके ऊपर बाल होते हैं जो कि वायु के साथ आने वाले अन्य धूल कणों, प्रदूषण के कणों विजातीय द्रव्य को शरीर के भीतर जाने से रोकते हैं। नाक के भीतर की श्लेष्मिक झिल्ली शरीर के तापमान के बराबर वायु को नियंत्रित करती है तथा इसी झिल्ली के नीचे गंध का ज्ञान करने वाले नाडी तन्तु होते हैं जो कि हमें अनेक गंधों का ज्ञान कराते हैं।
(ख) गला- मुँह एवं नाक के पीछे स्थित भाग को गला कहते हैं यह नीचे की ओर श्वांस नली से और पीछे की ओर आहार नाल से जुड़ी रहती है।
(ग)स्वर यंत्र- यह गले के निचले भाग में तिकोना तथा खोखला है इसके उपर एक पर्दा होता है। भोजन निगलते समय यह पर्दा स्वर यन्त्र के ऊपरी द्वार को ढक देता है।
(घ) श्वास नलिका- स्वर यंत्र के निचले भाग से निकलकर आहार नलिका के आगे से छाती में नीचे की ओर जाती है आगे चलकर यह श्वास नली दो भागों में विभाजित होकर एक दांये फेफड़े में और दूसरी बांये फेफड़े में प्रवेश करती है।
(ड) श्वास वाहिनियाँ- श्वास नलिका दो भागों में विभाजित होती है तथा फेफड़ों में पहुँचकर यह अनेक शाखाओं एवं उप शाखाओं में फैल जाती है। इन उपशाखाओं को वायु वाहिनियाँ कहते हैं।
(च) फेफड़ा- फेफडे को दो भागों में विभाजित होते हैं। दांया फेफड़ा तथा बांया फेफड़ा। दाहिने फेफड़े के तीन भाग हैं और बांयें के दो भाग होते है। सूक्ष्म वायु वाहिनी से वायु फेफड़ों के भीतर प्रवेश करती है जिससे वायुकोष हवा से फूल जाते हैं। फेफड़ों के भीतर धमनी की बारीक शिराएं भी जाल के रूप में स्थित होती हैं। इन शिराओं से अशुद्ध रक्त बहता रहता है।
(छ) वक्षस्थल- छाती के बाहर कशेरूकायें, पसलियाँ और आगे की ओर छाती की हडडी है। यह एक पिंजरे के रूप में है। इन पसलियों के भीतर फेफड़े सुरक्षित रहते हैं।
मनुष्य श्वांस के द्वारा वायु को नाक से अपने शरीर में प्रवेश कराता है नाक के भीतर श्लेष्मिक झिल्ली तथा बाल होते हैं जो छानकर वायु को शरीर के भीतर जाने देते हैं। फिर वायु नाक से सीधी श्वांस नलिकाओं में होती हुई वायु कोशिकाओं में पहुँचती है। यहाँ पर रक्ताणु जो बारीक रक्त शिराओं में एक समय में एक ही रक्त कण गुजर पाता है। वह वायु से ऑक्सीजन ग्रहण कर लेते हैं। उसी समय वह आक्सीहीमोग्लोबिन बन जाता है तथा कार्बन डाइ आक्साइड, पानी आदि रक्त के अशुद्ध पदार्थ वायु कोष में जाकर प्रश्वास के साथ शरीर द्वारा बाहर कर दिए जाते हैं।
रक्त का रंग लाल हो जाता है। इसी क्रिया को श्वांस की कार्यप्रणाली तथा रक्त का शुद्धीकरण कहते हैं। जो वायु हम श्वास द्वारा ग्रहण करते हैं उस वायु में पाये जाने वाले तत्व नाइट्रोजज 78 प्रतिशत, ओक्सिजन 20.96 प्रतिशत, कार्बनडाइ आक्साइड 0.04 प्रतिशत, पानी का भाप अनिश्चित आदि पाई जाती है। इस प्रकार वायु में पाये जाने वाले तत्व आदि इसका भाग है। शुद्ध वायु ग्रहण करना बहुत ही आवश्यक है उपरोक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि वायु हमारे लिए कितनी आवश्यक है।
इसके द्वारा ही आहार का दहन सम्भव हैं। प्राकृतिक रूप से वायु को शुद्ध रखने के लिए विभिन्न प्रकार से कार्य किए जा रहे हैं जैसे पेड़ पौधे अधिक से अधिक मात्रा में लगाए जा रहे हैं क्योंकि वनस्पति में क्लोरोफिल नामक हरे रंग का महत्वपूर्ण द्रव्य रहता है जो कार्बन डाइ आक्साइड ग्रहण कर सूर्य की किरणों से उनका पृथककरण करता है। दूसरा प्राकृतिक वर्षा के द्वारा भी वायु स्वच्छ व शुद्ध होता है। वर्षा से कार्बन डाइआक्साइड एवं अन्य विषैले तत्व पानी में मिल जाते हैं जिससे हवा की गन्दगी दूर हो जाती है। इसके अलावा तेज हवा, सूर्य का प्रकाश तथा ओजोन की परत के द्वारा प्रकृति स्वयं ही वायु को शुद्ध करती रहती है।
स्थास्थ्य की दृष्टि से पर्याप्त मात्रा में
शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है. जिससे तन और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं।
शुद्ध हवा से त्वचा के रोगों से मुक्ति मिलती है त्वचा का तापमान नियंत्रित
होता है तथा जीवनी शक्ति की वृद्धि होती है।
3. अग्नितत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व
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