Skip to main content

पंचतत्वों का मानव शरीर पर प्रभाव व महत्व

पंचतत्वों का मानव शरीर पर प्रभाव व महत्व

Effect and importance of Panchatatva on human body

छिती जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व रचित अधम सरीरा।। अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से हमारा (भौतिक) शरीर बना है। इनमें केवल चार ही तत्व पृथ्वी, जल अग्नि और वायु हमारे भोजन की कोटि में आते हैं। रस, रक्त, मांस, भेद, अस्थि, मज्जा, एवं शुक्र इन सात धातुओं से मिलकर बने शरीर को हम देह कहते हैं। या स्थूल शरीर कहते हैं। आकाश, वायु, अग्नि जल और पृथ्वी ये सूक्ष्म भूत हैं। ये सूक्ष्म महाभूत मिलकर ही हमारे शरीर का निर्माण करते हैं ये पाँच तत्व जब प्रकृति में अलग रहते हैं तो सूक्ष्म होने के नाते अति शक्तिशाली होते हैं परन्तु जब वह स्थूल हो जाते हैं तो अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली होते हैं। प्रकृति एवं हम में समान तत्व होने पर भी प्राकृतिक हमसे कई ज्यादा शक्तिशाली होती है। अतः हमें प्राकृति एवं उसमें पाए जाने वाले तत्वों में सामंजस्य स्थापित करना आना चाहिए तभी हम अपने अन्दर अधिक शक्ति का विकास कर पायेंगे।

  आकाश तत्व का मानव शरीर पर प्रभाव व महत्व:- Effect and importance of sky element on human body- यह एक अणुविहीन तत्व है, जो उपवास अमाशय को रिक्त रखने से प्राप्त होता हैं। आकाश तत्व अथवा आमाशय की रिक्तिता का एक विशेष महत्व तो यह है कि जब तक पेट में कुछ स्थान खाली न होगा तक तक खाये गये पदार्थों को गति नहीं मिलेगी, जो पाचन के लिए आवश्यक है। वास्तव में जीवन शक्ति के जागरण का सारा श्रेय उपवास अर्थात आकाश तत्व को दिया जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। आकाश तत्व शरीर को निर्मल कर उक्त चारों तत्वों को यथास्थान उपयोगी एवं प्रभावकारी रूप में कार्य करने की सुविधा और अवसर प्रदान करता है।

आकाश तत्व पंच महाभूतों में से एक महत्वपूर्ण तत्व है जो अन्य तत्वों को जन्‍म देने वाला भी है और अन्त में सभी तत्वों को अपने भीतर विलीन करने वाला भी है। सबसे सूक्ष्म शक्तिशाली एवं शुद्ध नैसर्गिक साधन आकाश ही है। आकाश का अर्थ है शून्य यानि खालीपन अतः जहां खालीपन है वहीं आकाश तत्व पाया जाता है और जहाँ आकाश तत्व है वहाँ वायु स्वयं आ जाती है खाली जगह में वायु स्वयं अपना स्थान बना लेती है। जिनमें आकाश तत्व की प्रधानता होती है वह लोग बहुत ही प्रसन्‍नचित्त, हल्कापन, स्फूर्ति एवं शक्ति का संचार तथा उसकी अनुभूति कर सकते हैं। इस तत्व के अभाव में वह आलसी, उर्जाविहीन, कमजोर, थकानयुक्त व अप्रसन्‍नचित रहते हैं।

पूर्वकाल में ऋषि, मुनि एवं देवता आदि उपवास के द्वारा अपने अन्दर इस तत्व की वृद्धि करते थे तथा किसी भी स्थान पर क्षण में पहुँच एवं वांछित फल प्राप्त कर सकते थे, उड़ सकते थे जहाँ चाहे जा सकते थे और किसी भी शरीर में प्रवेश कर सकते थे। अतः जो अपने अन्दर इस तत्व की प्रधानता कर लेता है वह सदा आकाश की भांति शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्ति में अविजित रहता है।

ये सम्पूर्ण जगत आकाश से ही उत्पन्न होते हैं। प्रथम आकाश की उत्पत्ति होती है उसके पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई और उसी विपरीत क्रम में ये सभी तत्व आकाश तत्व में विलीन हो जाते हैं। आकाश की यह विशेषता है कि विशाल होते हुए भी इतना सूक्ष्म है कि छोटे से छोटे स्थान में भी प्रवेश कर सकता है। जब हम प्रकृति को ठीक तरह समझकर उसके साथ सामंजस्य स्थापित करेंगे तो सभी तत्वों को सही रूप में ग्रहण कर सकेंगे। यदि हम आकाश के सीधे सम्पर्क में नहीं आ सकते तो धीरे-धीरे उसको प्राप्त करने के बारे में सोचना चाहिए। प्रथम ढीले व सूती वस्त्र पहनें, अधिक देर खुले आकाश में रहे तथा शुद्ध वातावरण में बितायें। उपवास रखें, आहार विहार में सुधार द्वारा इस अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। जो व्यक्ति अपने अन्दर आकाश तत्व का विकास कर लेता है। वह आकाश के गुण शब्द को उसी प्रकार पकड़ सकता है जिस प्रकार रेडियो। 

कितने ही योगियों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि अमुक योगी जमीन से ऊपर उठ जाता था, पानी पर नंगे पैर चलता था, आग पर चलता था और इच्छानुसार कहीं भी चला जाता था इसी प्रकार उपवासी देखने में कुछ भी नहीं खाता पर वास्तव में वह सब खाता है क्योंकि उसके अन्दर शक्ति स्रोत आकाश का निरन्तर विकास होता है और पूर्ण विकास होता है। पूर्ण विकास होने पर वह प्रभु के निकट रहता है और निरोगी जीवन व्यतीत करता है।

  आजकल के रहन-सहन विशेष कर शहर में छोटे- छोटे कमरों में पूरे घर का सामान रहता ही है साथ ही ड्राइंग रूम में भी इतनी कुर्सी, मेज रखे रहते हैं कि आकाश की गुंजाइश ही नहीं और इसके अलावा वहां बिछे बिस्तरों एवं कालीनों जो महीनों में नीचे से साफ किए जाते हैं ऐसे वातावरण में तो दम घुटने लगता है इसी प्रकार सब गलत आहार विहार से भी हमारे शरीर के अन्दर विजातीय द्रव्य उत्पन्न हो जाता है जिससे तरह-तरह के रोगों का जन्म होता है। आजकल चुस्त एवं कसकर कपड़ा पहनने का रिवाज तेजी से बढ़ता जा रहा है जिससे कि हमारे अन्दर एवं बाहर आकाश तत्व का अभाव होने से हम रोग ग्रसित होते हैं।


 वायुतत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व- 

अग्नितत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

जलतत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

 पृथ्वीतत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

पंच तत्वों का सामान्य परिचय

 

Comments

Popular posts from this blog

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...