हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है
महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।
उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 )
करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।
इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/7)
अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।
1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।
प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।
कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।
यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते
ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)
अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें। दोनों हाथों से दाहिने पैर के पंजे को दृढ़ता के साथ पकड़े। तत्पश्चात् पूरक करने के उपरान्त भली प्रकार जालन्धर बन्ध लगाकर मूल बन्ध की सहायता से वायु को उर्ध्वदेश में ही धारण करें। जिस प्रकार दण्ड से मारे जाने पर सर्प सीधा हो जाता है, उसी प्रकार महामुद्रा के अभ्यास से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है। इस प्रकार कुण्डलिनी का बोध हो जाने पर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है।
ततः शनेः शनैरेव रेचयेन्नतु वेगतः।
इयं खलु महामुद्रा महासिद्धि प्रदर्शिता ॥ (हठयोगप्रदीपिका- 3/12)
अर्थात् कुम्भक के पश्चात् वायु का धीरे-धीरे रेचक करना चाहिए वेग से नहीं। वेग से रेचक करने में बल की हानि होती है। इसी को देवताओं ने महामुद्रा कहा है। महामुद्रा के क्रम का वर्णन करते हुए कहा गया है-
चंद्रांगे तु समभ्यस्य सूर्याडगे पुनरभ्यसेत्।
यावतुल्या भवेत्संख्या ततो मुद्रां विसर्जयेत्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/14)
अर्थात् चन्द्र अंग की ओर से अर्थात् बायीं ओर से अभ्यास करने के पश्चात् सूर्यांग अर्थात् दायीं ओर से भी इसका अभ्यास करना चाहिए और दोनों ओर से समान संख्या में कुम्भक करने के पश्चात् ही महामुद्रा का विसर्जन करना चाहिए।
महामुद्रा के लाभ- महामुद्रा के लाभो का वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-
न हि पथ्यमपथ्यं वा रसा सर्वेंऽपि नौरसा:।
अपि भुक्तं विषं घोरं पीयूषमपि जीर्यते।। (हठयोगप्रदीपिका-3/15)
क्षयकुष्ठ गुदावर्त गुल्माजीर्ण पुरोगमा।
तस्य दोषा: क्षयं यान्ति महामुद्रा तु योऽभ्यसेत्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/16)
अर्थात् खाने योग्य व न खाने योग्य रस युक्त व बिना रस वाले शुष्क, कटु, अम्ल, तीखे सभी पदार्थ आसानी से पच जाते हैं। महामुद्रा का साधक विष के समान अन्न को भी सरलता से पचा लेता है। जो पुरुष महामुद्रा का अभ्यास करता है उसको क्षय, कुष्ठ, गुल्म रोग, जलोदर, अजीर्ण, गुदावर्त,ज्वर आदि रोग नहीं होते। उसके शरीर के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं।
2. महाबन्ध मुद्रा- महाबन्ध मुद्रा का वर्णन करते हुए कहा गया है-
पार्ष्णि वामस्य पादस्य योनिस्थाने नियोजयेत्।
वामोरुपरि संस्थाप्य दक्षिणं चरणं तथा।।
पूरयित्या ततो वायुं हृदय चित्रकं दृढम्।
निष्पीड्य योनिमाकुंच्य मनोमध्येनियोजयेत्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/19)
धारयित्वा यथाशक्ति रेचयेदनिलं शनै:।
सव्यांगे तु समभ्यस्य दक्षांगे पुनरभ्यसेतू।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/20)
अर्थात् बायें पैर की एड़ी को योनि स्थान अर्थात् गुदा और उपस्थ के मध्य में लगायें और दाहिने पैर को बायीं जंधा के ऊपर रखकर बैठें। तत्पश्चात् दोनों नासारन्ध्रों से पूरक करें तथा ठुड़्डी को दृढता से कण्ठकूप में लगायें, जालन्धर बन्ध को लगाकर फिर गुदा प्रदेश को संकुचित कर मूलबन्ध लगायें तथा मन को सुषुम्ना में केन्द्रित करते हुए यथाशक्ति कुम्भक करने के पश्चात् धीरे-धीरे वायु का रेचन करें। इसी क्रिया को पैरों की स्थिति बदल कर दोहारायें, अर्थात् बायें और दाहिने पैर से बराबर मात्रा में करें।
महाबंध मुद्रा के लाभ- महाबन्ध मुद्रा के लाभो का वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-
अयं खलु महाबंधो महासिद्धि प्रदायक:।
काल पाशमहाबंधविमोचनविचक्षण:।।
त्रिवेणीसंगम थत्ते केदार प्रापयेन्मन:।। (हठयोगप्रदीपिका. 3/ 22-23)
अर्थात् यह महाबंध मुद्रा निश्चित ही महासिद्धियों को देने वाली है। यह साधक को मृत्यु के पाश से छुड़ाने वाली मुद्रा है और इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना का मिलन रूपी जो प्रयोग है तथा दोनों भाँहों के मध्य केदार रूप जो शिव स्थान है, उसको प्राप्त कराने वाली है।
3. महावेध मुद्रा- हठयोग प्रदीपिका में महावेध मुद्रा का वर्णन करते हुए कहा गया है-
महाबंधस्थितौ योगी कृत्वा पूरकमेकंधी: ।
वायुना गतिमावृत्य निभूतं कंठमुद्रया।।
समहस्त युगो भूमौ स्फिचौं स ताडयेच्छनै:।।
पुटद्वयमतिक्रम्य वायु: स्फुरति मध्यग:।।
सोमसूर्याग्निसंबंधों जायते चामृताय वै।।
मृतावस्था समुत्पन्ना ततो वायुं विरेचयेत्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/25,26,27)
अर्थात् महाबंध मुद्रा में स्थित होकर दोनों नासारन्ध्रो से पूरक करें। फिर आभ्यान्तर कुम्भक करें। कुम्भक के साथ जालन्धर बन्ध को दृढ़ता से लगाकर रखें। दोनों हाथों की हथेलियों को भूमि पर टिकाकर कुम्भक के समय में नितम्बों को ऊपर उठाकर जमीन पर पटकते हुए उनकी ताड़ना करें। यह कहा गया है कि इस महावेध के अभ्यास से प्राण इड़ा व पिंगला का त्याग कर सुषम्ना मार्ग में संरचण करने लगता है। इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना के चन्द्रमा, सूर्य व अग्नि देवता हैं। इन तीनों नाड़ियों का संबंध मोक्ष का हेतु है। तीनों नाड़ियों के एक हो जाने से मृत्यु के समान अवस्था हो जाती है। कुम्भक में ऐसी अवस्था आने के पश्चात् वायु का रेचन करें। यही महावेध मुद्रा है।
महावेध के लाभ- महावेध मुद्रा के लाभ बताते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है
महावेधोऽयमभ्यासान्महासिद्धिप्रदायक:।
क्लीपलितवेपघ्नः सेव्यते साधकोत्तमै:।। (हठयोगप्रदीपिका-3/28)
अर्थात् महावेध मुद्रा के अभ्यास से अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है। इसके अभ्यासी के शरीर में वृद्धावस्था में त्वचा का संकुचन नहीं होता। केश श्वेत नहीं होता। शरीर के कम्पन को भी यह मुद्रा दूर करने वाली है। इसीलिए उत्तम साधक इस मुद्रा का अभ्यास करते हैं।
4. खेचरी मुद्रा- खेचरी मुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा।
भुवोरंतर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी॥ (हठयोगप्रदीपिका- 3/31)
अर्थात् कपाल के मध्य में जो छिद्र है, जिह्वा को उल्टी कर उसमें प्रविष्ट कराकर दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थित करने को खेचरी मुद्रा कहा गया है। खेचरी मुद्रा के साधन का वर्णन करते हुए आगे कहा गया है-
छेदन चालनद्रोहै: कलां क्रमेण वर्धयेत्तावत्।
सा यावदभ्रूमध्यं स्पृशति तदा खेचरीसिद्धि: ।।
स्नुहीपत्रनिभं शस्त्र सुतीक्ष्णं स्निग्ध निर्मलम्।
समादाय ततस्तेन रोममात्रं समुच्छिनेत् ।।
ततः सँधवपथ्याभ्यां चूर्णिताभ्यां प्रधर्षयेत्।
पुनः सप्तदिने प्राप्ते रोममात्रं समुच्छिनेत्।।
एवं क्रमेण षण्मासं नित्यंयुक्त: समाचरेत्।
षण्मासाद्रसनामूलशिराबंध: प्रणश्यति।।
कलां पराडमुखीं कृत्वा त्रिपथे परियोजयेत्।
सा भवेत्खेचरी मुद्रा व्योमचक्रं तदुच्यते।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/32,33,34,35,36)
अर्थात् छेदन व चालन क्रिया के द्वारा जिह्वा को बढ़ाकर इतना लम्बा करें कि वह बाहर निकलकर भृकुटियों के मध्य को स्पर्श करने लगे। तब खेचरी मुद्रा सिद्ध समझनी चाहिए। इस छेदन क्रिया में स्नुही (सेहुड) के पत्ते के समान तीक्ष्ण एवं निर्मल शस्त्र से जिह्वा के मूल की रोम मात्र छेदन करना चाहिए। छेदन के पश्चात् सैंधव लवण और हरड़ के चूर्ण से जिह्वा मूल की भली प्रकार मालिश करें। यह क्रिया प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल करें। छेदन की क्रिया सप्ताह में एक बार करनी चाहिए। इस प्रकार छेदन और फिर सातवें दिन तक घर्षण क्रिया करके पुनः छेदन, छह मास तक निरन्तर करने से जिह्वा का बन्धन कट जाता है। फिर जिह्वा की वृद्धि होने पर उसे पलटकर कपाल गुहा में लगाकर ब्रह्मरन्ध्र से स्रवित होने वाली आनन्द सुधा का पान करना ही खेचरी मुद्रा है।
खेचरी मुद्रा के लाभ- खेचरी मुद्रा के लाभों का वर्णन करते हुए कहा गया है-
रसनामूर्ध्वगां कृत्वा क्षणार्धमपि तिष्ठति।
विषैर्विमुच्यते योगी व्याधिमृत्युजरादिभि:।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/37)
अर्थात् जो आधे क्षणमात्र भी जीभ को ऊपर लगाकर रखता है। वह साधक विष, रोग, अकाल मृत्यु तथा बुढापा आदि से मुक्त हो जाता हैं।
न रोगो मरणं तन्द्रा न निद्रा न क्षुधा तृषा।
न च मूर्च्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/38)
अर्थात् जो खेचरी मुद्रा को सिद्ध कर लेता है, उसे रोग, मरण, तन्द्रा, निद्रा, भूख, प्यास तथा मूर्च्छा आदि भी नहीं सताती है। खेचरी मुद्रा के और भी अनेक लाभों का वर्णन हठयोग प्रदीपिका में किया गया हैं। उनमे कहा है कि इसका साधक न कर्म में लिप्त होता है, न काल चक्र से बाधित होता है। इसके साधक का बिन्दु सुन्दर स्त्री के आलिंगन करने पर स्खलित नहीं होता। इसके साधक को यदि सर्प भी डस ले तो उस पर विष का प्रभाव नहीं पडता। खेचरी मुद्रा के अनेक लाभो का वर्णन करते हुए अन्त में स्वामी स्वात्माराम जी कहते हैं
एकं सृष्टिमयं बीजमेका मुद्रा च खेचरी।
एको देवो निरालम्ब एकावस्था मनोन्मनी।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/53)
अर्थात् सृष्टि का मूल बीज एक प्रणव ही है, मुद्रा मे एक खेचरी मुद्रा ही है। निरालम्ब ही एक परमात्मा है और मनोन्मनी ही एकाग्र अवस्था है। योगियों ने इस मुद्रा को सबसे श्रेष्ठ कहा है।
5. उड्डीयान बन्ध (मुद्रा)- उड्ड़ीयान बन्ध का वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-
बद्धोयेन सुधुम्नायां प्राणस्तूड्डीयते यतः।
तस्मादुइडीयानाड्योऽयं योगिभि: समुदाहृतः।।
उड्डीन कुरुते यस्मादविश्रान्तं महाखग:।
उड्डीयानं तदेव स्यातत्र बन्धोऽभिधीयत।। (हठयोगप्रदीपिका-3/54,55
अर्थात् सुषुम्ना के अन्दर निरुद्ध प्राण इसके द्वारा ऊपर उठाया जाता है, इसलिए योगी इसको उड्डीयान बन्ध के नाम से पुकारते हैं। जिस प्रकार प्राणी रूपी महापक्षी निरन्तर उडान भरता रहता है। वैसे ही प्राण की स्थिति इस मुद्रा में होती है, इसलिए यह उड्डीयान कहा गया है। इस बन्ध (मुद्रा) की विधि का वर्णन करते हुए कहा गया है-
उदरे पश्चिमं तानं नाभेरुधर्व च कारयेत्।
उड्डीयानी हृयासौ बन्धों मृत्युमातङकेसरी।। (हठयोगप्रदीपिका-3/56)
अर्थात् उदर को नाभि के ऊपर, नीचे और पीछे की ओर खीचें। यह उड्डीयान बन्ध मृत्यु रुपी हाथी से बचने के लिए सिंह के समान है।
उड्डीयान बन्ध के लाभ- उड्डीयान बन्ध के लाभों का वर्णन करते हुए कहा गया है-
उड्ड़ीयानं तु सहजं गुरुणा कथितं सदा।
अभ्यसेन् सतंतं यस्तु वृद्धो अपि तरुणायते।। (हठयोगप्रदीपिका-3/57)
अर्थात् गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से स्वाभाविक रुप से उड़्डीयान बन्ध का सदा अभ्यास करने वाला वृद्ध भी युवक के समान हो जाता है। इससे साधक मृत्यु को जीत लेता है। इस बन्ध को सभी बन्धों में श्रेष्ठ बताया गया है और कहा गया हैं कि इसके अभ्यास से साधक मुक्ति को सरलता से प्राप्त कर लेता है।
6. मूलबन्ध (मुद्रा)- मूलबन्ध का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा है
पार्ष्णिभागेन सम्पीड्य योनिमाकुंचयेद्रुदम्।
अपानमूर्ध्वमाड्डष्य मूलबन्धोंऽभिधीयते।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/60)
अर्थात् एड़ी से सीवनी को दबाकर गुदा का आकुंचन करना चाहिए। फिर अपान वायु को ऊपर की ओर खींचकर रखने का नाम ही मूलबन्ध है।
मूलबन्ध मुद्रा के लाभ- मूलबन्ध मुद्रा के लाभों का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है
अपान प्राणयोगरैक्यं क्षयो मूत्रपुरीषयो:।
युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/64)
अर्थात निरन्तर मूलबन्ध का अभ्यास करने से अपान और प्राण की एकता होती है, मल मूत्र की कमी होती है तथा वृद्ध भी युवक हो जाता है। आगे कहा है कि इसके अभ्यास से अग्नि प्रदीप्त होती है। अग्नि के देह में प्रज्वलित होने पर उसके ताप से सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है और ब्रह्मनाड़ी में प्रविष्ट हो जाती है। इसलिए साधकों को प्रतिदिन मूलबन्ध का अभ्यास करना चाहिए।
7. जालन्धर बन्ध( मुद्रा)- जालन्धर बन्ध मुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- कण्ठमाकुंच्य हृदये स्थापयेच्चिबुकं दृढम।
बन्धो जालन्धराख्योऽयं जरामृत्यु विनाशकः।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/ 69)
अर्थात कण्ठ को संकुचित कर हृदय में ठोडी को दृढतापूर्वक लगाने का नाम ही जालन्धर बन्ध है। यह जालन्धर बन्ध बुढापा और मृत्यु को दूर करने वाला है।
जालन्धर बन्ध लाभ- जालन्धर बन्ध मुद्रा के लाभों का वर्णन करते हुए कहा गया है-
बध्नाति हि शिराजालमधोगामी नभोजलम्।
ततोः जालन्धरो बन्धः कण्ठदुः:खौघनाशन:।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/70)
अर्थात यह जालन्धर बन्ध कण्ठगत दोषों का नाश करने वाला है। यह नाड़ी समूहों को बांधकर रखने वाला है। अतः ब्रह्मरन्ध्र से श्रावित होने वाला सोमस्राव नाभि में गिर कर भस्म नहीं होता। साथ ही यह बन्ध वायु के प्रकोप को दूर करने वाला बन्ध है।
8. विपरीतकरणी मुद्रा- विपरीतकरणी मुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है
ऊर्ध्व नाभिरधस्तालुरूर्ध्व भानुरध: शशि।
करणी विपरीताख्या गुरुवाक्येन लभ्यते।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/78)
अर्थात नाभि को ऊपर तथा तालु को नीचे करने से सूर्यमण्डल ऊपर और सोममण्डल नीचे हो जाता है। सोम मण्डल यहां ब्रह्मरन्ध्र को कहा गया है और सूर्यमण्डल नाभि को कहा गया है। इसी को विपरीतकरणी मुद्रा कहा गया है। इसे गुरु से सीख कर करना चाहिए। आगे कहा गया है-
अथः शिरश्रोर्ध्वपाद: क्षणं स्यात्प्रथमेदिने।
क्षणाच्च किचिंदघधिकमभ्यसेच्च दिने दिने।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/80)
अर्थात प्रथम दिन एक क्षण के लिए मस्तक को नीचे करके और पैरों को ऊपर करके रहना चाहिए। तत्पश्चात प्रतिदिन क्षण से कुछ अधिक बढ़ाते रहने का अभ्यास करना चाहिए।
विपरीतकरणी मुद्रा के लाभ- विपरीतकरणी मुद्रा के लाभों का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
नित्यमभ्यासयुक्तस्य जठराग्निविवर्धिनी।
आहारोबहुलस्तस्य सम्पायः साधकस्य च।।
अल्पाहारो यदि भवेदग्निर्दहति तत्क्षणात।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/79)
अर्थात प्रतिदिन इसका अभ्यास करने वाले की जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है। इसके अभ्यासी को पर्याप्त मात्रा में भोजन करना चाहिए। यदि वह कम भोजन करता है, तो अग्नि उसके शरीर को जलाने लगती है। इसके अभ्यास से छह महीने बाद ही झुर्रिया तथा सफेद बाल दिखाई नहीं पड़ते हैं। जो प्रतिदिन इसका अभ्यास करता है वह मृत्यु को जीत लेता है।
9. वज्रोली मुद्रा- हठयोग प्रदीपिका में वज्रोली मुद्रा को बहुत महत्व दिया गया है। हठयोग प्रदीपिका कहा गया है कि यदि साधक योगशास्त्रों के नियम के पालन के बिना अकेले वज्रोली का अभ्यास करता है तो भी वह सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है अर्थात सफलता को प्राप्त कर लेता है। इस मुद्रा की विधि का अभ्यास इस प्रकार बताया गया है-
मेहनेन शनैः सम्यगूर्ध्वाकुंचनमभ्यसेत।
पुरुषोऽप्यथवा नारी वज्रोलीसिमाप्नुयात्।।
यत्नतः शस्तनालेन फूत्कारं वज्रकन्दरे।
शनैः शनैः प्रकुर्वीत वायुसंचारकारणात्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/84,85)
अर्थात धीरे धीरे अच्छी तरह से योनिमण्डल का आकुंचन करने की अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने से पुरुष अथवा नारी दोनों को ही वज्रोली का फ़ल प्राप्त होता है। इस मुद्रा की पूर्व तैयारी का वर्णन करते हुए कहा गया है कि शीशे से तैयार पर्यास लम्बी नली को धीरे धीरे लिंग छिद्र में प्रविष्ट कराकर मूत्रमार्ग से वायु का आकर्षण करना चाहिए। यह शीशे से निर्मित नली चिकनी और 14 अंगुल लम्बाई की होनी चाहिए। प्रथम दिन मात्र 1 अंगुल ही नली में प्रवेश करना चाहिए। इस प्रकार क्रम से बढ़ाते हुए उस नली को 12 अंगुल तक लिंगविवर में प्रविष्ट कराना चाहिए। फिर नली के मध्य से अन्दर की ओर मेढ में वायु का प्रवेश करना चाहिए। इससे लिंग विवर शुद्ध हो जाता है। इसके पश्चात शुद्ध व थोड़ा उष्ण जल लिंग द्वारा आकर्षित करना चाहिए। जलाकर्षण सिद्ध हो जाने के पश्चात बिन्दु का आकर्षण करना चाहिए। बिन्दु का आकर्षण हो जाने पर वज़्रोली मुद्रा सिद्ध हो जाती है। जिन्होंने प्राण वायु पर विजय प्राप्त कर ली है, वे ही इसको सिद्ध कर सकते हैं अन्य नहीं। इसको सिद्ध कर लेने के अनन्तर योनिमण्डल में आकर गिरने वाले बिन्दु को अभ्यास के द्वारा ऊपर उठायें और उस चलायमान बिन्दु को ऊपर खींच कर सुरक्षित रखें। स्त्रीयोगिनी के लिए भी कहा गया है कि अभ्यास को कुशलता के साथ नारी भी पुरुष के वीर्य का भली प्रकार आकर्षण कर अपने रज का वज्रोली मुद्रा के द्वारा रक्षण करती है तो ऐसी नारी योगिनी प्रशंसनीय है।
नोट- (यह वज्रोली मुद्रा केवल पाठकों की जानकारी के लिए वर्णित की जा रही है। इसका अभ्यास न करें)
वज्रोली मुद्रा के लाभ- वज्रोली मुद्रा के लाभो का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
एवं संरक्षयेद्विन्दुं मृत्युं जयति योगवित्।
मरणं बिन्दुपातेन जीवन बिन्दुधारणात्।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/87)
अर्थात इस प्रकार वज्रोली मुद्रा के द्वारा बिन्दु की रक्षा करने वाला योग का जानकार साधक अकाल मृत्यु को जीत लेता है क्योंकि बिन्दु का क्षरण ही मृत्यु है और बिन्दु का रक्षण ही जीवन है। कहा गया है-
सुगन्धो योगिनो देहे जायते बिन्दुधारणात्।
यावद्विन्दु: स्थिरो देहे तावत्कालभयं कुतः।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/88)
अर्थात बिन्दु का धारण करने से साधक के शरीर में सुगन्ध पैदा होती है। जब तक शरीर में बिन्दु है तब तक काल का भय कहाँ अर्थात ऐसे साधक की अकाल मृत्यु नहीं होती। इस मुद्रा के अभ्यास से आकाश गमन आदि की सिद्धि का प्राप्त होना बताया गया है। साथ ही कहा गया है कि वज़ोली के अभ्यास से देह सिद्धि मिलती है। यह पुण्य प्रदान करने वाला यौगिक अभ्यास भोग भोगते हुए मुक्ति प्रदान करने वाला अभ्यास है।
10. शक्ति चालिनी मुद्रा- हठयोग प्रदीपिका में कुण्डलिनी, शक्ति, ईश्वरी, कुण्डली, अरुन्धती ये सभी शब्द एक ही अर्थ को प्रकट करने वाले बताये गये हैं। ये सब शरीर में स्थित कुण्डलिनी शक्ति के ही नाम है। हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि जिस मार्ग से क्लेश रहित ब्रह्मपद को पाया जाता है, उस मार्ग के मुख को ढककर कुण्डलिनी सोयी रहती है। कन्द के ऊपरी भाग में सोई हुई यह कुण्डलिनी योगियों के लिए मोक्ष देने वाली होती है किन्तु मूढ लोगों के लिए यही बन्धन का कारण है। कुण्डलिनी सर्प के समान टेढ़ी मेढी आकार वाली बतायी गयी है। शरीर में इसकी उपस्थिति इड़ा व पिंगला के मध्य में मानी गयी है। शक्ति चालन की विधि बताते हुए कहा गया है-
पुच्छे प्रगृह्या भुजगीं सुप्तामुद्वोधयेच्च ताम्।
निद्रां विहाय सा शक्तिरूर्ध्वमुत्तिष्ठते हठात।। (हठयोगप्रदीपिका-3/107)
अर्थात उस सोती हुई सर्पिणी को पूंछ पकड़कर जगाना चाहिए। इससे वह शक्ति निद्रा का त्याग कर एकाएक उठ जाती है। मूलाधार में स्थित उस कुण्डलिनी को प्रातः सायं आधा प्रहर तक सूर्य नाड़ी से पूरक करके युक्तिपूर्वक पकड़कर प्रतिदिन चलाना चाहिए। शरीर में मूल स्थान से एक बालिश्त (12 अंगुल ऊपर) मेढ् और नाभि के बीच कन्द का स्थान बताया गया है जहां से 72000 नाड़ियां उत्पन्न हुई हैं। इस स्थान का पीड़न करते हुए शक्ति का चालन करने के लिए कहा गया है-
सति वज़ासने पादौ कराभ्यां धारयेदृढम्।
गुल्फदेशसमीपे च कन्दं तत्र प्रपीड़येत्।।
वज़्रासने स्थितो योगी चालयित्वा च कुण्डलीम्।
कुर्यादनन्तरं भस्त्रां कुण्ललीमाशु बोधयेत्।।
भानोराकुंचनं कुर्यात्कुण्डलीं चालयेत्ततः।
मृत्युवक्त्रगनस्यापि तस्य मृत्युभयं कुतः।। (हठयोगप्रदीपिका-3/110,111,112)
अर्थात वज्रासन में बैठकर दोनों हाथों से दोनों पैरों के टखनों को दृढ़ता से पकड़े और उनसे कन्द स्थान को जोर से दबाये। उसके पश्चात् भस्त्रिका कुम्भक का अभ्यास करें। इससे कुण्डलिनी शीघ्र जाग्रत हो जाती है। नाभि प्रदेश स्थित सूर्य नाड़ी का आकुंचन कर कुण्डली को चलावें। इससे मृत्यु के मुख में गये हुए साधक को मृत्यु का भय कैसा अर्थात उसे मृत्यु का भय नहीं रहता। इस प्रकार दो मुहूर्त तक निर्भय होकर चलाने से सुषुम्ना में प्रविष्ट होकर शक्ति ऊपर की ओर चलने लगती है।
शक्ति चालिनी मुद्रा के लाभ- शक्ति चालन का लाभ बताते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-
येन संचालिता शक्तिः स योगी सिद्धिभाजनम्।
किमत्र बहुनोक्तेन कालं जयति लीलया।। (हठयोगप्रदीपिका-3/116)
अर्थात जिस साधक ने कुण्डलिनी का चालन किया है। वही योगी सिद्धि प्राप्त करता है। इस सम्बन्ध में अधिक क्या कहना वह साधक अनायास ही मृत्यु को जीत लेता है। आगे कहा गया है-
ब्रह्मचर्यरतस्यैव नित्यं हितमिताशनः।
मण्डलाद् दृश्यते सिद्धि: कुण्डल्यभ्यासयोगिनः।। (हठयोगप्रदीपिका- 3/117)
अर्थात् सदैव ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले और मिताहार करने वाले, कुण्डली चालन के अभ्यासी साधक को एक मण्डल (40 दिन) में ही सिद्धि प्राप्त होने के लक्षण दिखायी देने लगते हैं। बहत्तर हजार नाड़ियों की वृद्धि के लिए शक्तिचालन से उत्तम कोई अन्य उपाय नहीं है। यही मुद्रा मोक्ष प्रदायिनी है। अतः इसका अभ्यास करना चाहिए।
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