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प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत

 प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांंत

Principles of Naturopathy

प्राकृतिक चिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्त इस प्रकार हैं


- प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में दवाइयों का प्रयोग नहीं किया जाता है।

- प्राकृतिक चिकित्सा में रोग एक, कारण एक तथा चिकित्सा भी एक ही होती है।

 - रोगो का मूल कारण कीटाणु नही होते है।

- तीव्र रोग शत्रु नही मित्र होते है।

- प्रकृति स्वयं चिकित्सक है।

- चिकित्सा रोग की नहीं शरीर की होती है।

- रोग निदान की विशेष आवश्यकता नही होती है।

- जीर्ण रोगो के आरोग्य में कुछ समय अधिक लगता है।

- शरीर, मन, आत्मा का इलाज है प्राकृतिक चिकित्सा

 - प्राकृतिक चिकित्सा में उभार की सम्भावना होती है।

1. प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में दवाइयों का प्रयोग नहीं किया जाता है- प्राकृतिक चिकित्सा में केवल 5 तत्वो मिट्टी, पानी, अग्नि, हवा, आकाश एवं छठा तत्व परम पिता जगत नियन्ता जगत का सृजनकर्ता ईशतत्व है, इस चिकित्सा में आहार के रूप में फल, साग सब्जी अनाजों का प्रयोग होता है इनमें भी भरपूर पांच तत्व है,संसार का कोई प्राणी या पौधा जो सजीव है बढ रहा है उन सब मे यही पांच तत्व विघमान है। इन पांच तत्वों के बिना किसी जीव का अस्तित्व नहीं होगा, हाँ इनमे प्रत्येक आहार के तत्वों मे किस खाय पदार्थ मे किस तत्व की प्रधानता है, यह जानकारी होनी चाहिये और किस व्यक्ति मे कौन सा तत्व विशेष रुप से देने की आवश्यकता है वह देना चाहिये। प्रायः रोगी दवाईयो की पद्धति का उपयोग करने के बाद आता है,रोग तो वेसे भी सिद्धान्ततः स्वयं से ही विकार है, उपर से अज्ञानवश अनेक दवाईयों जो सभी रासायनिक असाध्य और विजातीय होती है, रोगी के शरीर मे उनका जहर होता है, ऐसे मे हम उन्हे शोधन हेतु आहार देते है, संसोधन की क्रिया एक साधना है, वैसे हम प्राकृतिक चिकित्सा मे आने वाले रोगो को मित्र ही मानते है। अपने आप का बिना दवा निरोग रखने हेतु आकाश तत्व सबसे महत्वपूर्ण है जीवन मे इसकी आवश्यकता अन्य तत्वो की अपेक्षा अधिक है, इससे शरीर मे स्वस्थता, सुन्दरता, आरोग्यता रहती है व दीर्घायु प्राप्त होती है, आकाश तत्व के सेवन का मार्ग निराहार रहना यानि उपवास करना होता है।

पॉच तत्वों के माध्यम से ही प्राकृतिक चिकित्सा की जाती है इसलिए इस प्रणाली में किसी भी प्रकार की औषधि दिये जाने का प्रश्न ही नही उठता। वर्तमान में व्यक्ति की जीवनशैली अनियमित होने के कारण वह कई शारीरिक ब मानसिक रोगो की चपेट में है और इनके निदान के लिए वह दवाइयों पर निर्भर रहता है। दवाइयो से लाभ हो या न हो पर यह निश्चित है इसके दुष्प्रभाव शरीर में अवश्य पडते है।

प्राकृतिक चिकित्सा विशुद्ध व निर्दोष चिकित्सा पद्धति है इसमें चिकित्सा के लिए दुष्प्रभावों से रहित पंच तत्वों का सहारा लिया जाता है। अतः हमको चाहिए कि प्राकृतिक चिकित्सा के पहले सिद्धान्त का उपयोग दैनिक जीवन में करे।  

2. प्राकृतिक चिकित्सा में रोग एक, कारण एक, तथा चिकित्सा एक ही होती है- शरीर मे रोग एक है, शरीर मे संचित जमा हुआ मल, जिसे विजातीय द्रव्य कहते है आयुर्वेद भी रोगो का कारण शरीर में मल्र संचय मानता है। आयुर्वेद कहता है सभी रोगो का कारण शरीर में मल संचय है और मल के संचय का कारण गलत खाना पीना गलत रहन सहन है। शरीर में जमा विकार रोग है और शरीर के विभिन्न अंगो द्वारा उसको निकालने की जो प्रकिया शरीर की जीवनी शक्ति करती है। बिना किसी दवा के सभी रोग केवल आहार-विहार रहन-सहन के सुधार से ठीक होते है यदि आहार-विहार, रहन-सहन ठीक नहीं तो सैकडो दवाए लाभ नहीं करती है यही सच्ची प्राकृतिक चिकित्सा है। दुनिया के लोग रजस तमस प्रधान है और रजस तमस प्रधान व्यक्ति विलासी होता है। उसे पथ्य रहन सहन सुधारने को कहना ही व्यर्थ होता है। विलासी व्यक्ति मिर्च, नमक, गर्म मसाले, अधिक तला भूना भोजन, भांग, गांजा, अफीम, शराब, तम्बाकू, बीडी, सिगरेट, स्मैक, आदि ना जाने कितने असाध्य आहार लेता है। उसे उपरोक्त सभी वस्तुएं चाहिये, इसमें से कुछ भी नहीं छोडेगा मांस, मछली, अंडा खाने वालो को ये सब खाते हुए और सदा खाते रहने के लिये शरीर को बनाये रखना है तो भला वे प्राकृतिक चिकित्सा क्यों करेंगे? फिर तो वे दवा ही खायेंगे और दवा के भरोसे जितनी जिन्दगी है उतनी और चला लेते है किन्तु परहेज संयम नही करते है। प्राकृतिक चिकित्सा में इन्ही सब कुपथ्यो को रोग का कारण मानते है। आयुर्वेद भी मानता है, सभी रोगो का कारण संचित मल और संचित मलों का कारण गलत जीवनशैली है, इसका एक ही इलाज है की गलत आदतो को छोडना तथा जिन गलती के कारण रोग हुआ है, मल संचित हुआ है उनका सुधार करना तथा एनिमा, भापस्नान, उपवास, वमन, नेति, मालिश, भोजन का सुघार करके रक्त शुद्धि, शरीर शुद्धि, मल शुद्धि करके शरीर निरोग किया जाता है। इस प्रकार जीवनशैली में सुधार करके प्राकृतिक चिकित्सा की जाती है। 

3. रोगो का मूल कारण कीटाणु नहीं होते हैं- रोग कीटाणु, जीवाणु या विषाणु से होते है यह सिद्धान्त ऐलोपैथी चिकित्सा में मानते है। कीटाणु उसी शरीर मे पैदा होते है जिसके शरीर में उनके जीने हेतु वस्तुए होगी अर्थात सडा मल कूडा कचरा होगा, वहीं कीटाणु होगे, जिनके शरीर में रक्त विकार नहीं होगा वहां कीटाणुओ को आहार प्राप्त नहीं होगा। वैसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में भी शरीर मे रोग की सुरक्षात्मक शक्ति की उपस्थिति से रोग नहीं होना मानते ही है, यह सुरक्षात्मक व्यवस्था कमजोर होने पर ही कोई बाहर का कीटाणु शरीर पर अपना प्रभाव उपस्थित कर सकता है। यह शरीर अपने आप में एक सम्पूर्ण व्यवस्था युक्त लोक है। इस शरीर की तुलना ब्रहमाण्ड से की गई है “यथा पिण्डे तथा ब्रहमाण्डे” यह शरीर अपनी टूट फूट की मरम्मत स्वम् करता है, इसमें वे तमाम व्यवस्थायें है, जो एक राष्ट्र में या पूरे ब्रहमाण्ड में है। आधुनिक चिकित्सा विजान ने ही कहा है कि शरीर में श्वेत रक्तकण (WBC) कीटाणुओं की ऐसी सेना है, जो किसी भी रोगाणु को शरीर में प्रवेश करते ही उससे आत्मसात कर जाती है। तो इन श्वेत रक्ताणुओं की फौज अवश्य ही सबल रहनी चाहिये, श्वेत रक्ताणुओ की फौज की सबलता के लिये रक्त में पाये जाने वाले शुद्ध सभी रासायनिक तत्व विद्यमान होना आवश्यक होता है, जो संतुलित आहार, शुद्ध वायु, सुर्य की खुली धूप, खुला आकाश, उचित व्यायाम, विश्राम, संतुलित मन होने से ये शरीर की शक्ति बढाने वाले तत्व बनते बढते तथा कायम रहते है, इसे संक्षेप मे यही कह सकते है कि प्राकृतिक जीवन होने से जीवनीशक्ति प्रबल रहती है, जो रोगो के कीटाणुओ से सुरक्षा प्रदान करती है।  

4. तीव्र रोग शत्रु नहीं मित्र होते हैं- शरीर में विकार जमा होने पर उस विकार को निकालने की जो शरीर की जीवनी शक्ति द्वारा चेष्टा की जाती है उसे ही रोग की संज्ञा दी जाती है, शरीर के किस भाग में किस तरह का विकार निकलता है या क्या लक्षण दिखता है वैसा नाम उस रोग को समझने के लिये दे देते है, जैसे किसी को दस्त लग रहे हो तो पेट मे गन्दगी (मल) जमा होने पर प्रकृति उसे निकालने का प्रयत्न दस्त के रुप मे कर रही होती है, इसलिये दस्त होना एक रचनात्मक चेष्टा है। यह शरीर के हित के लिये ही हो रहा है। जिससे एनिमा देकर उस दस्त को बार-बार होने के कष्ट से बचाया जा सकता है। इसी प्रकार किसी के नाक से बलगम आती है उसे नजला कहते है, तो शरीर मे बलगम बढ़ने पर ही प्रकृति उसे नाक के जरिये बाहर निकाल रही होती है। उसे हमने जुकाम का नाम दे दिया, समझने हेतु यह जुकाम शरीर के हित में प्रकृति की चेष्टा है, हमें जुकाम की सहायता करनी चाहिये। जल नेति नमक तथा पानी से करने से लाभ होता है तथा कफ रहित भोजन (सब्जी, फल) लेने से भी जुकाम ठीक हो जाता है। श्लेष्मा युक्त आहार, दूध और लेंसदार अन्न होते है, उन्हे बन्द करके हरी सब्जी और फल लेने से श्लेष्मा के बठने से नाक से जो श्लेष्मास्राव हो रहा है वह बन्द हो जाता है। यह प्राकृतिक चिकित्सा की विधि है शरीर मे रोग स्वयं उपचार करने की प्राकृतिक विद्या है रोग नाम हमने अपनी सुविधा के लिये दिया है वैसे शरीर मे जमा हुआ विकार निकालने की प्रक्रिया ही रोग है, रोग का कार्य विधेयात्मक है| इसीलिये रोग तीव्र रोग शत्रु नही मित्र होते है।

5. प्रकृति स्वयं चिकित्सक है- शरीर का स्वभाविक कार्य है पाचन, पोषण एवं निष्कासन। शरीर की रक्षा हेतु शरीर की पुष्टता हेतु शरीर की घिसावट की पूर्ति हेतु आहार की आवश्यकता होती है। आहार यदि फल, सब्जी, जूस प्राकृतिक रुप मे है तो शरीर उसे पचाने मे कम प्राण शक्ति जिसे जीवनी शक्ति कहते है, खर्च होती है आहर में ताजा फल और सब्जियाँ विशेष लाभकारी होते है ये रक्त के कोषाणुओ को संगठित करता एवं उनको संपुष्ट करते है यदि अपक्वाहार या उपवास किया जाय तो जीवनी शक्ति बडी तेजी से शरीर की बिगाड़ को ठीक कर लेती है। इलाज के दो तरीके है एक दवाई करना दूसरी प्राकृतिक। एक में रोग दूर करने के लिये विष को दवाओ की भाँति प्रयोग किया जाता है दूसरे में प्राकृतिक पदार्थों और शक्तियों को रोग निवारण के लिये ठीक उपायो की भाँति काम में लाया जाता है। यदि रोग होते ही केवल एनिमा देकर पेट साफ कर दिया जाय पीने को सादा शुद्ध जल या फलों का रस अथवा शहद पानी पर उपवास करा दिया जाय तो रोग शीघ्र ठीक हो जाता है।


6. चिकित्सा रोग की नहीं शरीर की होती है- प्राकृतिक चिकित्सा की मान्यता जब शरीर में विकार रोग का कारण है और किसी भी एक अंग मे से वह विकार निकलता है, या एक स्थान पर खडा होकर पीडा देकर अपने अस्तित्व का संकेत देता है गठिया को ही लें एक घुटने मे सूजन के रुप में संकेत है कि ये शरीर यूरिक एसिड इत्यादि विषयों से आच्छादित है और एक घुटने में ज्यादा प्रभाव दिख रहा है। धीरे धीरे वह सभी जोडों पर बढ चढ कर प्रभाव दिखाने लगता है तब आप ही बताइये की कहां कहां किस जोड या किस भाग की सुजन कैसे ठीक कर लेंगे जबकि विकार पूरे शरीर में भरा हुआ है। इसलिये एक अंग का इलाज ना करके पूरे शरीर का इलाज करना होता है। रक्त मे जमा तेजाब अम्ल को संतुलित करना गठिया का इलाज है। जिसे कोई दवा संतुलित नही कर सकती उसके लिये क्षारीय आहार देना तथा कब्ज मल अवरोध आदि के कारण आंतों में जमा मल को एनिमा द्वारा रक्त मे जमा यूरिक एसिड को फलों का रस पिला कर कम करना अधिक पसीना तथा मूत्राअम्ल को निकालना ही गठिया से मुक्ति दिलाना होगा। यह रोगी को इतना बडा भुलावा है कि पीडा शामक दवा जो कुछ घण्टे ही रहकर पीडा का ज्ञान नहीं होने देती देकर उसे दवा की संज्ञा दे दी जाती है। दवा का अर्थ रोग निवारक व्यवस्था होती है और रोग शरीर में जमा हुए विष जहर या मलसंचय है जिसे प्राकृतिक चिकित्सा अपने सामान्य उपचारो तथा भोजन सुधार से ठीक कर देता है इसलिये किसी एक अंग का इलाज ना करके पूरे शरीर का उपचार किया जाता है बहुत बार ऐसा देखा गया है कि रोगी ने अपना रोग गठिया, दमा, उच्चरक्तचाप या मधुमेह बताकर उपचार शुरु किया परन्तु उसको चर्म रोग भी था उसके पेट मे दर्द भी रहता था, या कहीं पर गाठ सूजन थी और मुख्य रोग बताकर उसी का इलाज हो रहा था। परन्तु बिना बताये रोग बडे रोग से पहले ठीक हो गये इससे स्पष्ट हो गया की चिकित्सा शरीर की हुई और बिना किसी विधि से वह रोग भी ठीक हुए जिनके उपचार की चर्चा भी नहीं की गयी थी। ऐसा बहुत बार हुआ है, उससे साफ पता लगता है कि चिकित्सा रोग की नही बल्कि पूरे शरीर की होती है। 

7. रोग निदान की विशेष आवश्यकता नही- वास्तव में शरीर का इलाज करने से यानि शरीर शुद्धिकरण करने मात्र से ही रोग ठीक होने लगते है इसलिये निदान होने से ही उपचार होगा ऐसी कोई अनिवार्य शर्त इस उपचार मे नही है। प्राकृतिक चिकित्सा में लक्षणों के आधार पर उपचार हो जाता है। रोग का सही सही निदान आज ऐलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान की आधुनिकतम जांच प्रणाली को ना करना कौन स्वीकार करेगा। जिन लोगो को रोग हुआ है उस बात की जानकारी नही है जो रोग के कारणो से सर्वथा अनभिज्ञ है तथा स्वयं कुछ करने की फुरसत नही है या करना नहीं चाहते वह डॉक्टरों पर सब कुछ छोड देते है और डॉक्टर की दवा के लिये उनके यहां सही सही निदान होना अनिवार्य है। अलग अलग रोग की अलग अलग दवा होती है जब तक रोग का ठीक ठीक निवारण नहीं होता तब तक दवा दी ही कैसे जायेगी। इसीलिये उनके यहाँ किसी भी रोगी के डायग्नोसिस अर्थात निदान मे महीने लगाते है। कभी कभी तो उनका रक्त या मॉस का कोई टुकडा अथवा शरीर का कोई स्राव पदार्थ अमेरिका, जर्मनी, जापान निदान हेतु भेजना पडता है और ऐसे निदान के चक्कर में ही रोगी स्वर्ग सिधार लेता है। डाक्टरों को भी मशीन ही बतायेगी, यहां की मशीन बताये या अमेरिका की मशीन बताये बात तो एक ही है। प्राकृतिक चिकित्सा मे यह विवाद नही है क्योकि उपचार तो शरीर का होता है और रोग का कारण शरीर में जमा विकार है विकार मिलते ही रोगी को उपचार मिलना प्रारम्भ हो जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा मे रोगी की मन की संतुष्टि हेतु निदान कर लिया जाता है परन्तु आवश्यक प्रतीत नही होता है। ऐसे बहुत सारे उदाहरण दिये जा सकते है कि रोग तो मालूम नहीं और शरीर के शुद्धिकरण अर्थात एनिमा से मल्र शुद्धि, आंत शुद्धि आहार द्वारा रक्त की शुद्धि, विचारो द्वारा मन की शुद्धि करने के उपरान्त शरीर के रक्त को वायु एवं तन्तुए स्वयं रचनात्मक सृजन में लग जाते है। अतः रोगी को अनेक प्रकार की मशीनो के समक्ष ले जाकर रोग का निदान करना रोग बढाना ही है। 

8. जीर्ण रोगो को आरोग्य में कुछ समय अधिक लगता है- प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में लोगो मे एक भारी भ्रम है कि यह इलाज में समय बहुत लेता है। इसका अर्थ है दूसरे इलाज मे आराम जल्दी मिलता है यह बातें अनेक के मुंह से सुनने को मिलती है। प्राकृतिक चिकित्सा मे रोगी प्रारम्भ मे नहीं आता है प्रायः तमाम इलाजो के तरीकों से जब उसकी निराशा की अवस्था आती है वह तब प्राकृतिक चिकित्सा की शरण लेता है किसी किसी रोग से वह 30- 40 वर्ष रोगी होता है और लगातार वर्षो से दवा चलती ही रही फिर भी रोग नहीं गया बल्कि रोग का शरीर मे विस्तार ही हुआ होता है। उदाहरणार्थ किसी एक उगली या घुटने मे दर्द शुरु हुआ था 40 वर्ष पूर्व तबसे दवा चलती रही दवा से दर्द मे आराम हो जाता है क्योकि वह दवा पेनकिलर अर्थात दर्दशामक थी और संवेदनशील नाडियों को दर्द की सूचना न देने की स्थिति मे पहुचाने की क्षमता इसमें होती थी, इस प़्रकार दर्द वही रहता और दर्द का कारण तमाम शरीर मे विजातीय द्रव के रुप में रहता था। रोगी डाक्टरो अस्पतालों या अन्यत्र खाक छानता फिरता कि कोई दर्द मिटा दे दवा से क्षणिक कुछ धण्टे आराम मिल जाता और वह दर्द वर्षों से चलता रहता है और कैसे भी शरीर रूपी गाडी भी चलती रहती है। यदि बीच में कभी कोई प्राकृतिक चिकित्सक मिला तो भी उसके द्वारा बताया गया संयम इतना कठिन लगा की उसे स्वीकार नहीं किया गया। शरीर मे भले ही रोग का विस्तार होता रहा किन्तु दवा के द्वारा क्षणक आराम के सहारे, दर्दशामक के सहारे की लम्बी अवधि पार कर ली गयी। प्राकृतिक चिकित्सा में जब उपचार शुरु करते है तो दवाईयों को घीरे-धीरे कम करके छुडाना ही होता है, और कई वर्षो में रोगी उतना अधिक आदि हो चुका होता है कि दवा छोडते ही दर्द वेदना असहाय होती है। ध्यान रहे रोग का कारण विजातीय द्रव्य का शरीर में जमा हो जाना है।

9. प्राकृतिक चिकित्सा में उभार की सम्भावना होती है- प्राकृतिक चिकित्सा में रोग शरीर मे मल भार जमा होने का प्रतीक है और शरीर उसे जब बाहर निकालता है उसके नाम अलग-अलग दिये गये है। विकार भी अलग -अलग किस्म के है और शरीर के विभिन्न अंगो द्वारा जहाँ भी अंगो की कमजोरी है वही से निकलते है। इन विकारों को निकलने से रोकना या इनके निकलने से होने वाली वेदना शमन किसी दवा के द्वारा की गयी होती है। विकार अन्दर ही दबा हुआ उसी रुप पडा रहता है। दवाईयाँ शरीर को इतना बेदम करती है कि यह विकार शरीर में रुकने पर अन्य दूसरे रुप में भी निकलने का संकेत करता है परन्तु अज्ञानी मानव उसे नया रोग समझ उसके लिये फिर और कोई दवा जहर देकर दबा देते है। यह क्रम जीवन भर चलता ही रहता है इसी क्रम में एक रोग दबाया, दूसरा पैदा हुआ, उसे दबाया तीसरा पैदा हुआ उसे दबाते-दबाते चाँथा, पाँचवा, छठा रोग ही रोग हो जाते है। 

10. शरीर, मन, आत्मा का इलाज है प्राकृतिक चिकित्सा- आमतौर से रोगी अपनी शारीरिक पीड़ा से दुःखी होकर ही चाहे किसी पद्धति में चिकित्सा के लिये भागता है, उसको ज्ञान ही नहीं है कि स्वास्थ्य किसे कहते है? उसको तो इतना ही मालूम है की उसे भूख नहीं लगती है तो भूख लग जाए बस और कुछ नही चाहिये। खुजली हो रही है तो खुजली मिट जाय इसलिये कोई पाचक खाता फिरता या मलहम लगाकर खुजली ठीक कर लेता था। किन्तु बहुत दवा लगाने पर भी ठीक नहीं हुआ तो आ गया प्राकृतिक चिकित्सा में और उसको भूख भी लग गयी और खुजली भी ठीक हो गयी, शरीर स्तर पर अवश्य ही ठीक हो गया लगता है रोगी भी मानता है मै ठीक हूँ फिर क्या चाहिये, चिकित्सक को पैसा रोगी से मिला और रोगी को पीढा शमन से संतोष मिला यह दोनो काम प्राकृतिक चिकित्सा में आने से पहले भी चल रहे थे। दूसरी पद्धति दवा मे भी ये दोनो बातेँ चल रहे थी किन्तु प्राकृतिक घिकित्सा में यह विशेषता होनी चाहिये वह रोगी का मन और आत्मा दोनो बदलने का इलाज साथ-साथ देते रहे, अस्तु सुबह शाम प्रार्थना और मन की शुद्धता पवित्रता के लिय दैवी गुणो को अपने भीतर धारण करने की क्षमता निर्माण करना रोगी को अवश्य बताया जाय, शरीर शुद्ध तो मन भी शुद्ध शरीर स्वस्थ तो मन भी स्वस्थ कहा भी गया है। "स्वस्थ शरीर में है स्वस्थ मन होता है, कोई भी व्यक्ति अगर मानसिक रुप से स्वस्थ है तो वह कभी कोई भूल या निम्न स्तर का कार्य नहीं करेगा स्वस्थ मनुष्य को हमेशा उन्नत मार्ग पर या सद् मार्ग की ओर ही ले जाने वाला है ऐसे सन्मार्गों में चलकर ही आत्मा भी परम पवित्र एव महान हो जाती है इसलिये प्राकृतिक चिकित्सा कराने वाले रोगी को सच्चा प्राकृतिक चिकित्सक रोगी से निरोगी और निरोगी से देवात्मा भी बना देता है, ऐसे अनेक उदाहरण सामने है। अस्तु प्राकृतिक चिकित्सा शरीर, मन, आत्मा तीनो की चिकित्सा करती है।


योग का अर्थ

योग की परिभाषा

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  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...