Skip to main content

जल तत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

 जल तत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व- 

 Effect and importance of water element on the body- हमारे शरीर का 70 प्रतिशत भाग पानी से भरा हुआ है तथा इसकी पूर्ति भोजन में मुख्यतः कुछ सब्जियों , फलो से आती है।


इनमें भी दो प्रकार के भेद हैं-

1. ऐसी सप्जियाँ जो जमीम के ऊपर होती है- जैसे- लौकी, परवल, तोरई, टिण्डा, गोभी आदि। इममें जल तत्व अधिक होता है और इनमे शरीर से मल निकालने को शक्ति भी अधिक होती है।

2 आलू, शकरकंद आदि कंदमूल जिनमे जल तत्व कम तथा पृथ्वी तत्व अधिक होता है ये कंदमूल उपर्युक्त सब्जियों की अपेक्ष अधिक गारिष्ठ होेते हैं।

पंच महाभूतों में चौथा स्थान जल का है जल हमारे जीवन में बहुत ही मह्त्वपूर्ण भूमिका रखता हैं। जल के कारण ही हम सभी स्वाद का अनुभव कर पाते हैं जैसे मीठा, खट्टा, कड़वा, तीखा, कसैला तथा नमकीन। पानी हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है। हमारे शरीर की रचना के अनुसार भी इसका महत्व है हमारे शरीर का 2/३ भाग केवल जल ही होता है। इस तत्व के द्वारा ही हम अपने शरीर के आन्तरिक व बाहय अंगों को शुद्ध व स्वच्छ रख पाते हैं जल में  विजातीय द्रवों व अन्य विषों को अपने में घोलने तथा उन्हें पेशाब, श्वांस एवं पसीने के माध्यम से बाहर निकालने का गुण है। जल के द्वारा हमारे शरीर का रक्त संचार अच्छा हो सकता है। ठंडे जल से स्नान करने पर थकान- गिरावट दूर होकर, शारीरिक, मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। शरीर पर स्नान के अलग- अलग प्रभाव देखने को मिलते हैं। आज कल स्नान विधि बड़ी ही दोषपूर्ण है क्योंकि स्नान के नाम पर केवल साबुन लगाकर दो चार लोटे जल गिराकर उसे स्नान मान लेना गलत है।  
 
स्नान का तभी लाभ प्राप्त हो सकता है जब शान्तिपूर्वक ढंग से आवश्यकतानुसार ठंडे, गर्म, शीतल पानी का प्रयोग कर स्नान किया जाए तथा प्रत्येक अंग प्रत्यंग को ठीक ढंग से रगड़ के मालिश भी की जाये तथा स्नान के पश्चात कोमल तौलिया से शरीर को सोखना नहीं बल्कि खुरदरी तौलिया से रगड़ कर पानी को पोछने से हमारी त्वचा स्वस्थ चमकदार तथा कोमल बनती है। स्नान कई प्रकार के होते हैं उपचार के लिए पानी का विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है।

1. सामान्य स्नान- सामान्य स्नान में नदी, तालाब समुन्द्र एवं कुंए के पानी में डुबकी लगाकर नहाना सम्मिलित है या घर में बाल्टी भरकर नहाना झरनों के नीचे नहाना तथा तैरना आदि।

2. फॉँव्वारा स्नान- यह वर्षा स्नान के समान ही लाभप्रद है। इसमें बाजार से मिलने वाले फव्वारे को एक पाइप से जोड़कर पूरे शरीर पर फव्वारे से पानी गिराएं इससे गिरने वाला पानी सम्पूर्ण शरीर पर पड़ना चाहिए। इस स्नान की अवधि 1-6 मिनट हो सकती है।

3. जलधार स्नान- इस स्नान के लिए रबड़ की नली से जल की सीधी धार गिराई जाती है और इस प्रकार गिराई जाती है कि जल पूरे शरीर पर पडे।

4. दीक्षा सनान- सामान्य शरीर को ठंडे जल में डुबाकर किए गए स्नान को दीक्षा स्नान कहते हैं।

5. पूर्ण स्नान- रोज रात को मिट्टी के घड़े में रखे हुए जल को शरीर पर उडेलकर हथेली से तेज-तेज रगड़ना चाहिए।

 इन स्नानों से होने वाले लाभ -

- रक्त संचार में वृद्धि होती है।

- थकान दूर होती है।

- पाचन तंत्र पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
 
- स्फूर्ति बढ़ती है।

-  भूख अच्छी लगती है।

-  शरीर में हल्के पन का अनुभव होता है।
 
 पशु-पक्षी सभी प्रकृति की गोद में रहते हैं तथा उसके नियमों का पालन करते हुए सुखी जीवन यापन करते हैं वहीं रहते हैं, खाते हैं, सोते हैं तथा बीमार होने पर प्रकृति के नियमों पर चलकर ठीक हो जाते हैं। मनुष्य भी प्रकृति के नियमों पर चलकर सुखी व स्वस्थ जीवन का यापन कर सकता है।

क्रमशः गर्म और ठंडे पानी के प्रयोग से शरीर के अन्दर रक्त परिभ्रमण की प्रक्रिया काफी तीव्र हो जाती है जिसके फलस्वरूप शरीर क्रिया, विज्ञान की दृष्टि से निम्न प्रकार से स्वास्थ्य वर्धक एवं रोग प्रतिरोधक प्रभाव होते हैं।

- ठंडे जल के प्रयोग से श्वांस की गति तेज हो जाती है, फल्रस्वरूप शरीर द्वारा आक्सीजन तथा ओजोन ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। फलस्वरूप विजातीय पदार्थों का दहन तथा आक्सीकरण काफी तेजी से होने लगता है।
- शरीर में लाल रक्त कणिकाओं की संख्या बढ़ जाती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ठंडे जल के प्रयोग से नये लाल रक्ताण (R.B.C) बनने लगते हैं बल्कि जो लाल कण सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं वे क्रियाशील हो उठते हैं।
 
- शरीर में जल की कमी होने पर जैसे कि ज्वर, हैजा, मधुमेह आदि की स्थिति में शरीर में जल पूर्ति आवश्यक है।

- पानी में नमक, चीनी, नींबू, शहद आदि मिलाकर लेना ज्यादा हितकारी है। गुर्दे के रोग होने पर नमक व पानी का प्रयोग चिकित्सक के अनुसार करें।
 
 - शरीर के तापक्रम को खतरे की सीमा से नीचे लाता है क्योंकि त्वचा द्वारा ताप विकरण की क्रिया बढ़ जाती है।
 
-. शरीर की धनात्मक विद्यतीय शक्ति बढ़ जाती है।
 
- विभिन्न शारीरिक संस्थानों द्वासा विजातीय पदार्थ को आसानी से बाहर निकाल फेंकने की क्षमता बढ़ जाती है।
 
- दाल का पानी, सब्जी का पानी, शिकंजी, जूस आदि में भी पानी का ही अंश होता है और इनके सेवन से पानी के साथ-साथ खनिज लवणों की कमी की भी क्षतिपूर्ति होती है।

- रक्त परिभ्रमण सब जगह सामान्य हो जाता है तथा आवश्यकतानुसार वृद्धि भी होती है।

- स्नायविक संस्थान की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। ऊतकों की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।

- गुर्दा यकृत तथा त्वचा की क्रिया बढ़ जाती है।
 
 - ठंडे जल के प्रयोग से आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड की मात्रा ठीक स्तर पर बढ़ जाती है।

- कार्बोहाइडेट एवं चिकनायी की दहन क्रिया बढ़ जाती है।

- आकस्मिक चोट के कारण पैदा हुआ दर्द दूर हो जाता है क्योंकि अवरूद्ध रक्त का परिभ्रमण सामान्य हो जाता है।

-. शरीर की आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती है तथा कार्बनडाइक्साइड के निर्यात की क्रिया तीव्र हो जाती है।

- जल चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा किए गये प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकलता है कि जब ठण्डे जल का सामान्य प्रयोग रक्त के क्षारत्व को बढ़ाता है एवं अम्लत्व को घटाता है।

-. पाचन संस्थान द्वारा खाद्य रसों की प्रचूषण एवं आत्मसात करने की क्रिया बढ़ जाती है।

इस प्रकार जल द्वारा पुराने तथा भयंकर रोगों से मुक्ति दिलाई जा सकती है अपितु जल चिकित्सा यह सिद्ध कर चुकी है।
 
 ठंडे पानी का शरीर पर अल्पकालीन प्रयोग करने पर निम्न प्रभाव पड़ता है  

* शरीर के तापमान को बढ़ाता है।
* त्वचा की कार्यशीलता में वृद्धि करता है।
* श्वांस की क्रिया को धीमा करता है।
* पोषण शक्ति में वृद्धि करता है।
* अल्प समय के लिए रक्त कोषों को संकुचित करता है।
*मांसपेशियों को संकुचित करता है।
* हृदय की क्रियाशीलता को बढ़ाता है।
* शरीर की नाडियों को उत्तेजित करता है।
* रक्तचाप को बढ़ाता है।

ठंडे पानी का शरीर पर दीर्घकालीन प्रयोग करने पर निम्न प्रभाव पड़ता है -
 
* शारीरिक तापमान को घटाता है।
* त्वचा की कार्यशीलता में ह्रास उत्पन्न करता है।
* पाचन क्रिया को मध्यम करता है।
* पोषण क्षमता को अधिक प्रभावित नहीं करता है।
* मांसपेशियों को संकुचित करता है।
* हृदय की क्रियाशीलता को कमजोर करता है।
* शरीर की नाडियों पर मृदु प्रभाव डालता है।
* रक्त चाप को घटाता है।
* मांसपेशियों को संकुचित करता है। 

पृथ्वी तत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व- 

Influence and importance of the earth element on the body- मिट्टी में सभी पंच महाभूतों का समावेश है। इस कारण इसे पंच महाभूतों से सम्पन्न माना जाता है। मिट्टी को इसलिए माँ की तरह पूजा जाता है।
       भारत में प्राचीन समय से ही मिट्टी को बहुत अधिक महत्य दिया जाता है। मिट्टी को विभिन्न कार्यों में प्रयोग किया जाता है जैसे मिट्टी को शरीर पर मल-मलकर नहाया जाता है शौच के बाद मिट्टी से हाथ धोना, बर्तनों को मिट्टी से धोना, घर के फर्श को मिट्टी से लीपना मिट्टी से बर्तनों को बनाना, मिट्टी में लेटना, खेलना, मिट्टी का शरीर के विभिन्न अंगों पर लेप करना। मिट्टी पर नंगे पैर चलना, आदि। हम मिट्टी पर सोकर एवं मिट्टी के शेष विभिन्न प्रयोग कर पूर्ण स्वास्थ्य एवं आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।
 
मिट्टी अपने निम्न विशेष गुणों के कारण और भी उपयोगी व महत्वपूर्ण बन गई है जो इस प्रकार से है -


1. मिट्टी में ठंडे और गर्म दोनों तापमानों को अपने अन्दर सोखकर उसे सामान्य करने का गुण निहित होने के कारण उपचार में बहुत अधिक लाभकारी सिद्ध होती है।
2. मिट्टी बहुत ही सस्ती व सुलभ होती है।
3. मिट्टी में गंध को नष्ट करने का गुण निहित है बड़े से बड़े कूडे के ढेर को मिट्टी के नीचे दबा देने पर दुर्गन्ध मिट जाती है।
4. मिट्टी में कीटाणुओं को नष्ट करने का गुण है।
5. मिट्टी निर्मल होने के कारण बहुत ही महत्वपूर्ण है।
6. मिट्टी में जल, खनिज लवण तथा कई जरूरी तत्व पाए जाते हैं जो कि चिकित्सा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।
7. मिट्टी में जन्म देने की शक्ति है।
8. मिटटी में सोखने के गुण के कारण शरीर के विष को मिनटों में सोखकर बाहर कर देती है।
 
           आज का युग आधुनिक युग है। जिसने हमें विकास के नाम पर प्रकृति से दूर कर दिया है। आज का मानव प्रकृति से दूर शहरों में बड़ी उंची- उंची इमरतों में रहता है। वह बहुत ही नाजुक भी बन गया है क्योंकि नंगे पैर चलने पर उसे दर्द होता है। इसलिए जूते पहनकर चलता है। शहरी मानव बहुत ही कठोर जीवन जी रहा है। प्रदूषण भरे वातावरण में, अप्राकृतिक भोजन खाकर, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन कर अप्राकृतिक जीवन शैली अपनाकर बड़े- बड़े भयंकर आधुनिक पद्धति के रोगों को भोग रहा है। आज का मानव पैदल मिट्टी पर चलना तो दूर घर में मिट्टी के कणों को देखकर ही विचलित हो जाते हैं। वह जानते भी नहीं कि वह कितने अज्ञानी हैं जो मिट्टी तत्व की अवहेलना कर रहा है। वह नहीं जानता की प्राकृतिक जीवन जीना और पंच महाभूतों के निकट रहकर उनका नित सेवन करना वास्तविक आनन्द की अनुभूति कराता है। नंगे पैर चलने से रक्त संचार बेहतर होता है तथा पैर कोमल बनते हैं।
         मिट्टी के विभिन्न प्रयोगों के द्वारा स्वस्थ व निरोगी काया को प्राप्त किया जा सकता है। जैसे धरती पर सोना, मिट्टी की मालिश, मिट्टी की पट्टी, मिट्टी पर नंगे पैर टहलना, मिट्टी से दाँत साफ करना आदि।
         यह तत्व हमें हमारे भोजन से भी प्राप्त होता है। खाद्य पदार्थों, फलो आदि में पाया जाता है अनाज, दालें और चावल व गेहूँ में भी यह तत्व पाया जाता है। इन भोजन पदार्थों के द्वारा इस तत्व की पूर्ति कर भयंकर रोगों को दूर किया जा सकता है।

प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत

 पंच तत्व

 अष्टांग योग

Comments

Popular posts from this blog

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

योगवशिष्ठ ग्रन्थ का सामान्य परिचय

मुख्य विषय- 1. मनोदैहिक विकार, 2. मोक्ष के चार द्वारपाल, 3. ज्ञान की सप्तभूमि, 4. ध्यान के आठ अंग, 5. योग मार्ग के विघ्न, 6. शुक्रदेव जी की मोक्ष अवधारणा  1. योग वशिष्ठ के अनुसार मनोदैहिक विकार- मन के दूषित होने पर 'प्राणमय कोष' दूषित होता हैं, 'प्राणमय' के दूषित होने से 'अन्नमय कोष' अर्थात 'शरीर' दूषित होता है, इसे ही मनोदैहिक विकार कहते हैं:- मन -> प्राण -> अन्नमय (शरीर) योग वशिष्ठ के अनुसार आधि- व्याधि की अवधारणा- Concept of Adhis and Vyadhis आधि- अर्थात- मानसिक रोग > मनोदैहिक विकार > व्याधि- अर्थात- शारीरिक रोग आधि एवं व्याधि का संबंध पंचकोषों से है: आधि- (Adhis) 1. आनंदमय कोष:- इस कोष में स्वास्थ्य की कोई हानि नहीं होती इसमें वात, पित व कफ की समरूपता रहती है। 2. विज्ञानमय कोष:- इस कोष में कुछ दोषों की सूक्ष्म प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसमें अभी रोग नहीं बन पाते क्योंकि इसमें दोषों की प्रक्रिया ठीक दिशा में नहीं हो पाती। 3. मनोमय कोष:- इस कोष में वात, पित व कफ की असम स्थिति शुरू होती है यहीं पर 'आधि' की शुरुआत होती है। (आधि= मान...

MCQs for UGC NET YOGA (Yoga Upanishads)

1. "योगचूड़ामणि उपनिषद" में कौन-सा मार्ग मोक्ष का साधक बताया गया है? A) भक्तिमार्ग B) ध्यानमार्ग C) कर्ममार्ग D) ज्ञानमार्ग ANSWER= (B) ध्यानमार्ग Check Answer   2. "नादबिंदु उपनिषद" में किस साधना का वर्णन किया गया है? A) ध्यान साधना B) मंत्र साधना C) नादयोग साधना D) प्राणायाम साधना ANSWER= (C) नादयोग साधना Check Answer   3. "योगशिखा उपनिषद" में मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन क्या बताया गया है? A) योग B) ध्यान C) भक्ति D) ज्ञान ANSWER= (A) योग Check Answer   4. "अमृतनाद उपनिषद" में कौन-सी शक्ति का वर्णन किया गया है? A) प्राण शक्ति B) मंत्र शक्ति C) कुण्डलिनी शक्ति D) चित्त शक्ति ANSWER= (C) कुण्डलिनी शक्ति Check Answer   5. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में ध्यान का क...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...