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क्रियायोग की अवधारणा, क्रियायोग के साधन, क्रियायोग का उद्देश्य एवं महत्व

क्रियायोग की अवधारणा - 

योगसूत्र में महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है। अर्थात्‌ चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अभाव ही योग है। इस अभाव के फलस्वरूप आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हों जाती है। इस अवस्था में पहुँचकर उसका इस संसार में आवागमन नहीं होता है। जो कि जीव की अन्तिम अवस्था कही जाती है। 

इस  अवस्था की प्राप्ति के लिये महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अभ्यास - वैराग्य एवं ईश्वरप्राणिधान की साधना बताई है किन्तु जिन योग साधको का अन्तःकरण शुद्ध है तथा जिसके पूर्व के अनुभव है अभ्यास - वैराग्य का साधन उन्हीं साधकों के लिए है। सामान्य व्यक्ति जो साधना आरम्भ करना चाहते है उनके लिए महर्षि पतंजलि ने साधनपाद में सर्वप्रथम क्रियायोग की साधना बतायी है।
“तप स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि क्रियायोग:"  (योगसूत्र साधनपाद- 1)
अर्थात तप स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान या ईश्वर के प्रति समर्पण यह तीनों ही क्रियायोग है। क्रियायोग समाधि के लिए पहला आधार है और वह तब फलित होता है जब तप स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण हो ।

क्रियायोग के साधन-

महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद में जो भी योग के साधन बताए हैं वे सभी मन पर निर्भर है। किन्तु जो अन्य विधियों से मन को नियन्त्रित नही कर सकते है। उनके लिए साधनपाद में क्रियायोग का वर्णन किया गया है। इस क्रियायोग से क्लेश कमजोर होते है तथा साधक को समाधि की स्थिति प्राप्त होती है। इस समाधि की स्थिति में दुःखों का नाश हो जाता हैं। आनन्द की प्राप्ति होती है। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान क्रियायोग के इन तीनों साधनों का वर्णन निम्न प्रकार है-

1. तप-  

तप एक प्रकार से आध्यात्मिक जीवन शैली को कहा जा सकता है। तप साधना काल में आध्यात्मिक जीवन शैली अपनाते हुए जो शारीरिक तथा मानसिक कष्टो को ईश्वर की इच्छा समझकर स्वीकार कर लेना प्रत्युत्तर में कोई प्रतिक्रिया न करना यह साधना "तप" है। तपस्वी ईश्वर के साक्ष्य अपना सम्पूर्ण जीवन जीता है। साधन काल में उसका कोई भी कर्म ऐसा नहीं होता जो अपने आराध्य के समक्ष नहीं किया जा सकता। तप संयमित रूप से जीवन जीना है अहंकार, तृष्णा और वासना को पीछे छोडकर उस प्रभु पर समर्पण ही तप है।

शास्त्रोंक्त कर्म जैसे स्वधर्म पालन, व्रत, उपवास, नियम, संयम, कर्तव्य पालन आदि इन सभी कर्मो को निष्ठा व ईमानदारी से करना ही तप है। अपने आश्रय, वर्ण, योग्यता और परिस्थिति के अनुसार ही स्वधर्म का पालन करना चाहिए, उसके पालन में जो भी कष्ट प्राप्त हो चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, उन सभी कष्टों को सहर्ष सहन करना ही 'तप' कहलाता है। 

“तपो द्वन्द्ध सहनम्‌"

अर्थात्‌ सभी प्रकार के द्वन्दों को सहन करना ही तप है। बिना कष्ट सहन कोई भी साधना सिद्ध नही होती है । अतः योग साधना करने के लिए जड़ता तथा आलस्य न करते हुए सभी द्वन्दों जैसे सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास को सहते हुए, अपनी साधना में डटे रहना ही तप कहलाता है।
        न तपस्विनों योग सिद्धतिः । योगभाष्य 2/1
अर्थात्‌ तप किये बिना योग सिद्धि कदापि सम्भव नहीं हो सकती है। अतः योगी को कठोर तपस्या करनी चाहिए।
     'मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः।  
     आगमापायिनोडनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत ।। श्रीमद्‌भगवदगीता 2/14

   अर्थात्‌ उन द्वन्दों, शारीरिक कष्टों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि उन्हे यह सोचकर सहन का लेना चाहिये कि ये सभी सदैव रहने वाले नहीं है। अतः द्वन्दों के वशीमूत न होकर साघना में तत्परता के साथ लगे रहना ही योग का सफल होना है. अतएव योगी को कठोर तपस्या करनी चाहिए। परन्तु तप कैसे करना चाहिए। इस पर वर्णन मिलता है-
       'तावन्भात्रमेक्तपश्चरणीये न यावता धातु वैवम्यमापद्चत । (योग वचस्पति टीका)
अर्थात्‌ तप उतना ही करना चाहिए कि जिससे शरीर के धातुओं में विषमता उत्पन्न न हो। वात, पित्त, कफ, त्रिदोषों में विषमता उत्पन्न न हों। इस प्रकार किया जाने वाले तप अवश्य ही योग सिद्धि प्रदान करता है।  तप के फल का वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि ने कहा है-
     'कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयान्तपस । योगसूत्र 2/43
अर्थात्‌ तप से अशुद्धियों का नाश होता है। और शरीर और इन्द्रियो की सिद्धि हो जाती है। उसकी समस्त इन्द्रियों वश में हो जाती है। और इनके वश में आने से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है।

2. स्वाध्याय- 

स्वाध्याय अर्थात स्व का अध्ययन। स्वयं का अध्ययन या स्वाध्याय का अर्थ श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन करना है। परन्तु मात्र अध्ययन करने से ही स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता है। जब तक कि उस अध्ययन किये हुए को चिन्तन मनन न किया जाय, अध्ययन किये हुए शास्त्रों पर चिन्तन, मनन कर चरित्र में उतार कर विवेक ज्ञान जाग्रत कर उस परमेश्वर के चरणों में प्रीति तथा भगवद्‌ भक्ति जाग्रत हो यही स्वाध्याय है।

योग शास्त्र में वर्णन मिलता है प्रणव मंत्र का विधि पूर्वक जप करना स्वाध्याय है। तथा गुरू मुख से वैदिक मंत्रों का श्रवण करना, उपनिषद एवं पुराणों आदि मोक्ष शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करना स्वाध्याय है।
'स्वाध्यायोमोक्षशास्त्राणामध्ययनम्‌ प्रणव जपो वा।' (व्यासभाष्य 2/32)
  अर्थात्‌ मोक्ष प्राप्ति जो शास्त्र सहायक हो उन शास्त्रों का अध्ययन करना तथा उन्हें अपने जीवन में उतारना ही स्वाध्याय है।
अर्थात केवल शास्त्रों के अध्ययन तक ही सीमित न रहकर शास्त्रों के सार को ग्रहण कर सदा-सर्वदा योग साधना में लगे रहना ही स्वाध्याय है। और योग साधना में मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। स्वाध्याय के द्वारा स्वयं का मनन चिन्तन करने से अपने अन्दर के विकारों का पता लगता है। स्वयं के अर्न्तमन में व्याप्त कलषित विचारों का अध्ययन कर उन्हें दूर करने का मार्गदर्शन मिलता है, आत्मज्ञान द्वारा विवेक ज्ञान द्वारा उन्हें दूर किया जा सकता है। जिससे मानव जीवन उत्कृष्ट बनता है। क्योंकि तप के द्वारा व्यक्ति कर्मो को उत्कृष्ट बना सकता है। और साधना की ओर अग्रसर हो सकता है। वही स्वाध्याय के द्वारा अपने ईष्ट के दर्शन कर ज्ञानयोग का अधिकारी बनता है। विवेक ज्ञान की प्राप्ति कर जीवन को दिव्य बना सकता है।
महर्षि पतंजलि ने स्वाध्याय का फल बताते हुए कहा है-
     स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोगः । योगसूत्र 2/44
 अर्थात्‌ स्वाध्याय के तथा प्रणव आदि मन्त्रों के जप करने तथा अनुष्ठान करने से अपने ईष्ट देवता के दर्शन होते है, तथा वे उन्हें आशीर्वाद देकर अनुग्रहीत करते है। वह अपने ईष्ट से (आराध्य से) एकरस हो जाते है। स्वाध्याय से प्रभु चरणों में प्रीति होती है। भगवद्‌ भक्ति का जागरण होता है। जो स्वाध्यायशील होते है। उनके लिए प्रमु की शरण सहज हो जाती है।

3. ईश्वरप्राणिधान- 

ईश्वरप्राणिधान या ईश्वर शरणागति- यह एक मात्र ऐसा साधन है । जिसमे साधक स्वयं समर्पित हो जाता है। अपने आप को भुलाकर ईश्वर पर अपने शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार को समर्पित कर देता है। और समस्त कर्म ईश्वर की मर्जी के अनुरूप होते है । जब साधक पूर्ण रूपेण खाली होकर स्वयं को उस ईश्वर को समर्पित कर देता है। तब वह ईश्वर उसका हाथ उसी प्रकार थाम लेता है। जैसे एक माता द्वारा बच्चे को और पग-पग पर उसको गलत रास्तों से बचाते हुए उचित मार्गदर्शन करती है। साधक अपने समस्त कर्म ईश्वर की आज्ञा से तथा ईश्वर के कर्म समझ कर करता है। और फलेच्छा का त्याग कर मात्र कर्म करता है। ऐसा साधक के चित्त की वृत्तियां समाप्त होकर वह मोक्ष का अधिकारी बनता है।
       महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित क्रियायोग का मुख्य आधार तप कहा जा सकता है, इसका भावनात्मक आधार ईश्वर प्राणिधान है। तथा वैचारिक आधार स्वाध्याय है। ईश्वर के प्रति समर्पण को श्रृद्धा और प्रज्ञा का स्त्रोत कहा जा सकता है। अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है। यदि स्वाध्याय या प्रज्ञा में निरन्‍तरता ना बनी रहे, वैचारिक दोष भाव बढ़ने लगे तो तप में भी मन्दता आने लगती है। अकर्मण्यता बढने लगती है। इसी तरह यदि श्रृद्धा या ईश्वरप्राणिधान विश्वास में कमी आने लगे तो तप को प्रेरणादायी ऊर्जा नहीं मिल पाती है। इस प्रकार कहा जा सकता है। जिसने निरन्तर तप किया है। उसकी ईश्वर प्राणिधान या श्रद्धा स्वाध्याय या प्रज्ञा में कभी भी कमी नहीं आती है। क्रियायोग का उत्कर्ष ईश्वरप्राणिघान है। प्रमु शरणागति या ईश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसा बोध है। जब यह ज्ञान हो जाता है। कि अंधकार का विलय हो चुका है। अब तो बस उस परमात्मा का ही प्रकाश सर्वत्र दिखायी दे रहा है। और उस स्थिति को प्राप्त हो जाना कि अब हरि हैं मै नाहि। ईश्वर की भक्ति विशेष या उपासना को ही ईश्वर प्रणिधान कहते है।
महर्षि व्यास ने लिखा है- 

 “ईश्वर प्राणिधान तस्मिन परमगुरौ सर्वकार्यर्पणम्। (योगभाष्य 2/32)
  अर्थात्‌ सम्पूर्ण कर्मफलों के साथ अपने कर्मो को गुरुओं का भी परम गुरु अर्थात्‌ ईश्वर को सौंप देना ही ईश्वरप्राणिधान है।

मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष, कैवल्य की प्राप्ति और यही मोक्ष कैवल्य चारों पुरुषार्थ में अन्तिम पुरुषार्थ है। और इसकी सिद्धि के लिए ईश्वर प्राणिधान आवश्यक है, ईश्वर की उपासना या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण से ही योग में सिद्धि मिलती है।

ईश्वरप्राणिधान के फल का वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि ने साधनपाद के 45वें सूत्र में कहा है- 'समाधिसिद्धिरीश्वरप्राणिधानात्‌।। (योगसूत्र- 2/45)

अर्थात्‌ ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है ईश्वर प्रणिधान से योग साधना के मार्ग में आने वाले सभी विघ्न-बाधाएं दूर हो जाते है। उस ईश्वर की विशेष अनुकम्पा प्राप्त होती है। और साधक को योग सिद्धि प्राप्त होती है। 

ईश्वर प्रणिधान जो कि ईश्वर पर पूर्ण रुपेण समर्पण है। भक्तियोग है। भक्तियोग, के द्वारा साधक अपने उपास्थ ब्रह्म के भाव में पूर्ण रुपेण भावित होकर तद् रूपता का अनुभत करता है। जिससे कि व्यक्तित्व का रुपान्तरण होता है। साधक का जीवन उत्कृष्ट होकर मुक्ति देने वाला होता है। इस प्रकार क्रियायोग के तीनों साधन कर्म, भक्ति, ज्ञान का सुन्दर समन्वय है। जो कि जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए आवश्यक है।

क्रियायोग का उद्देश्य एवं महत्व-

योगदर्शन साधनपाद के दूसरे सूत्र में क्रियायोग का उद्देश्य बताते हुए महर्षि पतंजलि ने लिखा है-

“समाधिभावनार्थ: क्लेशतनुकरणार्थश्च" ।। योगसूत्र 2/2

अर्थात्‌- क्रियायोग समाधि की सिद्धि देने वाला तथा पंचक्लेशों को क्षीण करने वाला है।
मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार हर जन्म में अपना प्रभाव दिखाते है और ये क्लेश मनुष्य को हर जन्म में भोगना पडता है। पूर्व जन्म के संस्कारों से जुडे रहने के कारण ये अपना प्रभाव दिखाते है। इन क्लेशों का पूर्णतया क्षय हुए बिना आत्मज्ञान नहीं होता हैं। परन्तु क्रियायोग की साधना से इन क्लेशों को कम या क्षीण किया जा सकता है और मोक्ष प्राप्ति की साधना के मार्ग में बढ़ा जा सकता है।

क्रियायोग की साधना से समाधि की योग्यता आ जाती है। क्रियायोग से यह क्लेश क्षीण होने लगते है क्लेशों के क्षीर्ण होने से ही मन स्थिर हो पाता है। पंचक्लेश यदि तीव्र अवस्था में है तब उस स्थिति में समाधि की भावना नहीं हो पाती है।

तप स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान या कर्म,ज्ञान, भक्ति के द्वारा क्लेशों को क्षीण कर समाधि का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। क्रियायोग के द्वारा जीवन को उत्कृष्ट बनाकर समाधि की प्राप्ती की जा सकती है। क्रियायोग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्राणिधान की साधना आती है। जिसमें कि कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का सुन्दर समन्वय समाहित है।

शास्त्रों में तप के महत्व का वर्णन इस प्रकार कहा गया है कि- संसार में जो भी दुसाध्य व अति कठिन कार्य है, उन कठिन से कठिन कार्य को करने में कोई भी समर्थ नहीं होता है। उन कार्यों को तप के द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। शास्त्रों में तप को मोक्ष प्राप्ति का साधन कहा है। तप के द्वारा मन वचन तथा अपनी इन्द्रियो को तपाने से जन्म जमान्तरों के पाप भस्मीभूत हो जाते है।
तपस्या से जो योग की अग्नि उत्पन्न होती है। वह शीघ्र ही साधक के सभी पाप समूहों को दग्ध कर दती है। और पापों के क्षय हो जाने पर ऐसे ज्ञान का उदय होता है, जिससे कि मुक्ति का प्राप्ति हो जाती है। और योगी पुरुष का बन्धन उसी प्रकार छूट जाता है जिस प्रकार बाज पक्षी बन्धन रस्सी को काट कर आकाश में उड जाता है। वह संसार रुपी बन्धन से मुक्त हो जाता है।

ईश्वरप्रणिधान ईश्वर के प्रति समर्पण ही हमारे समस्त दुखों का अन्त है। जिसमें की अपना अस्तित्व समाप्त कर उस परमात्मा के अस्तित्व का भान होता है तथा अपना अस्तित्व मिटने पर समाधि का आनन्द होने लगता है। महर्षि पतंजलि ईश्वरप्रणिधान का फल बताते हुए कहते है कि ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है। ईश्वर के आशीर्वाद से  साधक की समस्त चित्त की वृत्तियां समाप्त हो जाती है। जिससे कि वह मोक्ष को प्राप्त होता है।

अत: हम कह सकते है कि वर्तमान जीवन में  तप स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का अत्यन्त महत्व है। क्योंकि तप कर्म के लिए प्रेरित करते है जो कि कर्मयोग है। कर्मयोगी ही कर्मों को कुशलता पूर्वक कर सकता है। तप, कठिन परिश्रम व्यक्ति को कर्मयोगी बनाता है। अतः कर्मों में कुशलता लाने के लिए तप नितान्त आवश्यक है।

वही स्वाध्याय साधक के ज्ञानयोगी बनाता है। स्वाध्याय से विवेकज्ञान की प्राप्ति होती है। क्या सही है, क्या गलत है का ज्ञान साधक को होता हे। जो कि प्रगति या उन्नति के मार्ग में अति आवश्यक है। स्वाध्याय के द्वारा श्रेष्ठ साहित्यों का अध्ययन करते हुए आत्मानुसंधान की ओर साधक बढता है। तथा स्वयं ही वह प्रभु की शरण का आश्रय लेते है।

मंत्रयोग की अवधारणा

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  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म...

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योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके त...