Skip to main content

मंत्रयोग की अवधारणा, उद्देश्य, मंत्रयोग के प्रकार, मंत्रजप की विधि

मंत्रयोग की अवधारणा

वह शक्ति जो मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मंत्र योग है।“ मंत्र को सामान्य अर्थ ध्वनि कप्पन से लिया जाता है। मंत्रविज्ञान ध्वनि के विद्युत रुपान्तर की अनोखी साधना विधि है।
 “मंत्रजपान्मनालयो मंत्रयोग: “
अर्थात्‌ अभीष्ट मंत्र का जप करते-करते मन जब अपने आराध्य अपने ईष्टदेव के ध्यान में तन्मयता को प्राप्त कर लय भाव को प्राप्त कर लेता है, तब उसी अवस्था को मंत्रयोग के नाम से कहा जाता है।
शास्त्रों में वर्णन मिलता है-
 “मननात्‌ तारयेत्‌ यस्तु स मंत्र परकीर्तित: “ ।
अर्थात्‌ यदि हम जिस ईष्टदेव का मन से स्मरण कर श्रद्धापूर्वक, ध्यान कर मंत्रजप करते है और वह दर्शन देकर हमें इस भवसागर से तार दे तो वही मंत्रयोग है। ईष्टदेव के चिन्तन करने, ध्यान करने तथा उनके मंत्रजप करने से हमारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। मन का मैल धुल कर मन इष्टदेव में रम जाता है अर्थात लय भाव को प्राप्त हो जाता है। तब उस मंत्र मे दिव्य शक्ति का संचार होता है। जिसे जपने मात्र से मनुष्य संसार रूपी भवसागर से पार हो जाता है।
मंत्र जप एक विज्ञान है, अनूठा रहस्य है जिसे आध्यात्म विज्ञानी ही उजागर कर सकते हैं। जहां भौतिक विज्ञानी कहते है कि ध्वनि, विद्युत रूपान्तरण के सिवाय कुछ नहीं हैं। आध्यात्म के विज्ञानी मानते है कि विद्युत और कुछ नहीं है सिवाय ध्वनि के रुपान्तरण के, इस प्रकार विद्युत और ध्वनि एक ही उर्जा के दो रूप है। मंत्र विज्ञान का सच यही है। यह मंत्र रूपी ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण के अनोखी विधि है। इस अनोखी विधि को अपनाकर आत्मक्षात्कार किया जा सकता है। 

मंत्रों का उपयोग जप द्वारा किया जाता है इस प्रकिया को जपयोग कहा जाता है। जप मंत्र के शब्दों व जिस आराध्य का जप कर रहे हो उसके चरित्र के स्मरण की एकाग्रता है। श्रृद्धापूर्वक भक्ति पूर्वक किया गया जप अवश्य सिद्धिदायक होता है। जप करते समय जो कुछ भी सोचा जाता है। साधक का जो संकल्प होता है, उसे यदि वह जप के समय सोचता रहे और श्रृद्धा भक्तिपूर्वक अच्छी भावना के साथ जप करें तो मंत्र द्वारा प्राप्त उर्जा मंत्र द्वारा प्राप्त दिव्य शक्ति से साधक का संकल्प सिद्ध होता है। इसके लिए हमें दिव्य भावना श्रद्धा भक्ति व सभी के मंगल की कामना करें तो मंत्र जप अवश्य ही जीवन को उत्कृष्ट बना देता हैं उत्कृष्ट जीवन आत्मक्षात्कार का पथ प्रशस्त कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।

मंत्रयोग के उद्देश्य-  

मन को तामसिक वृत्तियों से मुक्त करना तथा मंत्रजप द्वारा व्यक्तित्व का रूपान्तरण ही जपयोग का उददेश्य है। प्रत्येक मनुष्य स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और आकाक्षांओं की पूर्ति में ही जीवन भर लगा रहता है। मनुष्य का मन सदैव एक से दूसरी वस्तु की इच्छा पूर्ति में ही रमा रहता है। सांसारिक भोग विलास की वस्तुओं की प्रवृति इच्छाओं तथा अहंकार की प्रवृति मनुष्य का स्वभाव है। उसको इन्ही प्राकृतिक गुणों से मुक्त कराकर यथार्थ का ज्ञान कराना ही जपयोग का उद्देश्य है। मंत्रजप के द्वारा मानव के व्यक्तित्व का रूपान्तरण, मानसिक, शारीरिक व आध्यात्मिक परिवर्तन ही मंत्र योग का उद्देश्य हैं।

मंत्रयोग के प्रकार-

साधारणतः शास्त्रों में चौदह प्रकार के मंत्रजप का वर्णन मिलता है। जो इस प्रकार है-

1. नित्यजप- जो जप नियमित रूप से नित्यप्रति किया जाता हो उसे नित्यजप कहते हैं।
2. नैमित्तिक जप- नैमित्तिक जप उसे कहा जाता जो किसी के निमित्त किया जाता हो।
3. काम्य जप- जब जप का अनुष्ठान किसी कामना की सिद्धि के लिए किया जाता है उसे काम्य जप कहा जाता है।
4. निषिद्ध जप- किसी को हानि पहुँचाने की दृष्टि से किया गया जप तथा किसी के अपकार के लिए किया जाने वाला जप तथा अशुद्ध उच्चारण पूर्वक किया गया जप निषिद्ध जप है। जप एक लय में नहीं अधिक तीव्रता, अधिक मन्दता से किया गया जप भी निषिद्ध है। और ऐसे जप निष्फल होते है।
5. प्रायश्चित जप- जाने अनजाने में किसी से कोई दोष या अपस्ध हो जाने पर प्रायश्चित कर्म किया जाता है। उन दोषों से चित में जो संस्कार पड गये होते है, उनसे मुक्त होने उन पाप कर्मो से मुक्त होने हेतु जो मंत्र जप आदि किये जाते है, प्रायश्चित जप कहलाते है।
6. चल जप- इस प्रकार के मंत्र जप में स्थिरता नहीं होती उठतें, बैठते, खाते, सोते सभी समय यह जप कियां जा सकता है। इस प्रकार के जप में जीभ व होंठ हिलते है। और यदि हाथ में माला है वह भी हिलती हैं। इस प्रकार चल अवस्था में होते रहने से ही यह चल जप है।
7. अचल जप- इस प्रकार का मंत्रजप आसनबद्ध होकर स्थिरतापूर्वक किया जाता है, अचल जप में अंग प्रत्यंग नही हिलते और भीतर मंत्रजप चलता है, इस प्रकार का जप अचल जप है।
8. मानस जप- केवल मानसिक रूप से बिना कोई अंग-प्रत्यंग के हिले - डुले सूक्ष्मतापूर्वक जो जप किया जाता है। उसे मानसिक जप कहते है।
9. वाचिक जप- मंत्रोचार -पूर्वक जोर - जोर से बोलकर जो जप किये जाते है, वाचिक जप कहलाता है। वाचिक जप से साधक की वाणी में मंत्रोच्चारण से अमोघ शक्ति आ जाती है।
10. अखण्ड जप- ऐसा जप जिसमें देश काल का पवित्र अपवित्र का भी विचार नहीं होता और मंत्र जप बिना खण्डित हुए लगातार चलते रहे, इस प्रकार का जप अखण्ड जप कहा जाता है।
11. अजपा जप- बिना प्रयास कियें श्वास-प्रश्वास के साथ चलते रहने वाले जप को अजपा जप कहा जाता है। जैसे श्वास-प्रश्वास में विराम नही होता है। उसी तरह यह जप भी बिना विराम चलता रहता । जब तक श्वास देह में है।
12. उपांशु जप- इस जप में मंत्रोच्चारण अस्पष्ट होता है। दोनों होंठ हिलतें है. पर शब्द सुनाई नहीं देते है, होंठों से अस्पष्ट ध्वनि पूर्वक जप करना ही उपांशु जप है।
13. प्रदक्षिणा जप- किसी भी देवस्थान, मन्दिर या देवता की प्रदक्षिणा करते समय मंत्र जप किया जाता है। इस प्रकार का जप प्रदक्षिणा जप कहा जाता है।
14. भ्रमर जप- इस प्रकार का मंत्र जप भौरे के गुंजन के समान गुंजन करते हुए किया जाता है। अर्थात्‌ अपने ईष्ट मंत्र का जाप गुनगुनातें हुए करना भ्रमर जप है। 

इन चौदह प्रकार के मंत्र जप में तीन प्रकार के जप श्रेष्ठ माने जाते है। वाचिक जप, उपांशु जप तथा मानसिक जप। 

मंत्रयोग की उपयोगिता तथा महत्व - 

मंत्रयोग अभ्यास से समस्त मानसिक क्रियाए सन्तुलित हो जाती है। जप के समय साधक श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करता है। जिसकों निरन्तर दुहराने से व्यक्ति नकारात्मक विचारों से मुक्त हों  सकारात्मक विचारों वाला हो जाता है।
मंत्रजप के स्पन्दन, जो प्रत्येक शब्द के जपने से उत्पन्न होते है। तथा एक ध्वनि का रूप लेते है। जैसे-जैसे मंत्र की ध्वनि से उत्पन्न स्पन्दन बढ जाते है। हमारे मन के साथ-साथ हमारी चेतना भी इससे प्रभावित होती है। हमारी चेतना के प्रभावित होने से हमारी भावनाओं व चिन्तन प्रकियाओं पर धनात्मक प्रभाव पडता है। जिससे हमारा तंत्रिका तंत्र ठीक ढंग से कार्य करता है। तथा साथ ही साथ हमारा अन्तःस्रावी तंत्र भी तथा उससे निकलने वाले हार्मोन्स का सन्तुलन बना रहता है। जिस कारण व्यक्ति को शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। स्वस्थ्य शरीर द्वारा ही मानव जीवन के चारों पुरुषार्थ की प्राप्ति की जा सकती है। अपने अभीष्ठ की प्राप्ति की जा सकती है।

शास्त्रों में कहा गया हैं कि मंत्रजप से ईष्ट सिद्धि प्राप्त होती है-

'जपात्‌ सिद्धिर्जपात्‌ सिद्धिर्जपात सिद्धिर्न संशय:'।

अर्थात्‌ मंत्रजप से ही सिद्धि मिलती है। इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता है। जितना-जितना जप होता जाता है। उसी अनुसार उतने ही दोष मिटते जातें है। और उसी अनुसार हमारा अन्तःकरण शुद्ध होता जाता है। अन्तःकरण ज्यों-ज्यों शुद्ध होता जाता है। जप साधना भी त्यॉ-त्यों भी बढ़ने लगती है। और उस साधना के परिणाम स्वरूप मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है। एक दिन वह नर से नारायण बन अनेकों सिद्धियों का अधिकारी बनता है। मंत्र में बहुत शक्ति होती है। जाग्रत मंत्र के जप से शीघ्र ही अभीष्ट की सिद्धि मिलती है। प्राचीन काल में अनेकों ऋषि ज्ञानी योगी व भक्त मंत्रजप के द्वारा ही अपने ईष्ट के दर्शन, असीम दैवीय शक्ति, वर प्राप्ति, कामना सिद्धि किया करते थें।
मंत्रयोग की साधना में डाकू रत्नाकर उल्लेखनीय है। जिन्‍होने मंत्रयोग की साधना के द्वारा ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया, महर्षि बाल्मिकी कहलाये और सम्पूर्ण जगत के लिए रामायण जैसे महान ग्रन्थ की रचना की। इसे मंत्रजप का चत्मकार ही कहा जा सकता है। अर्वाचीन काल में भी कितने ही साधको ने मंत्रजप द्वारा अपने ईष्ट की प्राप्ति की (दर्शन किये)। तुलसीदास, सूरदास, मीरा, रामकृष्ण परमहंस आदि साधक मंत्रजप द्वारा महान कोटि साधक हुए।
अतः जिन साधकों को अन्य साधन कठिन प्रतीत होते हों उन्हें चाहिए कि ये मंत्रयोग का आश्रय लें। इस मंत्रयोग के द्वारा शीघ्र ही अभीष्ठ सिद्धि हो जायेगी।
महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में  मंत्रजप की विधि इस प्रकार बतलायी है-
“तज्जपस्तदर्थ भावनम्‌ ।' योगसूत्र 1,/18
अर्थात्‌ मंत्र का जप अर्थ सहित चिन्तन पूर्वक करना चाहिए । जिस देवता का जप कर रहें हों, उसका ध्यान और चिन्तन करते रहने से ईष्टदेव के दर्शन होते है। तथा उनके साथ वार्तालाप या वरदान प्राप्त करना भी सम्भव हो जाता है।

योग के साधकतत्व

योग के बाधकतत्व

अष्टांग योग

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim) 1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं न...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सु...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम ...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थ...

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म...

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके त...