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योग के बाधक तत्व

 योग साधना में बाधक तत्व (Elements obstructing yoga practice)

हठप्रदीपिका के अनुसार योग के बाधक तत्व-

अत्याहार: प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रह:।
जनसंएरच लौल्य च षड्भिर्योगो विनश्चति।।

अर्थात्‌- अधिक भोजन, अधिक श्रम, अधिक बोलना, नियम-पालन में आग्रह, अधिक लोक सम्पर्क तथा मन की चंचलता, यह छ: योग को नष्ट करने वाले तत्व है अर्थात्‌ योग मार्ग में प्रगति के लिए बाधक है। उक्त श्लोकानुसार जो विघ्न बताये गये है, उनकी व्याख्या निम्न प्रकार है
1. अत्याहार-  आहार के अत्यधिक मात्रा में ग्रहण से शरीर की जठराग्नि अधिक मात्रा में खर्च होती है तथा विभिन्न प्रकार के पाचन-संबधी रोग जैसे अपच, कब्ज, अम्लता, अग्निमांघ आदि उत्पन्न होते है। यदि साधक अपनी ऊर्जा साधना में लगाने के स्थान पर पाचन क्रिया हेतू खर्च करता है या पाचन रोगों से निराकरण हेतू षट्कर्म, आसन आदि क्रियाओं के अभ्यास में समय नष्ट करता है तो योगसाधना प्राकृतिक रुप से बाधित होती |
अत: शास्त्रों में कहा गया है कि -
सुस्निग्धमधुराहारश्चर्तुयांश विवर्जितः ।
भुज्यते शिवसंप्रीत्यै मिताहार: स उच्यते ।।

      अर्थात जो आहार स्निग्ध व मधुर हो और जो परमेश्वर को सादर समर्पित कर आमाशय के 3/4 भाग को पूर्ण करने के लिए ग्रहएा किया जाए, जिससे कि आमाशय का 1/4 भाग वायु संचरण व सुचारु रुप से पाचन क्रियार्थ छोडा जाए, ऐसे मात्रा आधारित रुचिकर भोजन को स्वात्माराम जी मिताहार की संज्ञा देते है। 

इसी प्रकार केशव गीता में कहा गया है-कि-
अति खावे अति थोडा खावे अति सोवे अति जागर पाये ।
यह स्वभाव राखे यदि कोय उसका योग सिद्ध नहीं होय ।।

     अर्थात अत्यधिक भोजन एवं अत्यधिक थोडा भोजन एवं अत्यधिक सोना एवं अत्यधिक जागना। इस प्रकार का स्वभाव यदि कोई साधक रखता है, तो उसका योग कभी सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार घेरण्ड ऋषि ने कहा है, कि मिताहारी न होने के स्थान पर यदि साधक अत्याहारी आचार-संहिता का पालन करता है, तो नाना प्रकार के रोगों से ग्रसित होकर योग मे सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। अतः साधक को अत्याहार की प्रवृत्ति को त्यागना चाहिए। शरीर को धारण करने में समर्थ होने के कारण धातु नाम को प्राप्त हुए वात, पित्त और कफ की न्यूनता या अधिकता खाये तथा पिये हुए आहार पदार्थों के परिणाम स्वरुप रस की न्यूनता - अधिकता को व्याधि अथवा रोग कहते है। व्याधि होने पर चित्त वृत्ति उसमें अथवा उससे दूर करने के उपायों में लगी रहती है। इससे वह योग में प्रवृत्त नहीं हो सकती। इसी कारण व्याधि की गणना योग के विघ्नों में होती है।  इस विषय में श्री कृष्ण भगवान् ने भी अर्जुन को बताया है-
नात्यश्रतस्तु योगासित न चैकान्तमनश्रतः ।
न चाति स्वप्नशील जाग्रतो नैव चार्जुन । (श्रीमद् भागवतगीता 6-16)

अर्थात जो अधिक भोजन करता है, जो बिल्कुल बिना खाये रहता है, जो बहुत सोता है तथा जो बहुत जागता है, उसके लिए हे अर्जुन योग नहीं है बल्कि -
युक्ताहारविहारस्य युत्कचेष्टस्य कर्मसु।
युत्कासवपनाववोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
(श्रीमद् भागवतगीता 6-17)
जे नियमपूर्वक भोजन करता है नियमित आहार-विहार करता है। उसके लिए योग दुःख का नाश करने वाला होता है।
2. प्रयास- योग साधक को अत्यधिक शारीरिक व मानसिक श्रम से बचना चाहिए। अत्यधिक शारीरिक व मानसिक श्रम राजसिक व तामसिक गुणों की वृद्धि के साथ-साथ शरीरस्थ शारीरिक व मानसिक ऊर्जाओं में भी असंतुलन पैदा करते हैं अतः योग साधक को अतिप्रयास त्यागना चाहिए।
3. प्रजल्प- अर्थात अधिक बोलना, अधिक बोलने की व्यावहारिकता से शारीरिक समय भी नष्ट होता है। गप-शप लडाने में समय व्यतीत करने से लोकसम्पर्क में वृद्धि होती है, और यही वृद्धि नकारात्मक वृत्तियों जैसे ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह आदि उत्पन्न कर योग मार्ग में बाधक बनती है।
4. नियमाग्रह-  योग साधक के लिए शास्त्रोक्त या सामाजिक धार्मिक मान्यताओं के अनुसार नियमों का सख्त पालन आवश्यक नही है जैसे यदि प्रातः काल ठंडे पनी से स्नान योग साधना के लिए आवश्यक माना गया है, तो रोगावस्था या अत्यन्त सर्दी के मौसम में इस नियम का पालन आवश्यक नहीं है। इन हालातों में थोडे कम ठण्डा जल का प्रयोग भी हो सकता है। अत्यधिक नियमाग्रह योगसाधना मार्ग में बाधक है।
5. जनसंग- अत्यधिक (जनसंग) लोकसम्पर्क भी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा ह्रास कर नष्ट करता है। जितने लोगों के साथ सम्पर्क होगा, उतनी ही आपकी योगसाधना मार्ग के बारे में नोंक-झोंक मन व शरीर को अस्थिर कर योगमार्ग की बाधा बनेगी। यह त्याज्य बताया गया है।

6. चंचलता- यह वृत्ति भी योगसाधना मार्ग में बाधक है। शरीर की अस्थिरता दीर्घ समयावधि की साधना हेतु बाधक बनती है। नकारात्मक वृत्तियां जैसे ईर्ष्या, द्वेष आदि मन की चंचलता बढ़ाकर योग मार्ग में विध्न उत्पन्न करती है। साधना की अनियमितता जैसे एक दिन तो सुबह चार बजे से साधना की दूसरे दिन आलस्यवश सुबह 7 बजे उठकर की। इस तरह की अस्थिनता भी योगसाघना में बाधक बनती है। 

 योगसूत्र के अनुसार योग के बाधक तत्व-

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय कहते हैं जो चित्त को विक्षिप्त करके चित्त की एकाग्रता को नष्ट कर देते है इसीलिये इन्हें योग अन्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता है। 

'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तराया:। 

ये योग के मध्य में आते है।, इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योगसाधक साधना को बीच में ही छोडकर चल देते है। या तो विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि या जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी कृपा ईश्वर ही कर सकता। यह तो सम्भव नहीं कि विघ्न न आयें । 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' शुभकार्यो विघ्न आया ही करते है। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए।
योगसूत्र के अनुसार चित्तविक्षेपों (योगअन्तराय) की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते है। अतः ये योगविरोधी है।

1. व्याधि- 'धातुरसकरणवैषम्यं व्याधिः' धातुवैषम्य, रसवैषम्य तथा करणवैषम्य को व्याधि कहते है। वात, पित्त और कफ ये तीन धातुएं है। इनमें से यदि एक भी कुपित होकर न्यून या अधिक हो जाये तो यह धातुवैषम्य कहलाता है। जब तक देह में वात, पित्त और कफ समान मात्रा में हैं तो तब इन्हें धातु कहा जाता है। जब इनमें विषमता आ जाती है तब इन्हें दोष कहा जाता है। धातुओं की समता में शरीर स्वस्थ रहता है। विषमता में रूग्ण हो जाता है। आहार का अच्छी तरह से परिपाक न होना रसवैषम्य कहलाता है। यही शरीर में व्याधि बनाता है। ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मन्द्रियों की शक्ति का मन्द हो जाना करणवैषम्य है। योगसाधना के लिए सशक्त और दृढ इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। धातु, रस तथा करण इन तीनों के वैषम्य को व्याधि कहते हैं। रोगी शरीर से समाधि का अभ्यास सम्भव नहीं। अतः व्याधि समाधि के लिए अन्तराय है| कास, श्वास आदि दैहिक रोगों को व्याधि कहते हैं तथा मानसिक रोग जैसे- स्मरण शक्ति का अभाव, उन्माद, अरुचि, घृणा, काम, क्रोध आदि को आधि कहा जाता है। आधि शब्द के 'वि" उपसर्ग के योग से व्याधि शब्द बनता है।
2. स्त्यान- 'स्त्यानं अकर्मण्यता चित्तस्य' अर्थात् चित्त की अकर्मण्यता को स्त्यान कहते हैं। समाधि का अभ्यास करने की इच्छा तो चित्त में होती है किन्तु वैसा सामर्थ्य उसमें नहीं होता। केवल इच्छा से योग सिद्ध नहीं होता, अपितु उसमें योगाभ्यास की शक्ति होनी चाहिए। पुत्रों की आसक्ति, विषयभोग की लालसा तथा जीविकोपार्जन के व्यापार चित्त को उलझाये रखते हैं कि चित्त अकर्मण्यता अनुभव करता है। अकर्मण्यता समाधि में अन्तराय है।
3. संशय- 'उभयकोटिस्पृग् विज्ञानं संशय: अर्थात् यह भी हो सकता है और वह भी हो सकता है। इस प्रकार के ज्ञान को संशय कहते हैं। योग साधना के विषय में जब साधक को कभी-कभी संशय होता है कि मैं योग का अभ्यास कर सकूंगा या नहीं? क्या मुझे सफलता मिलेगी? क्या समाधि से कैवल्य प्राप्त हो सकेगा? हो सकता है मेरा परिश्रम व्यर्थ चला जाये? तब यह संशयात्मक ज्ञान योग का विघ्न बन जाता है।
4. प्रमाद- 'समाधिसाधनानामभावनम्' समाधि के साधनों में उत्साह पूर्वक प्रवृत्ति न होना प्रमाद कहलाता है। समाधि का अभ्यास प्रारम्भ कर देने पर उसमें वैसा ही उत्साह और दृढता निरन्तर बनी रहनी चाहिए जैसा उत्साह प्रारम्भ मे था। प्रायः युवावस्था का मद, धन और प्रभुत्व का दर्प आदि साधक के उत्साह को शिथिल कर देता है। अत: प्रमाद समाधि में अन्तराय है।
5. आलस्य- “आलस्यं कायस्य चित्तस्य च गुरुत्वादप्रवृत्तिः“ काम के आधिक्य से शरीर तथा तमोगुण के आधिक्य से चित्त भारीपन का अनुभव करता है। शरीर और चित्त के भारी होने से समाधि के साधनों में प्रवृत्ति नहीं होती, इसी का नाम आलस्य है। प्रमाद और आलस्य में बहुत अन्तर है। प्रमाद प्रायः अविवेक से उत्पन्न होता है। आलस्य में अविवेक तो नहीं होता किन्तु गरिष्ठ भोजन के सेवन से शरीर और चित्त भारी हो जाता है। यह भी योग साधना मार्ग में अन्तराय कहलाता है।
6. अविरति- 'चित्तस्य विषयसम्प्रयोगात्मा गर्ध: अविरतिः शब्दादि विषयों के भोग से तृष्णा उत्पन्न होती है। तृष्णा वैराग्य का शत्रु है। समाधि के लिये वैराग्य प्रमुखतम साधन है। अत: वैराग्य का अभाव योग का अन्तराय है। कोमलकान्त वचन, उनके अंगो को मोहक स्पर्श, पुष्पादि की गन्ध तथा स्वादिष्ट भोज्य पेय आदि व्यंजनों का रस कभी-कभी तत्वज्ञान को भी आवृत्त करके साधक को संसार में आसक्त बना देता है। विषयों के प्रति यह आसक्ति ही अविरति हैं। यह अविरति योग का महान् विध्न कहा गया है।
7. भ्रान्तिदर्शन- 'भ्रान्तिदर्शन विपर्ययज्ञानम्  मिथ्याज्ञान को भ्रान्तिदर्शन कहते है। अन्य वस्तु में अन्य वस्तु का ज्ञान ही मिथ्या ज्ञान है। जब साधक योग के साधनों को असाधन और असाधनों को साधन समझने लगता है तो यह भ्रान्तिदर्शन योग का विघ्न बन जाता है।
8. अलब्धभूमिकत्व- 'अलब्धभूमिकत्वं समाधिभूमेरलाभ' अर्थात् समाधि की किसी भी भूमि की प्राप्ति न होना भी योग में विध्न है। समाधि की चार भूमियाँ है- सवितर्क, निर्वितक, सविचार तथा निर्विचार। जब प्रथम भूमि की प्राप्ति हो जाती है तो योगी का उत्साह बढ़ जाता है। वह सोचता है कि जब प्रथम भूमि प्राप्त हो गयी है तो अन्य भूमियाँ भी अवश्य ही प्राप्त होगी। परन्तु किसी कारण से उनकी प्राप्ति न होना अलब्धभूमिकत्व कहा गया है। यह भी योग में अन्तराय है।
9. अनवस्थित्व- “लब्धायां भूमौ चित्तस्याप्रतिष्ठा अनवस्थितत्वम्' यदि किसी प्रकार भूमियों में से किसी एक की प्राप्ति हो जाये किन्तु उसमें निरन्तर चित्त की स्थिति न हो तो यह अनवस्थितत्व कहलाता है।
इस प्रकार नौ चित्तविक्षेप योग के अन्तराय कहलाते है। इन्ही को चित्त का मल तथा योग प्रतिपक्ष भी कहा गया है। इन चित्तविक्षेपों के पाँच साथी भी है। जो इन अन्तरायों के होने पर स्वतः हो जाते है।
1. दुःख-  दुःख तीन प्रकार के है- आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक। आध्यात्मिक दुःख भी दो प्रकार के होते है शारीरिक और मानसिक। आधिभौतिक शब्द की रचना का विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि यह शब्द भूत शब्द से बना है। भूत शब्द का अर्थ है प्राणी अर्थात् प्राणियों के द्वारा दिये गए दुःखों को आधिभौतिक कहा जाता है। दुःखों के तृतीय प्रकार का नाम आधिदैविक है जिसका अर्थ है दैविक शक्तियों के द्वारा दिये गए दु:ख। दैविक शक्तियों के रूप में अग्नि, जल और वायु की गणना की जाती है। ये तीनों प्रत्येक के लिए अति आवश्यक है परन्तु आवश्यकता से अधिक या कम होने पर ये दुःखों के उत्पादक होते है। जैसे-अग्नि यदि हमारे उदर अथवा रसोई घर में पर्याप्त मात्रा में रहे तो सुखद परन्तु यदि कम या अधिक हो तो असहनीय होकर दुःखो का कारण बन कर नाशवान् हो जाती है। इसी प्रकार से वायु और जल को समझना चाहिए।
2. दौर्मनस्य- अभिलाषित पदार्थ विषयक इच्छा की पूर्ति न होने से चित्त में जो क्षोभ होता है। उसे दौर्मनस्य कहा जाता है जब प्रयास करने पर भी इच्छा की पूर्ति नहीं होती तो चित्त व्याकुल होता है। यह दौर्मनस्य भी दुःख का साथी है।
3. अंगमेजयत्व- जो शरीर के हाथ, पैर शिर आदि अंगो की कम्पित अवस्था है, वह अंगमेजयत्व कहलाती है।
व्याधि आदि अन्तराय शरीर को दुर्बल बना देती हैं जिससे अंगों में कम्पन होने लगता है। यह अंगमेजयत्व आसन, प्राणायाम आदि में व्यवधान उपस्थित करता है। अतः विक्षेप का साथी होने से समाधि का प्रतिपक्षी है।
4. श्वास- जो बाह्य वायु का नासिकाग्र के द्वारा आचमन करता है, वह श्वास कहलाता है अर्थात् भीतर की ओर जाने वाला प्राणवायु श्वास है। यह प्राणक्रिया यदि निरन्तर चलती रहे, कुछ समय के लिए भी न रूके तो चित्त समाहित नहीं रह सकता। अतः यह श्वास रेचक प्राणायाम का विरोधी है। अत: यह समाधि का अन्तराय है
5. प्रश्वास- जो प्राण भीतर की वायु को बाहर निकालता है, वह प्रश्वास कहलाता है। यह श्वास क्रिया भी निरन्तर चलती रहती है। यह भी समाधि के अंगभूत पूरक प्राणायाम का विरोधी होने से समाधि का विरोधी है। अतः विक्षेप का साथी होने से योगान्तराय कहा जाता है। 

योग के साधक तत्व

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हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के पश्चात जालन्धरबन्ध ख

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म