Skip to main content

योग के साधक तत्व

योग के साधक तत्व -

हठप्रदीपिका के अनुसार योग के साधक तत्व-

 उत्साहात्‌ साहसाद्‌ धैर्यात्‌ तत्वज्ञानाच्च निश्चयात्‌।
जनसंगपरित्यागात्‌ षडभियोंगः प्रसिद्दयति: || 1/16

अर्थात उत्साह, साहस, धैर्य, तत्वज्ञान, दृढ़-निश्चय तथा जनसंग का परित्याग इन छः तत्वों से योग की सिद्धि होती है, अतः ये योग के साधक तत्व है।

1. उत्साह- योग साधना में प्रवृत्त होने के लिए उत्साह रूपी मनोस्थिति का होना आवश्यक है। उत्साह भरे मन से कार्य प्रारभं करने से शरीर, मन व इन्द्रियों में प्राण संचार होकर सभी अंग साधना में कार्यरत होने को प्रेरित हो जाते है। अतः उत्साहरूपी मनोस्थिति योग साधना में सफलता की कुजी है।
2. साहस- योगसाधना मार्ग मे साहस का भी गुण होना चाहिए। साहसी साधक योग की कठिन क्रियांए जैसे- वस्त्रधौति, खेचरी आदि की साधना कर सकता है। पहले से ही भयभीत साधक योग क्रियाओं के मार्ग की और नहीं बढ़ सकता।
3. धैर्य- योगसाधक में घीरता का गुण होना अत्यावश्यक हैं। यदि साधक रातो-रात साधना में सफलता चाहता है तो ऐसा अधीर साधक बाधाओं से घिरकर पथ भ्रष्ट हो जाता है। साधक को गुरूपदेश से संसार की बाधाओं या आन्तरिक स्तर की विपदाओ का धैर्य पूर्वक निराकरण करना चाहिए।
4. तत्वज्ञान- योगमार्ग पर चलने से पहले आवश्यक है कि साधक साधना मार्ग का उचित ज्ञान शास्त्रों व गुरूपदेशों द्वारा ग्रहण करे। भली-भाँति ज्ञान न होने पर साधना मे समय नष्ट होगा व नाना प्रकार की बाधाएं उत्पन्न होकर मन भी विचलित होगा।
5. दृढ़-निश्चय- किसी सांसरिक कार्य को प्रारम्भ करने से पहले दृढ़-निश्चय की भावना आवश्यक है। जहां निश्चय में ढील हुई वहीं मार्ग बाधित हो जायेगा। अतः योगसाधना मार्ग में प्रवृत्त होने से पहले दृढ़-निश्चय की भावना अत्यन्त आवश्यक है।
6. जनसंग परित्याग- सामाजिक व धार्मिक स्तर पर उत्पन्न बाधाओं से बचाव हेतू अधिक जनसम्पर्क त्यागना चाहिए। अधिक जनसम्पर्क से शारीरिक व मानसिक ऊर्जा का ह्रास होता है। योग-साधना हेतु अधिक जनसम्पर्क त्याज्य है।
हठप्रदीपिका में ही अन्यत्र कहा गया है कि-

हठविद्या पर गोप्या योगिनां सिद्धिमिच्छताम

योग में सिद्धि की इच्छा रखने वाले साधको को यह हठविद्या नितान्‍त गुप्त रखनी चाहिए। गुप्त रखने से यह शक्तिशालिनी होती है, तथा प्रकट करने पर यह शक्तिविहीन हो जाती है। 

 योगसूत्र के अनुसार योग के साधक तत्व-

 'मैत्रीकरूणामुदितोपेक्षाणांसुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्‌" यो.सू1/33

मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा- इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और वृत्तिनिरोध में समर्थ होता है। सुसम्पन्न पुरुषों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुखी जनों पर दया की भावना करें। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्‍नता की भावना करे तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरूषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्व होता है। शुद्व चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है।

        संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होत है। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधरण जन का अपने विचारों के अनुसार राग, द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक जन मन में जलते है, हमारा इतना आदर क्‍यों नही होता ? यह ईर्ष्या का भाव है। इसमें प्रेरित होकर ऐसे व्यक्ति पुण्यात्मा में अनेक मिथ्यादोषों का उद्भावन कर उसे कलंकित करने का प्रयास करते देखे जाते है। दुःखी को देखकर प्रायः साधारण जन उससे घृणा करते है, ऐसी भावना व्यक्ति के चित्त को व्यथित एवं मलिन बनाये रखती है। यह समाज की साधारण व्यावहारिक स्थिति है।
       योगमार्ग पर चलने वाले साधक ऐसी परिस्थिति से अपने आपको सदा बचाये रखने का प्रयास करें। साधक के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसका चित्त ईर्ष्या आदि मलों से सर्वथा रहित हो, यह स्थिति योग में प्रवृत्ति के लिये अनुकुल होती है। निर्मल-चित्त साधक योग में सफलता प्राप्त करने का अधिकारी होता है। सुखी जनों को देखकर साधक उनके प्रति मित्रता की भावना बनाये। मित्र के प्रति कभी ईर्ष्या का भाव उत्पन्न नहीं होता। दुःखी जनों के प्रति सदा करूणा-दया का भाव, उनका दुःख किस प्रकार दूर किया जा सकता है इसके लिए उन्हें सन्मार्ग दिखाने का प्रयास करे। इससे साधक के चित्त में उनके प्रति कभी धृणा का भाव उत्पन्न नही होने पायेगा। इससे दोनों के चित्त में शान्ति और सांत्वना बनी रहेगी। इसी प्रकार पुण्यात्मा के प्रति साधक हर्ष का अनुभव करें। योग स्वयं ऊँचे पुण्य का मार्ग है । जब दोनों एक ही पथ के पथिक हैै तो हर्ष का होना स्वाभाविक है। संसार में सन्मार्ग और सद्दिचार के साथी सदा मिलते रहें, तो इससे अधिक हर्ष का और क्या विषय होगा। पापात्मा के प्रति साधक का उपेक्षा भाव रखना सर्वथा उपयुक्त है। ऐस व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लाने के प्रयास प्रायः विपरीत फल ला देते है। पापी पुरुष अपने हितेषियों को भी उनकी वास्तविकता को न समझते हुए हानि पहुँचाने और उनके कार्यो में बाधा डालने के लिये प्रयत्नशील बने रहते है। इसलिए ऐसे व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा अर्थात्‌ उदासीनता का भाव श्रेयस्कर होता है। साधक इस प्रकार विभिन्‍न व्यक्तियों के प्रति अपनी उक्त भावना को जाग्रत रखकर चित्त को निर्मल, स्वच्छ और प्रसन्‍न बनाये रखने में सफल रहता है, जो सम्प्रज्ञात योग की स्थिति को प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उपयोगी है।

वृत्ति निरोध के उपायों के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि ने नौ उपायों को उल्लेख किया हैं। 

1.  प्रथम एवं मुख्य उपाय का वर्णन करते हुए पंतजलि कहते है'- 

 अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः योगसूत्र 1/12

अर्थात्‌ अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इन वृत्तियों का निरोध होता है। अभ्यास और वैराग्य पक्षी के दो पंखों की भांति है। जैसे पक्षी दोनों पंखों के द्वारा ही उड़ सकता है, एक पंख से उड़ पाना सम्भव नहीं है। वैसे ही अभ्यास और वैराग्य इन दोनों के एक साथ पालन करने से वृत्तियों का निरोध हो जाता है। कहा गया है-

तत्र स्थितौयत्नोऽभ्यास:। योगसूत्र 1/13

      अर्थात्‌ एक स्थिति में लगातार प्रयत्न का नाम अभ्यास कहलाता है। स्थिति का अर्थ है वृत्तिहीन चित्त की एकाग्रता और यत्न का अर्थ है- उस एकाग्रता के लिये मानसिक उत्साह तथा दृढ़तापूर्वक यमादि योगांगो का अनुष्ठान |
      वैराग्य दो प्रकार का है- पर और अपर। लौकिक और वैदिन दोनों प्रकार के विषयों में चित्त का तृष्णा रहित हो जाना वैराग्य कहलाता है-
  दृष्टवदानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञावैराग्यम्‌। योगसूत्र 1/15
    वनिता, अन्न आदि लौकिक विषय, तथा वेदबोधित पारलौकिक स्वर्गादि के अमृतपान, अप्सरागमन आदि आनुश्रविक विषय है। इन दोनों से चित्त का तृष्णारहित हो जाना वैराग्य है। परवैराग्य के विषय में कहा गया है-
 तत्परं युरूषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्‌। योगसूत्र 1/16
      प्रकृत्ति और पुरुष विषयक भेद का ज्ञान उदित हो जाने सत्वगुण के कार्यरूप विवक ज्ञान की तृष्णा का अभाव है वह परवैराग्य है। अपरवैराग्य सम्प्रज्ञातसमाधि का हेतु है और परवैराग्य असम्प्रज्ञातसमाधि का हेतु है।

इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य उत्तम कोटि के योग साधको के लिये, चित्तवृत्तिरनिरोध का सर्वोत्म उपाय है। उनमें भी जिस साधक के मन में जितना तीव्रसंवेग होगा, उतना ही वृत्तिनिरोध शीघ्र होगा
तीव्रसंवेगानामासन्न: योगसूत्र 1/21

2. द्वितीय उपाय के रूप में ईश्वरप्रणिधान को माना है। यह एक प्रकार की भक्ति है। महर्षि पतंजलि ने यह साधन उत्तमकोटि के साधकों के लिए बताया है। इस स्थिति के साधकों के लिए सुगम उपाय बताते हुए योगसूत्र में कहा गया है-“ईश्वरप्रणिधानाद्वा' (योगसूत्र 1/23) अर्थात्‌ ईश्वर प्रणिधान के पालन से वृत्तियों का निरोध हो जाता है।  

'समाधिसिद्विरीश्वरप्रणिधानात्‌' (योगसूत्र 2/45)

अर्थात्‌ ईश्वर प्रणिधान के पालन से समाधि की स्थिति, शीघ्र प्राप्त होती है और समाधि की स्थिति में ही वृत्तियों का निरोध सम्भव है।

3. तृतीय उपाय के रूप में ऐसे ही योगियों के लिए भावनाचतुष्टय (मैत्री, करूणा, मुद्रिता और उपेक्षा का पालन भी वृत्ति निरोध में सहायक माना है। इनका वर्णन ऊपर कर दिया गया है।

4. चौथे उपाय के रूप में प्राणायाम को महत्व देते हुए कहा है

प्रच्छर्दन विधारणाभ्यां वा प्राणस्य। (योगसूत्र 1/34)

अर्थात्‌ उदरस्थ वायु को नासिकापुट से बाहर निकालना प्रच्छर्दन और भीतर ही रोके रखने को विधारण कहा है। इसी का नाम रेचक एवं कुम्भक प्राणायाम है। इस प्रकार के प्राणायाम से भी चित्त स्थिर होता है। और समाधि की प्राप्ति होती है।

5. पाँचवे उपाय के रूप में विषयवती वा प्रवृत्ति- (योगसूत्र 1/35) को माना गया है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पॉच महाभूत है। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द ये पॉच इनके विषय है। दिव्य और अदिव्य भेद से ये विषय दस प्रकार के हो जाते है। इनसे पॉच दिव्य विषयों का योगशास्त्र प्रतिपादित उपाय द्वारा जो योगियों को साक्षात्कार होता है।

6. छठे उपाय के अन्तर्गत ज्योतिष्मती प्रवृत्ति को ग्रहण किया जाता है। कहा गया है

विशोका वा ज्योतिष्मती। (योगसूत्र 1//36)

चित्त विषयक साक्षात्कार तथा अहंकार विषयक साक्षात्कार विशोका ज्योतिष्मती कहे जाते है। हृदय कमल में संयम करने पर जो चित्त का साक्षात्कार होता है वह चित्तविषयक ज्योतिष्मती प्रवृत्ति कहलाती है। उस प्रवृत्ति के द्वारा भी चित्त प्रसन्‍न होता है।

7. सांतवा उपाय वीतरागविषयं वा चित्तम्। (योगसूत्र 1/37) है। पूर्वोक्त गन्ध आदि विषयों में संयम करने से चित्त स्थिरता को प्राप्त करता है। वैसे ही  दत्ताश्रेय, व्यास, शुक्रदेव, सनकादि आदि वीतराग योंगियो के चित्त को आलम्बन करने से भी चित्त शीघ्र ही स्थिरता को प्राप्त करता है।

8. आठवें उपाय के रूप में स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा । (योगसूत्र 1/38) है। निद्रा सुख में ध्यान लगाने से भी चित्त का शीघ्र ही स्थैर्य हो जाता है।

9. नवम उपाय यथाभिमत ध्यान (योगसूत्र 1/39) कहा गया है। जिस साधक को जो स्वरूप अभीष्ट हो 'उसमें ध्यान करने से चित्त शीघ्र स्थिरता को प्राप्त करता है। 

अनभिमत विषय में चित्त कठिनता से स्थिर होता है। इसलिए शिव, शक्ति, विष्णु, गणपति, सूर्य आदि देवताओं में से किसी एक में यदि विशेष रूचि हो तो उसी का ध्यान करने से उसमें स्थिर हुआ चित्त निर्गुण निराकार परमेश्वर में भी स्थिरता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार चित्त प्रसादन के नौ उपायो का स्पष्ट उल्लेख महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र किया है।


योग के बाधक तत्व

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित आसन

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

Comments

Popular posts from this blog

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...