Etymology and Definition of yoga
योग की व्युत्पत्ति और परिभाषा: समय और अर्थ के माध्यम
से एक यात्रा
योग, एक गहन अभ्यास जो सदियों, संस्कृतियों और भौगोलिक
क्षेत्रों से आगे निकल गया है, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण चाहने वालों के
दिलों में एक अद्वितीय स्थान रखता है। भारत में अपनी प्राचीन जड़ों से लेकर दुनिया
भर में अपनी आधुनिक लोकप्रियता तक, योग केवल शारीरिक आसनों के एक सेट से कहीं अधिक
विकसित हुआ है। "योग" शब्द अपने आप में अर्थों से भरा हुआ है, जो प्राचीन
भाषाओं और दर्शन से लिया गया है जो इसकी समग्र प्रकृति को दर्शाते हैं।
योग की व्युत्पत्ति
"योग" शब्द संस्कृत मूल "युज" से लिया
गया है, जिसका अर्थ है "जोड़ना", "जुड़ना" या "एकजुट होना।"
योग के सार को समझने के लिए मिलन की यह अवधारणा मौलिक है, क्योंकि यह मन, शरीर और आत्मा
को एक साथ लाने के साथ-साथ व्यक्तिगत आत्म और सार्वभौमिक चेतना के बीच मिलन का प्रतीक
है।
दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक संस्कृत, वेदों, उपनिषदों और भगवद गीता सहित कई प्राचीन भारतीय शास्त्रों की मूल भाषा है। इन ग्रंथों में, योग को न केवल एक शारीरिक अनुशासन के रूप में बल्कि एक आध्यात्मिक और दार्शनिक मार्ग के रूप में भी वर्णित किया गया है। योग में योग या एकजुट होने का विचार गहरा प्रतीकात्मक है, जो सीमित और अनंत, भौतिक और आध्यात्मिक, आंतरिक आत्म और ब्रह्मांड के बीच संबंध का प्रतिनिधित्व करता है। योग के शुरुआती संदर्भों में से एक ऋग्वेद में पाया जा सकता है, जो लगभग 2500-1500 ईसा पूर्व का एक प्राचीन भारतीय ग्रंथ है। वैदिक ग्रंथों में, "योग" शब्द अनुशासन, ध्यान और उच्च चेतना की स्थिति प्राप्त करने के उद्देश्य से अनुष्ठानों से जुड़ा हुआ है। समय के साथ, योग एक अधिक संरचित अभ्यास बन गया, विशेष रूप से उपनिषदों (लगभग 1500-500 ईसा पूर्व) में, जहाँ आत्म-साक्षात्कार और व्यक्ति के ईश्वर के साथ मिलन की अवधारणा पर जोर दिया गया है। महाकाव्य महाभारत में, विशेष रूप से भगवद गीता में, योग को आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के साधन के रूप में विस्तृत रूप से बताया गया है। भगवान कृष्ण ने योद्धा राजकुमार अर्जुन को आंतरिक संघर्ष और भ्रम को दूर करने के तरीके के रूप में योग का अभ्यास करने की सलाह दी। गीता में, योग को विभिन्न मार्गों में वर्गीकृत किया गया है, जिसमें कर्म योग (कार्रवाई का योग), भक्ति योग (भक्ति का योग) और ज्ञान योग (ज्ञान का योग) शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक अलग-अलग तरीकों से ईश्वर के साथ मिलन की ओर ले जाता है।
योग की परिभाषा
भारतीय चिन्तन पद्धति व दर्शन में योग विद्या का स्थान सर्वोपरि
एवं अति' महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट रहा है। भारतीय ग्रन्थो मे अनेक स्थानो पर योग
विद्या से सम्बन्धित ज्ञान भरा पडा है। वेदों उपनिषदों, पुराणों, गीता आदि प्राचीन
व प्रामाणिक ग्रन्थो मे योग शब्द वर्णित है। योग की विविध परिभाषाऐँ इस प्रकार है।
वेदों के अनुसार योग की परिभाषा-
वेदो
का वास्तविक उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना तथा आध्यात्मिक उन्नति करना है। योग को
स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद में कहा है।
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन्।
स धीनां योगमिनवति योगमिन्वतिः।। (ऋत्ववेद 1/18/7)
अर्थात विद्वानो का कोई भी कर्म बिना योग के पूर्ण अर्थात सिध्द नहीं होता ।
सद्वा नो योग आ भुवत् स राये स पुरंध्याम् गमद् वाजेगिरा स न: । । ऋ०1/5/3 साम०
3०/2/10, अथर्ववेद 20/29/9
अर्थात वह अद्वितीय सर्वशक्तिमान अखण्ड आनन्द परिपूर्ण सत्य सनातन परमतत्व हमारी
समाधि की स्थिति मे दर्शन देने के निमित्त अभिमुख हो।
योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे। सखाय इन्द्र भूतये। । शुक्ल यजु०
11/14
अर्थात हम सखा (साधक) प्रत्येक योग अर्थात समाधि की प्राप्ति के लिए तथा हर
परेशानी मे परम ऐश्वर्यवान इन्द्र का आह्वान करते है।
वेदों मे हठयोग के अंगो का वर्णन भी मिलता है।
अष्टचक्र नवद्वारा देवानां पूरयोधया तस्यां हिरण्यमय: कोश: स्वर्गो
ज्योतिषावृतः अर्थवेद 10/1 / 31
अर्थात आठ चक्रो, नव द्वारों से युक्त हमारा यह शरीर वास्तव मे देवनगरी है। इसमे
हिरण्यमय कोश है जो ज्योति व असीम आन्नद से युक्त है। वास्तव मे यह असीम आन्नन्द
की प्राप्ति योग से ही सम्भव है। संक्षेप मे कहें तो योग का वर्णन वेदों मे बिखरा
पडा हुआ है आत्मकल्याण ही इसका प्रतिपाद्य विषय है ।
उपनिषदों में योग
उपनिषद
जिन्हें वेदांत भी कहा जाता है इनकी संख्या 1०8 बताई गई है। अनेकानेक उपनिदों के
अनुसार योग की परिभाषा इस प्रकार है।
योगशिखोपनिषद के
अनुसार-
यो पान प्राणयोरऐक्यं स्थरजो रेतसोस्तथा।
सूर्य चन्द्रमसोर्योगाद् जीवात्म परत्मात्मनो।।
एवं तु द्वन्द्व जातस्य संयोगों योग उच्चते।।
अर्थात, प्राण और अपान की एकता सतरज रुपी कुण्डलिनी की शक्ति और स्वरेत रुपी
आत्मतत्व का मिलन, सूर्य स्वर व चन्द्रस्वर का मिलन एवं जीवात्मा व परमात्मा का
मिलन योग है।
योग शिखोपनिषद में कहा
गया है-
मंत्रो लयो हठो राजयोगान्ता भूमिका: क्रमात्!
एक एव चतुधाडय महायोगाउभिधीयते।
अर्थात, मंत्रयोग, लययोग, हठयोग और राजयोग ये चारो जो यथाक्रम चार भूमिकाएं हैँ।
चारों मिलकर यह एक ही चतुर्विध योग है। जिसे महायोग कहते है।
श्वेताश्वतर उपनिषद के
अनुसार योग की परिभाषा-
न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्। । (2 / 2 2 )
अर्थात, योग की अग्नि से बना हुआ शरीर जिसे प्राप्त होता है उसे कोई रोग नहीं होता
है न उसे बुढापा आता है और मृत्यु भी नहीं होती है।
अमृतनादोपनिषद के
अनुसार योग की परिभाषा-
प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामौन्थ धारणा।
तर्करचैव समाधिश्व षडंगोयोग उच्यते। ।
अर्थात, प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क और समाधि यह षडंण योग कहलाता
है। अन्य एक उपनिषद में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और ससाधि योग के
छ: अंग बताये गए हैं।
श्वेताश्वतर उपनिषद योग
के फलों को स्पष्ट कर कहता है।
लधूत्वसारोरयं मलोलुपत्वं वर्ण प्रसादं स्वर सौष्ठवं च।
गन्धा: शुभो मूत्रपुरीषमल्यं योग प्रवृत्रिं प्रथमा वदन्ति। । (2/13)
अर्थात, योग सिद्ध हो जाने पर शरीर हल्का हो जाता है। शरीर निरोगी हो जाता है,
विषयों के प्रति राग नहीं रहता। नेत्रों को आकर्षित काने वाली शरीर को कांति
प्राप्ति हो जाती है। अर्थात योगी का शरीर आकर्षक हो जाता हैँ। उसका स्वर मधुर हो
जाता है, शरीर से दिव्य गंध आती है। शरीर मे मलमूत्र की कमी हो जाती हैं।
कठोपनिषद के अनुसार योग
की परिभाषा-
मैत्रायण्युपनिषद् में कहा गया है
एकत्वं प्राणमनसोरिन्द्रियाणां तथैव च।
सर्वभाव परित्यागो योग इत्यभिधीयते । । 6/ 25
अर्थात प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना,
बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना,
प्राण का निश्चल हो जाना योग है।
योगशिखोपनिषद के अनुसार
योग की परिभाषा-
योऴपानप्राणयोरैक्यं स्थरजोरेतसोस्तथा।
सूर्याचन्द्रमसोर्योगोद् जीवात्मपरमात्मनोः।
एवं तु द्वन्द्व जातस्य संयोगो योग उच्यते। । 1/68-69
अर्थात् अपान और प्राण की एकता कर लेना, स्वरज रूपी महाशक्ति कुण्डलिनी को स्वरेत
रूपी आत्मतत्व के साथ संयुक्त करना, सूर्यं अर्थात् पिंगला और चन्द्र अर्थात् इंडा
स्वर का संयोग करना तथा परमात्मा से जीवात्मा का मिलन योग है।
पुराणों के अनुसार योग
की परिभाषा-
पुराणों
की संरव्या 18 बताई गयी है; अनेकोनक पुराणों में योग के संकेत मिलते है।
अग्निपुराण के अनुसार-
ब्रहमप्रकाशकं ज्ञानं योगस्थ त्रैचिन्तता।
चित्तवृतिनिरोधश्च: जीवब्रहात्मनोः पर: । । अग्निपुराण 183।1- 2
अर्थात ब्रहम में चित्त की एकाग्रता ही योग है।
नारद पुराण के अनुसार -
नारद पुराण मे अष्टांग योग का वर्णन मिलता है। योग सूत्र में यम के 5 भेद है पर
नारद पुराण मे क्रमश: (अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रहमचर्यं,अपरिग्रह, अक्रोधा अनुसूया)
7 भेद यमो के बताये है।
मत्स्य पुराण के
अनुसार:
मत्स्य पुराण का कर्मयोग मुख्य प्रतिपाद्य विषय है कहा गया है कि कर्मयोग से ही
परमपद (समाधि) की सिद्धि होती है।
ब्रहम पुराण के अनुसार-
ब्रहम पुराण मे बताया गया है कि शीत व उष्णता मे कभी भी योग का अभ्यास नहीं करना
चाहिए। जलाशय के समीप जीर्ण घर में, चौराहो पर, सरीसृपो के निकट तथा श्मशान में
योग की साधना नहीं करनी चाहिए।
स्कन्ध पुराण के अनुसार-
स्कन्ध पुराण मे क्रिया योग का विस्तृत वर्णत किया है। वासुदेव भगवान (विष्णु) का
पूजन क्रिया योग बताया गया है।
लिंग पुराण के अनुसार
योगो निरोधों वृत्तेषु चित्सस्य द्विजसताय: ।
अर्थात् चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहा जाता है।
श्रीमद भगवत गीता के अनुसार योग की परिभाषा-
गीता में योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बताते है-
योगस्थ: कुरु कर्माणि संगत्यक्त्वा धनंजयः।
सिद्धयसिध्दयो समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते। । 2/48
अर्थात है धंनजय तू आसक्ति को त्यागकर समत्व भाव से कर्म कर। सिद्धी और असिद्धी में समता बुद्धि से कार्य करना ही योग है। सुख दुख, जय पराजय, हानि लाभ, शीतोष्ण आदि द्वन्दों मे एकरस रहना योग है।
बुद्धीयुक्तो जहातीह उभे सुकृत दुष्कृते।
तस्माध्योगाय युजस्व योग: कर्मसुकौशलम् ।। 2/50
अर्थात कर्मो मे कुशलता ही योग है। कर्म इस कुशलता से किया जाए कि कर्म बन्धन न कर सके। अर्थात अनासक्त भाव (निष्काम भाव) से कर्म करना ही योग है। क्योकि अनासक्त भाव से किया गया कर्म संस्कार उत्पन्न न करने के कारण भावी जन्मादि का कारण नहीं बनता। कर्मों मे कुशलता का अर्थ फल की इच्छा न' रखते हुए कर्म को करना ही कर्मयोग है।
योगसूत्र के अनुसार योग की परिभाषा-
योगसूत्र
जो महर्षि पतंजलि ने प्रतिपादित किया है इसमें चार पाद है। समाधिपाद, साधनापाद,
विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद
'योगश्चित्तवृतिनिरोधः’ यो.सू. 1/2
अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त का तात्पर्य, अन्तःकरण
से है। बाह्यकरण ज्ञानेन्द्रियां जब विषयों का ग्रहण करती हैं, मन उस ज्ञान को
आत्मा तक पहुँचाता है। आत्मा साक्षी भाव से देखता है। बुद्धि व अहंकार विषय का
निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते हैं। इस सम्पूर्ण क्रिया से चित्त में जो
प्रतिबिम्ब बनता है, वहीँ वृति कहलाता है। यह चित्त का परिणाम है। चित्त दर्पण के
समान है। अत: विषय उसमें आकर प्रतिबिम्बित होता है अर्थात् चित्त विषयाकार हो जाता
है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग हैं। योग के अर्थ को और अघिक
स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि ने आगे कहा है-
'तदा द्रष्टुःस्वरुपेऴवस्थानम्। - 1/3
अर्थात् योग की स्थिति में साधक (पुरुष) की चित्तवृत्ति निरुद्धकाल में कैवल्य
अवस्था की भाँति चेतनमात्र (शुध्द परमात्म) स्वरूप मे स्थित होती है। इसीलिए यहाँ
महर्षि पतंजलि ने योग को दो प्रकार से बताया है
1. समप्रज्ञात योग
2. असमप्रज्ञात योग
समप्रज्ञात योग में तमोगुण गौण रुप में नाम मात्र रहता है। तथा पुरुष के चित्त में
विवेक-ख्याति का अभ्यास रहता है। असमप्रज्ञात योग मे सत्व चित्त में बाहर से तीनो
गुणों का परिणाम होना बन्द हो जाता है तथा पुरुष शुध्द कैवल्य परमात्मस्वरुप में
अवस्थित हो जाता है।
योग वाशिष्ठ के अनुसार योग की परिभाषा-
योग वाशिष्ठ नामक ग्रन्थ की रचना महर्षि वाशिष्ठ ने की है तथा इस ग्रन्थ से महर्षि वाशिष्ठ ने श्रीरामचन्द्र जी को योग की आध्यात्मिक विधाओं को सरलता से समझाया है। योगवाशिष्ठ को महारामायण भी कहा जाता है। योग वाशिष्ठ कहता है कि संसार सागर से पार होने की युक्ति का नाम योग है।
बौद्ध दर्शन के अनुसार योग की परिभाषा-
बौद्ध दर्शन को नास्तिक दर्शन माना जाता है परन्तु बौद्ध दर्शन में निर्वाण प्राप्ति की चर्चा की गयी है और इस निर्वाण प्राप्ति के लिए कुछ उपाय बौद्ध आचार्यो ने बताये हैं। निर्वाण. समाधि का ही पर्यायवाची शब्द है। योग मे जिसे हम समाधि कहते है महर्षि पंतजलि से उसे कैवल्य कहा, जैन मुनियो ने मुक्ति कहा, सनातन धर्म मे मोक्ष। नाम अनेक है पर अर्थ एक ही स्पष्ट होता है कि इस निर्वाण (समाधि) की प्राप्ति करना ही योग है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण प्राप्ति के 8 मार्ग बताये गये है।
1. सम्यक दृष्टि- हमारी चार आर्य सत्यो, दुखों, दुख का कारण, दुःख नाश व दुःख नाश के लिए सम्यक दृष्टि रहे।
2. सम्यक संकल्प-अनात्म पदार्थों को त्यागने के लिए संकल्प लें।
3. सम्यक वाक - अच्छा बोले, अनुचित वचनो का त्याग करें।
4. सम्यक कर्म- सम्यक कर्म का अर्थ है अच्छे कर्म करे जिसमे पूरा कर्मयोग आता है।
5. सम्यक आजीव - न्यायपूर्वक धर्मानुसार अपनी आजीविका चलाये।
6. सम्यक व्यायाम- अर्थात बुराइयो को नष्ट कर अच्छे कर्मो के लिए प्रयत्नशील रहना सम्यक व्यायाम है।
7. सम्यक स्मृति- काम, क्रोध, मोह, लोभ से सम्बन्धित अनात्म वस्तुओं का स्मरण न करे । .
8. सम्यक समाधि- समाधि अर्थात मन को वश मे कर चित्त को आत्मकल्याण के लिए एकाग्र करें।
इस प्रकार हम देखते है कि बौद्ध दर्शन की समानता योग के महत्वपूर्ण ग्रन्थ योग दर्शन से मिलती है। योग दर्शन का प्रतिपाद्ध विषय कैवल्य (समाधि) की प्राप्ति है जिसे बौद्ध आचार्य निर्वाण कहते है।
जैन दर्शन के अनुसार योग की परिभाषा-
योग की परिभाषा बताते हुए जैन
आचार्य यज्ञोविजय अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ द्वात्रिशिका में कहते है-
“मौक्षेण योजनादेव योगो इत्र निरूध्यते" (10- 1)
अर्थात योग के जिन जिन साधनो से आत्म तत्व की शुद्धि होती है, वहीँ साधन योग है।
योग साधना के लिए जैन मत में महाव्रतो की बात कही गयी है जो क्रमश: अहिंसा, सत्य,
अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह है। इनमे भी अहिंसा को बल दिया गया है। ये पांचो
महाव्रत योग के महत्वपूर्ण भाग अष्टांग योग के यम है। इनके अतिरिक्त जैन आचार्यों
ने 10 धर्मो का पालन बताया है। 1. क्षमा 2. मृदुला 3. सरलता 4. शौच 5. सत्य
6. सयंम 7. त्याग 8. उदासिन्य 9. ब्रह्मचर्य 10. अहिंसा।
उपरोक्स तथ्यों से स्पष्ट है कि योग का वर्णन कही न कही जैन दर्शन में मिलता है।
योग की अन्य परिभाषा-
1.
महर्षि व्यास के अनुसार- योग: समाधि:। महर्षि व्यास ने योग को समाधि बतलाया
है।
2. श्रीगुरूग्रंथ साहिब के अनुसार- निष्काम कर्म करने मे सच्चे धर्म का पालन, यही
वास्तविक योग है। परमात्मा की शाश्वत और अखण्ड ज्योति के साथ अपनी ज्योति को मिला
देना ही वास्तविक योग है।
3. महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार- जीवात्मा व परमात्मा के संयोग की अवस्था का नाम
योग है।
4. श्री रामशर्मा आचार्य के अनुसार- जीवन जीने की कला ही योग है ।
5. शंकराचार्य जी के अनुसार- ब्रह्मा को सत्य मानते हुए और इस संसार
के प्रति मिथ्या दृष्टि रखना ही योग है कहा गया है-
"ब्रहमसत्यं जगत्मिथ्या"
योग की व्युत्पत्ति और परिभाषा Download pdf file
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