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सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim) 1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं नाभी से नीचे के हिस्से पर अन्दर ध्य

सिद्ध सिद्धांत पद्धति - प्रथम अध्याय

  सिद्ध सिद्धांत पद्धति सिद्ध- अर्थात- योगी, महान पुरुष सिद्धांत-  अर्थात् - निश्चित मत   पद्धति- अर्थात् - मार्ग अर्थात्‌ सिद्ध योगियों के निश्चित मार्ग पर चलना  सिद्ध सिद्धांत पद्धति के लेखक गुरू गौरक्षनाथ जी है। सिद्ध सिद्धांत पद्धति में छः अध्याय या उपदेश है। 1. पिण्ड उत्पति विचार  2, पिण्ड विचार  3. पिण्ड ज्ञान  4. पिण्ड धारा  5. समरसता  6. अवधूत की विशेषता  1. प्रथम अध्याय- पिण्ड उत्पति विचार- परब्रहमा की पांच आदिम शक्तियों की चर्चा की हैं (i) निजा या अनामा शक्ति -  नाम रहित, सत्य, सनातन जो नित्य है।   (ii) पराशक्ति - सृष्टि की इच्छा।   (iii) अपरा शक्ति - स्पंद के उत्पन्न होने से।   (iv) सूक्ष्म शक्ति - अंहकार भाव से निर्मित शक्ति  (v) कुण्डलिनी शक्ति- मोक्ष प्रदान करने वाली जीवन मरण के बन्धन से मुक्ति देने वाली। निजा या अनामा शक्ति के पाँच गुण (i) नित्यता - जो नित्य है सदा से चली आ रही है।  (ii) निरंजना - राग, द्वेष, क्रोध, मोह से छुटना अभाव ही निरंजन है।  (iii) निस्पंदना - चंचलता से रहित।  (iv) निराभाजता - भेद रहित अभेद शक्ति।  (v) निरूथान - परिणाम रहित शक्ति का उत्पन्न हो

योगवशिष्ठ ग्रन्थ का सामान्य परिचय

मुख्य विषय- 1. मनोदैहिक विकार, 2. मोक्ष के चार द्वारपाल, 3. ज्ञान की सप्तभूमि, 4. ध्यान के आठ अंग, 5. योग मार्ग के विघ्न, 6. शुक्रदेव जी की मोक्ष अवधारणा  1. योग वशिष्ठ के अनुसार मनोदैहिक विकार- मन के दूषित होने पर 'प्राणमय कोष' दूषित होता हैं, 'प्राणमय' के दूषित होने से 'अन्नमय कोष' अर्थात 'शरीर' दूषित होता है, इसे ही मनोदैहिक विकार कहते हैं:- मन -> प्राण -> अन्नमय (शरीर) योग वशिष्ठ के अनुसार आधि- व्याधि की अवधारणा- Concept of Adhis and Vyadhis आधि- अर्थात- मानसिक रोग > मनोदैहिक विकार > व्याधि- अर्थात- शारीरिक रोग आधि एवं व्याधि का संबंध पंचकोषों से है: आधि- (Adhis) 1. आनंदमय कोष:- इस कोष में स्वास्थ्य की कोई हानि नहीं होती इसमें वात, पित व कफ की समरूपता रहती है। 2. विज्ञानमय कोष:- इस कोष में कुछ दोषों की सूक्ष्म प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसमें अभी रोग नहीं बन पाते क्योंकि इसमें दोषों की प्रक्रिया ठीक दिशा में नहीं हो पाती। 3. मनोमय कोष:- इस कोष में वात, पित व कफ की असम स्थिति शुरू होती है यहीं पर 'आधि' की शुरुआत होती है। (आधि= मान